हैदरः हम हैं कि हम नहीं

झेलम झेलम ढूंढ़े किनारा/ डूबा सूरज किन आंखों में/ झेलम हुआ खारा/ किससे पूछें कितनी देर से/
दर्द को सहते जाना है/ अंधी रात का हाथ पकड़कर/ कब तक चलते जाना है

ग़ुलजार (फिल्म ‘हैदर’ के गीत से)

हैदर फिल्म पर बात इन्हीं पंक्तियों से शुरु होनी चाहिए। ये. पंक्तियां निर्देशक विशाल भारद्वाज के वास्तविक मंतव्य की ओर ले जाती हैं। यह फिल्म शेक्सपीयर के उदात्त नायकों और युगों की अनुगूंज अपने भीतर समेटने वाली मानवीय त्रासदी से गुजरते हुए असल में बहुत कोमल भाव के साथ समाप्त होती है। और अंत में जब फैज़ अहमद फ़ैज की एक नज़्म अंधेरे में लोरी बनकर गूंजती है और सिनेमाहॉल से निकलने के बाद बहुत देर तक पीछा करती है; तब एक भीषण रक्तपात में डूबा हुआ फिल्म का क्लाइमेक्स अंततः नज़्म की इन पंक्तियों पर हल्का होकर तैरने लगता है- “उन दुख़ी माँओं के नाम/ रात में जिन के बच्चे बिलख़ते हैं और/ नींद की मार खाए हुए बाज़ूओं से सँभलते नहीं/ दुख बताते नहीं/ मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं”।

हैदर एक सिंफनी रचती है। इसमें शेक्सपीयर हैं, विशाल भारद्वाज का रुह को छू लेने वाला संगीत है, फैज़ और गुलज़ार के याद रह जाने वाली रचनाएं हैं और विशाल भारद्वाज के अद्भुत संवाद हैं। तब्बू, केके, इरफान और शाहिद की अदायगी है। और इतिहास के त्रासद मज़ाक हैं। यही वह जगह है जहां विशाल इस फिल्म को बड़ा बनाते हैं। एक क्लासिक रचना पर आधारित यह फिल्म एब्सर्डिटी की हद तक जाने का खतरा उठाती हुई इतिहास के त्रासद मजाक पर टिप्पणी करती है। यह शेक्सपीयर से सैमुअल बैकेट तक का सफर है, मगर थोपा हुआ नहीं बल्कि भीतर कथा, किरदार और कैनवस में गुंथा हुआ। इस लिहाज से भारद्वाज की यह फिल्म अपने तेवर में आधुनिक या कहें तो उत्तर आधुनिक है।

फिल्म शेक्सपीयर के नाटक ‘हैमलेट’ को अपनी रचनात्मकता का आधार बनाती है। मूल कथा में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। शेक्सपीयर हैमलेट में क्लाडियस अपने भाई यानी हैमलेट के पिता की हत्या करके डेनमार्क का राजा बनता है और हैमलेट की मां उसकी रानी। राजदरबार में मौत का शोक और शादी का उत्सव- दोनों साथ होते हैं। शेक्सपीयर का हैमलेट बेहद संवेदनशील और कुशाग्र बुद्धि वाला शख्स है। हैदर भी कविताएं लिखता है और फिल्म आगे बढ़ती है तो विक्षिप्तता में उसकी शायरी चाबुक की तरह लगती है। शेक्सपीयर का हैमलेट अपने आसपास की घटनाओं से बुरी तरह व्यथित है। क्लाडियस उसे समझाकर अपने पक्ष में करने का प्रयास करता है। लेकिन हैमलेट को पिता की प्रेतात्मा बता देती है कि उसकी हत्या क्लाडियस ने ही की थी। हैमलेट का द्वंद्व और भी बढ़ जाता है। अब उसे अपने पिता की मौत का प्रतिशोध लेना है।

A scene from Vishal Bhardwaj movie Haider
नाटक का चरम शायद वह स्थल है जब राजतंत्र की निरंकुशता, मां की कमजोरियां और फरेब तथा पोलोनियस जैसे राज्याधिकारियों की सत्ता के प्रति अंधनिष्ठा- इन सबको देख कर प्रतिशोध की आग और आत्मघात की गहरी घुटन से भरा बेचैन हैमलेट पिता की हत्या के दृश्य को नाटक के रूप में पेश करके क्लाडियस को बेनकाब करता है। ‘हैदर’ में यह एक नृत्य-नाट्य प्रस्तुति के रूप में सामने आता है। हैदर बने शाहिद कपूर ने अपने आवेग भरे शारीरिक अभिनय से इन दृश्यों को यादगार बना दिया है। भारतीय फिल्मों में कथा के भीतर कथा के जरिए अतीत में हुए पापों को उजागर करने और प्रतिशोध का ऐलान करने का अंदाज बहुत लोकप्रिय रहा है। इसका सबसे लोकप्रिय उदाहरण फिल्म कर्ज के गीत “इक हसीना थी, इक दीवाना था…” के फिल्मांकन में देखा जा सकता है। पुराने दौर की बहुत सी हिन्दी फिल्मों में नायक के भीतर की घुटन और प्रतिशोध की भावना ही कथा के भीतर कथा का रूप ले लेती थी और उसे अक्सर मंच पर नाट्य रचनाओं की प्रस्तुति के रूप में दिखाया जाता था। यह फार्मुले में भले ही तब्दील हो गया हो उसकी जड़ों में हैमलेट का वह महान दृश्य है। ‘हैदर’ में यह घुटन तीव्र रूप इसलिए ले लेती है क्योंकि वह चरित्र अपने आसपास के राजनीतिक दबावों को भी समेटता हुआ चलता है।

भारतीय साहित्य पश्चिमी चरित्रों को किस तरह से स्वीकार या अस्वीकार करता है, इसका एक दिलचस्प उदाहरण हिंदी कवि रामधारी सिंह दिनकर के एक लेख में मिलता है। वे अपनी किताब कवि और कविता में लिखते हैं, “हैमलेट अनोखा हमें जितना भी लगे वह बिल्कुल अपरिचित व्यक्ति नहीं है। प्राचीन काल में हैमलेट की कल्पना नहीं की जा सकती थी, क्योंकि उस समय आदमी की जानकारी कम, मगर उसके मिजाज में स्थिरता अधिक थी। हैमलेट का असली समय वह है, जिसमें हम जी रहे हैं। ज्यों-ज्यों आदमी के ज्ञान में वृद्धि होती है, त्यों त्यों चिंतक वर्ग का बुरा हाल होता जाता है। यह युग उन मनीषियों का है जो फाउस्ट के सगोत्री होने के कारण मिट रहे हैं अथवा मिजाज से हैमलेट होने के कारण विनाश को प्राप्त हो रहे हैं; या तो उच्चाभिलाषाओं के कारण टूट रहे हैं या इस कारण बर्बाद हो रहे हैं कि जो बातें उनको पसंद नहीं है उनसे वे समझौता नहीं कर सकते।” हैदर भी हालात से समझौता नहीं करता।

विशाल भारद्वाज ने बड़ी सूझबूझ से हैमलेट की इस कहानी को भारतीय तानेबाने में बुना है। इसके लिए कश्मीर का चयन करना उनके रचनात्मक विवेक का उदाहरण है। हैमलेट और डा. फाउस्ट को आधुनिक पश्चिमी मानस का प्रतिनिधित्व माना जाता है। फाउस्ट जहां उच्च महत्वाकांक्षा का प्रतीक है, हैमलेट दुविधा का। हैमलेट जैसे ठेठ पश्चिमी किरदार को भारतीय परिवेश में प्रस्तुत करना एक मुश्किल काम था। मगर शाश्वत मानवीय स्थितियां देशकाल से परे होती हैं और कई बार सर्वथा भिन्न स्थितियों बेहद सटीक साबित होती हैं। जापानी निर्देशक अकीरा कुरोसावा ने अपनी फिल्मों में शेक्सपीयर और मैक्सिम गोर्की जैसे यूरोपीय लेखकों की रचनाओं को बिल्कुल भिन्न एशियाई परिवेश में प्रस्तुत किया और ये विश्व की महान फिल्मों में गिनी जाती है। ‘हैदर’ में कई बार लगता है कि हैदर के लिए कश्मीर का चयन नहीं बल्कि कश्मीर की विडंबना को दर्शाने के लिए हैमलेट का चयन किया गया है। फिल्म रिलीज होने से पहले भारद्वाज ने एक इंटरव्यू में कश्मीर की पृष्ठभूमि के चयन पर अपनी स्थिति साफ की थी। उन्होंने कहा था कि उन्हें हैमलेट के लिए एक हिंसक राजनीतिक पृष्ठभूमि की जरूरत थी। उन्होंने यह भी कहा कि हमने मुख्य धारा के सिनेमा में अभी तक कश्मीर की स्थिति पर वास्तव में कोई फिल्म नहीं बनाई है। कश्मीर और हैमलेट जैसे विषय पर आधारित फिल्म बनाना मुश्किल है लेकिन मुझे उम्मीद है कि मैं ऐसा कर पाउंगा।

…और विशाल ऐसा कर पाए। स्याह स्क्रीन में उभरने वाले फिल्म के आरंभिक दृश्यों के जरिए ही विशाल अपने दर्शकों को नब्बे के दशक की कश्मीर घाटी में ले जाते हैं। जहां की हवाओं में बारूद की गंध फैली है और पढ़ाई के लिए अलीगढ़ भेजा गया हैदर वापस लौटा है अपने पिता की तलाश में। हैदर के डॉक्टर पिता (नरेंद्र झा) अचानक लापता हो जाते हैं। उसे सिर्फ इतना पता चलता है कि डॉक्टर को सुरक्षा एजेंसियों के अफसर जांच के लिए ले जाते है। शक है कि डॉक्टर घाटी में सक्रिय आतंकी संगठन के लिए काम करते हैं। इसके बाद हैदर के पिता अचानक गायब हो जाते हैं। पिता की तलाश कर रहे हैदर के सामने कई रहस्योद्घाटन होते हैं। दर-ब-दर भटकते हुए हैदर को पता चलता है उसके पिता की रहस्यमय मौत हो चुकी है।

यह बताने वाला रूहदार है, जो खुद एक रहस्यमय शख्स है। इन घटनाक्रमों के बीच हैदर की अम्मी गजाला बेगम (तब्बू) और उसके चाचा खुर्रम (केके मेनन) निकाह करने की तैयारी कर रहे हैं। अपने पिता के हत्यारों से बदला लेने की फिराक में लगे हैदर के शक की सुई खुर्रम और अपनी मां पर टिक जाती है। हैदर को यह समझ में नहीं आता कि वह किस पर यकीन करे। अपनी मां पर, अपनी प्रेमिका अर्शिया पर या रुहदार पर। उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगता है। मगर यह संतुलन बिगड़ना भी एक रचनात्मक ट्विस्ट है। मिशेल फुको जैसे उत्तर आधुनिकतावादी चिंतक मानते हैं कि जिन्हें पागल समझा जाता है हो सकता है कि वे संवेदना के स्तर पर बिल्कुल अलग जमीन पर खड़े हों और तथाकथित सामान्य लोग किसी सामूहिक विक्षिप्तता का शिकार हों। फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है हैदर एक डिस्टॉर्टेड (विरूपित) कैरेक्टर बन जाता है। हैदर समझ जाता है कि वह कुछ कर नहीं सकता मगर व्यवस्था पर उसके हंसने की ताकत को कोई राज्यसत्ता नहीं छीन सकती। हैदर का परिहास या मज़ाक उड़ाना एक गहरी निराशा से निकलकर बाहर आता है। यही विशाल भारद्वाज का ‘हैमलेट’ है।

Haider Movie

हैदर के किरदार का यह ट्रांस्फार्मेशन स्तब्ध कर देता है। उसके इसी पागलपन के दौर में हैमलेट के ‘टू बी ऑर नॉट टू बी, दैट इज द क्वेश्चन’ को विशाल भारद्वाज ‘हम हैं कि हम नहीं’ के रूप में सामने लाते हैं। यह हैमलेट की दुविधा तो है ही, कश्मीर को उसकी एब्सर्डनेस के साथ सामने लाता है। “शक पे है यकीं तो/ यकीं पे है शक मुझे”। उसकी प्रेमिका अर्शिया पूछती है, “मतलब?” तो हैदर जबाव देता है, “रुहदार का अफसाना सच्चा/ या झूठी कहानी चचा की/ किसका झूठ झूठ है/ किसके सच में सच नहीं/ है कि है नहीं/ बस यही सवाल है/ और सवाल का जवाब भी सवाल है” अर्शिया फिर पूछती है, “क्या?” हैदर का जवाब है, “दिल की गर सुनूं तो है/ दिमाग की तो है नहीं/ जान लूं कि जान दूं/ मैं रहूं कि मैं नहीं”।

विशाल की रचनात्मक सूझबूझ का एक और उदाहरण रूहदार (इरफान खान) का किरदार है, जो खास इस फिल्म के लिए ही रचा गया है। रूहदार ही हैदर को पिता की हत्या के बारे में बताता है, जबकि नाटक में हैमलेट की पिता की प्रेतात्मा रहस्योद्घाटन करती है। मूल नाटक की तरह यहां भी हैदर यानी हैमलेट क्लाडियस यानी खुर्रम (केक मेनन) को मार डालने की फिराक में घूम रहा है और क्लाडियस हैमलेट को। शेक्सपीयर के हैमलेट में मौका पाकर भी अपने संस्कारों के कारण हैमलेट प्रार्थना कर रहे क्लाडियस को मार कर स्वर्ग में नहीं भेजना चाहता है। फिल्म में यही स्थिति खुर्रम और हैदर के बीच उपस्थित है। हैदर और उसकी मां के बीच रिश्ते भी काफी जटिल हैं। हालांकि हैदर का ओडिपस कांप्लेक्स वास्तविक नहीं लगता, कम से कम सामान्य स्थितियों में यह उतना मुखर नहीं होता जैसा कि फिल्म दिखाने का प्रयास करती है।

नाटक के अंत में पोलोनियस के बेटे लेयर्टीज के साथ तलवारबाजी में जहर बुझी तलवार और जहरीली शराब से क्लाडियस, रानी, हैमलेट सब मारे जाते हैं। पीछे छूट जाता हैं- लाशों का ढेर और उनकी कहानियां। मरते वक्त भी अविश्वास से भरा हुआ हैमलेट होरेशियो से फरियाद करता है- ‘अगर तूने कभी मुझे अपने दिल में जगह दी हो तो छोड़ दे अपनी खुशी थोड़ी देर के लिए और इस जालिम दुनिया में अपने दर्द की सांसें गिनते हुए मेरी कहानी कहने के लिए जिंदा रह!’

हैदर एक राजनीतिक फिल्म नहीं बल्कि राजनीतिक रूप से एक संवेदनशील फिल्म है। यह चेक लेखक मिलान कुंदेरा के उपन्यास ‘द जोक’ या जार्ज आरवेल के ‘1984’ की तरह निजी जीवन में राजनीतिक की पर्तों को उद्घाटित करती है। कई दृश्यों में यह फिल्म एक कॉमिकल प्रहसन का भी सृजन करती है। जैसे चौक पर भीड़ को संबोधित करता सनक गया हैदर, या कब्र खोदते वक्त गीत गाते बूढ़े। सलमान और सलमान (फिल्म के दो हास्य चरित्र जो मुखबिर का काम करते हैं) के किरदार को प्रस्तुत करने में विशाल लगभग हॉलीवुड के अंतोनियो तारंतोनी की तरह हास्य और हिंसा के मेल को तटस्थ रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस फिल्म पर विवाद हुए। खास तौर पर फिल्म की रिलीज के बाद ही सोशल मीडिया पर फिल्म पर काफी चर्चा हुई।

इस फ़िल्म को लेकर ट्विटर पर दो समूह बन गए, एक समर्थकों का और एक विरोधियों का। दोनों समूह अपने-अपने हैशटैग प्रयोग कर रहे थे। फ़िल्म की आलोचना करने वालों ने रिलीज होने के कुछ ही दिनों के भीतर #BoycottHaider (हैदर का विरोध करो) हैशटैग से 75 हज़ार से ज़्यादा ट्वीट किए। विरोध में एक दूसरा समूह खड़ा हुआ जिसने हैदर को एक सच्ची अभिव्यक्ति माना है। इस समूह ने उसी दौरान #HaiderTrueCinema (हैदर वास्तविक सिनेमा) हैशटैग से 45 हज़ार से ज़्यादा ट्वीट किए थे। मगर यह फिल्म हमारे भारतीय समाज के विमर्श को एक कदम आगे ले जाती है जहां हम संवेदनशील विषयों के प्रति अधिक उदार हो रहे हैं। बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में दी इंडियन काउंसिल ऑफ़ वर्ल्ड अफ़ेयर्स’ के विश्लेषक डॉ.ज़ाकिर हुसैन ने इस बहस को सकारात्मक रूप में लेते हुए कहा, “भारत की लोकतांत्रिक परंपरा जितनी मजबूत होगी ऐसी फ़िल्में उतनी ही ज़्यादा बनेंगी और लोग शिक्षित होंगे। ‘हैदर’ इस दिशा में पहला क़दम है।”

कुल मिलाकर ‘हैदर’ बहस की ओर खींचती तो है। वह बहुत सारे परेशान करने वाले सवालों से घेरती भी है। बकौल हैदर- “सवाल का जवाब भी सवाल है….”। वह हमारे भीतर मौजूद हैमलेट को टटोलती है।

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