‘पीके’ का एलियन भोजपुरी बोलता है। उसके ग्रह पर कोई भाषा नहीं है। कहानी के संयोग उसके लिए जिस भाषा को चुनते हैं वह इस विशाल देश के बड़े भू-भाग में पिछड़ों और अशिक्षितों की भाषा मानी जाती है। “…तुम्हारे प्लैनेट की राष्ट्रभाषा भोजपुरी है?” अनुष्का सवाल करती है। ‘पीके’ की भोजपुरी (या भोजपुरी जैसी कोई भाषा) सरल हास्य पैदा करती है मगर राजकुमार हीरानी इस सहज हास्य से कहीं आगे तक जाते हैं। ‘पीके’ की भाषा फिल्म को डि-कोड करने की बुनियादी कुंजी है।
एक वाजिब सवाल मन में उठ सकता है, हीरानी की फिल्म को डी-कोड करने की क्या जरूरत है? सब कुछ कितना सरलीकृत है यहां पर। न कोई जटिल यथार्थ, न परत-दर-परत डेवलप होती पटकथा, न मुश्किल किरदार। तो फिर डि-कोड किसे करना है? दरअसल ‘पीके’ उतनी ही सरल है जितने कि कबीर। जो सहजता और खिलंदड़ेपन से जीवन का सत्य कह देते हैं- माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय। एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय। राजकुमार हीरानी की फिल्म बनाने की शैली में कबीर के इसी खिलंदड़ेपन के बीज हैं। जहां वो गंभीर कथन को एक विडंबनापूर्ण या अटपटी स्थितियों से उपजे परिहास में बदल देते हैं। परिहास मार्मिक होता है और मर्म में जीवन का सच छिपा होता है। बिल्कुल कबीर की उलटबांसियों की तरह।
तो लौटते हैं भाषा के जरिए इस फिल्म को डि-कोड करने के फार्मुले पर। दरअसल भोजपुरी की खूबी यह है कि इस भाषा की अनगढ़ संचरना में भी अद्भुत तंज़ है और अंडरस्टेटमेंट की तो ऐसी भरमार है कि अंग्रेजी सामने खड़ी हो तो शरमा जाए। इसलिए ‘पीके’ में सभ्य समाज या धर्म के पाखंडो पर हंसने के लिए इससे बेहतर बोली का चुनाव नहीं किया जा सकता था। एक उदाहरण देखिए, “एक बार तो ऐसा गजब का कपड़ा मिला जौन पहिने से इस फोटो (हमारे नोट, जिस पर गांधी की तस्वीर छपी रहती है) का जरूरत ही नहीं पड़ता था, खाना अपने-आप पास आ जाता था।” अब जरा गौर करें, अगर ‘पीके’ के तमाम संवाद इस बोली की बजाय सीधी-सादी हिन्दी में होते तो स्थिति क्या होती। ऐसे संवाद न सिर्फ सपाटबयानी में बदल जाते, न सिर्फ कड़वाहट पैदा करते बल्कि गलतफहमियां भी जन्म लेने लगतीं और आरोप-प्रत्यारोपों का एक अंतहीन सिलसिला शुरु हो जाता। पीके कहता है, “समझ में आया… कि इस फोटो का भैल्यू सिर्फ एक कागज पर है। दूसरे कागज पर इस फोटो का भैल्यू जीरो बटा लुल।” गांधी को हमने अपने सार्वजनिक जीवन में कितनी अहमियत दी है इसे इस संवाद में जितने बेहतर तरीके से सामने लाया गया है, परंपरागत भाषा में क्या यह संभव था। कई बार सत्य को सामने लाने के लिए भाषा में तोड़-फोड़ करनी पड़ती है। चाहे वह हमारे आपसी संप्रेषण की भाषा हो या सिनेमा की भाषा। ‘पीके’ दोनों स्तरों पर यह तोड़-फोड़ करती चलती है, वह कबीर की उलटबांसियों की तरह विरल और अटपटे संयोग रचती है।
दिल्ली की एक मेट्रो में पीला हैलमेट पहनकर परचे बांटता पीके जितना अजीब जग्गू (अनुष्का) को लगा होगा, हमें भी उतना ही अजीब लगता है। यह फिल्म ढेरों अटपटी स्थितियों से उपजने वाले हास्य की एक बानगी है। यहां भोजपुरी बोलने वाला एलियन है, एक खूबसूरत सी लड़की है, जिसे सब जग्गू (कभी जैकी श्राफ बना करते थे जग्गू दादा) कहकर बुलाते हैं। या फिर कुछ खांटी किस्म के लोग- जैसे भैरो सिंह (संजय दत्त) हैं जो जीवन को बस उतना ही समझना चाहते हैं जितना जीने के लिए जरूरी है। पीके इस धरती पर एक गलतफहमी का शिकार होता है। उसे लगता है कि भगवान उसकी दिक्कतों का हल निकालेंगे। जैसे-जैसे वह अपनी गलतफहमी के कारण जीवन-मृत्यु, पाप-पुण्य, सही-गलत में उलझता जाता है हमें यह समझ में आने लगता है कि पीके ज्यादा हम सब ‘कन्फ्यूजियाए हुए’ हैं। वह तो हमारे संसार में खाली जगह को बिल्कुल एक खाली जगह की तरह ही देख रहा है। वह सवाल पूछ रहा है मगर सवालों से वो लोग परेशान हो रहे हैं जो नहीं चाहते कि सवाल खड़े किए जाएं। जिस समाज में सवाल नहीं उठते वहां इत्मिनान से मुखौटे पहनकर धोखा देने का एक तंत्र चलता रहता है।
कला जब व्यवस्था पर सवाल करना चाहती है तो उसे कोई संत या उदात्त नायक नहीं एक एलियन या एक देहाती या एक मूर्ख चाहिए होता है। जो मूर्ख समझे जाने का जोखिम उठाते हुए सवाल पूछने का साहस कर सके। जिनके अहमकपने पर लोग कुपित हों, नाराजगी जताएं उसे भला-बुरा कहें, मगर उसका सामना करने से उसके सवालों से रु-ब-रू होने से बचें। उसकी निष्कलुष आंखों में झांककर अपना चेहरा देखने से कतराएं। दोस्तोएवस्की ने ‘अहमक’ (द ईडियट) में ऐसा ही किरदार रचा था तो बिमल मित्र के उपन्यास ‘मुजरिम हाजिर’ का किरदार भी अहमक न सही मगर परेशान करे वाले सवालों के साथ तो खड़ा ही था। कई बरस पहले राज कपूर की क्लासिक ‘जागते रहो’ का देहाती भी ‘पीके’ से अलग नहीं था। उसकी एक रात की मौजूदगी से शहरी जीवन का खोखलापन पूरे जोर के साथ बजने लगता है। वह इस भ्रष्ट ताने-बाने का एक मूक दर्शक भर होता है। पीके को अपना खोया हुआ ‘रिमोटवा’ चाहिए तो ‘जागते रहो’ के देहाती को अपना गला तर करने के लिए पानी। दोनों की एक ही जद्दोजहद है। अपने आप को बचाए रखने का संघर्ष। एक को जीने के लिए पानी चाहिए तो दूसरे को अपने घर जाने का साधन। दोनों की जिजीविषा को विस्तार दें तो वह आम आदमी के जीने के संघर्ष का ही विस्तार है। अपनी इस तलाश के चलते दोनों ही इस व्यवस्था के कुचक्र में फंस जाते हैं। बस, ‘जागते रहो’ का देहाती बोलता नहीं, वहीं पीके पूरी फिल्म में छोटी-छोटी चुटीली उलटबांसियों का इस्तेमाल करता है।
‘पीके’ की खूबी यही है। हीरानी के कथा कहने का यह अंदाज निराला है। गौर करें तो ये मूर्ख देहाती हमारी लोककथाओं में भी जगह-जगह मौजूद हैं। न जाने कितने किस्से हैं, जहां एक गंवार अपनी सहज बुद्धि से लोगों के पाखंड को उजागर कर देता है। पंचतंत्र की एक कथा में अपनी विद्या की शेखी बघारने वाले तीन ब्राह्मण एक मरे हुए शेर को जीवित कर देते हैं, जबकि उनके जिस साथी को गंवार समझा जाता था वह बराबर उन्हें आगाह करता रहता है कि शेर जीवित हो गया तो उन सबको खा जाएगा। जब शेर हमला करता है तो वही मूर्ख अपनी जान बचाने में सफल होता है क्योंकि वह पेड़ पर चढ़ जाता है जबकि उसके विद्वान साथियों ने कभी पेड़ पर चढ़ने जैसी मामूली विद्या सीखने की जहमत ही नहीं उठाई। ‘पीके’ में सहज बुद्धि और विद्वता के पाखंड के टकराव का बहुत ही सटीक चित्रण है। फिल्म में भले ही पीके दूसरे ग्रह से आया प्राणी हो, हमें इसलिए ग्राह्य है क्योंकि हमारी लोक परंपराओं में ऐसे नायक खूब रहे हैं। पीके उस बच्चे की तरह है जो राजा के दरबार में जाकर उसे नंगा कहने का साहस कर बैठता है।
हीरानी की फिल्में दरअसल आधुनिक लोककथाएं ही हैं। उनके किरदार भी लोकगाथाओं जैसे हैं। मुन्नाभाई, सर्किट, ‘पीके’ और जग्गू जैसे कैरेक्टर यहीं मिलेंगे। चाहे जैसे उन्हें उलट-पलट कर देख लें। लोकथाओं का टाइप दरअसल चरित्र की सामाजिक खूबियों को सामने लाता था। पिछले दिनों कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण नहीं रहे। इस प्रसंग में उनका जिक्र करना जरूरी है। उन्होंने रेखाचित्रों के जरिए जो चरित्र रचे वे राजकुमार हीरानी की फिल्मों जैसे ही थे। मसलन आरके लक्ष्मण के ‘बिना गांधी टोपी वाले नेहरू…’ ऐसे रेखाचित्र जो सरल हास्य के बीच सत्य के करीब ले जाते हैं। लक्ष्मण अपने कार्टूनों के जरिए विद्रूप नहीं रचे। उनके सरकारी बाबू, नेता, गृहणियां, पुलिसवाला सब जैसे हमारे आसपास के किरदारों में घुलमिल जाते थे। हर चरित्र अपने में एक छोटी सी कहानी छिपाए रहता है। हीरानी के चरित्र भी कुछ ऐसी ही सरल रेखाओं से बने हैं। यही कारण है कि हर उम्र और वर्ग के लोग इन चरित्रों से आसानी से जुड़ जाते हैं। अनोखे चरित्र बनाना आसान है, क्योंकि आपके जीवन और आसपास ऐसे बहुत से चरित्र टकराते रहते हैं मगर ‘स्टीरियोटाइप’ की रचना करना बेहद मुश्किल है। अपने सकारात्मकता में स्टीरियोटाइप दरअसल समाज के एक खास वर्ग के ‘सारतत्व’ को प्रस्तुत करते हैं। यही वजह है कि स्टीरियोटाइप की थ्योरी पश्चिमी नाट्यशास्त्र में ‘स्टॉक कैरेक्टर्स’ में बदल जाती है। इस फॉर्म का इस्तेमाल बर्तोल्त ब्रेख़्त और दारियो फो जैसे नाटककारों ने भी सामाजिक विसंगतियों और खास सामाजिक चरित्रों को सामने लाने के लिए किया।
थिएटर की खूबियों और संरचनात्मक ताने-बाने से बुनी शंभू मित्र और अमित मैत्र की ‘जागते रहो’ भी कुछ ऐसी ही फिल्म थी, जहां एक बड़ी बिल्डिंग में रहने वाले लोग सांकेतिक रूप से जैसे पूरे देश और तत्कालीन भारतीय समाज के प्रतिनिधि बन गए। यह रूपक सिनेमा की भाषा में इसलिए संभव हो सकता क्योंकि शंभू मित्र के पास इप्टा के अनुभवों से हासिल थिएटर का अनुशासन था। ‘पीके’ की जड़ों में भी कहीं न कहीं थिएटर मौजूद है। चाहे इस फिल्म के लेखक अभिजीत जोशी का यूके के तमाशा थिएटर कंपनी से जुड़ाव ही क्यों न हो। शायद यह कारण है कि ‘जागते रहो’ का वह देहाती अब एक एलियन बन गया है। मगर दोनों कहीं न कहीं हमारे जनमानस में बसे कबीर का रूपक बन जाते हैं। वही ठसक, अंदाजे-बयां और सामाजिक विसंगतियों को भेदने वाली सहज मगर पैनी नजर। ‘जागते रहो’ राजकपूर की महान फिल्मों में से एक है। एक स्तर पर यह फिल्म मौलियर के किसी हास्य नाटक की तरह चलती हुई खत्म हो जाती है। मगर गौर करने पर हास्य से पिरोई इस कथा में बहुतस्तरीय अर्थ छायाएं हैं। ‘पीके’ भी अपनी सहजता में इस अर्थ छायाओं को साथ लेकर चलती है। फिल्म में “आसमां पे है खुदा, और जमीं पे हम” गीत का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है।
इस फिल्म में अनुष्का के कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी थी। आमिर जैसे अभिनेता के बरक्स उसे पूरी फिल्म के नैरेटर की भूमिका को निभाना था। कहानी तो जग्गू यानी अनुष्का कहती है और कहने वाला अगर ढीला-ढाला लगता तो शायद दर्शकों की सारी दिलचस्पी ही खत्म हो जाती। मगर अनुष्का गर्ल नेक्स्ट डोर बनी रहने के साथ ही पटकथा के संवेदनात्मक तंतुओं से जुड़ी रही हैं। वहीं आमिर ने विस्फारित नेत्रों से दुनिया को देखने वाले एलियन का न सिर्फ बेहद दिलचस्प किरदार जिया है बल्कि उसे एक गहराई भी दी है। आमिर मेथड एक्टिंग के करीब हैं और अपनी शारीरिक भाषा और किरदार को पर्दे पर पूरी तरह से जीने के लिए काफी मेहनत करते हैं। मगर यहां उनका पाला पड़ा एक काल्पनिक किरदार से। यह आमिर की खूबी है कि लेखन में पिरोए गए कुछ नए किस्म के मुहावरे जैसे ‘रांग कनेक्शन’ जुबान पर चढ़ जाते हैं।
हालांकि हीरानी को भी इसमें महारत हासिल है- तभी मुन्नाभाई, गांधीगिरी, ऑल इज वेल जैसे फ्रेज का वे न सिर्फ अविष्कार कर पाते हैं बल्कि उनकी सटीकता के जरिए पॉपुलर कल्चर में उसे लोकप्रिय भी बना देते हैं। बार-बार तुलना में लाई जाने वाली फिल्म ‘ओएमजी’ कहीं से कहीं तक ‘पीके’ के करीब नहीं बैठती। ‘ओएमजी’ ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करती हुई धार्मिक पाखंडो पर चोट करती है। मगर पीके इससे उलट सवाल करता है- “तुम एक छोटा सा गोला का छोटा सा शहर का छोटा सा गली मां बैठकर बोलता है कि ओकी रछा करेगा? जउन ई सारा जहान बनाया है!” ‘पीके’ वैचारिक तौर पर एक संशयवादी फिल्म है और इस संशयवाद का दामन हर जगह मजबूती से थामे रहती है मगर वहीं दूसरे स्तर पर उसकी इंसान की अच्छाइयों पर गहरी आस्था भी झलकती है। थोड़ा और गौर करें तो हीरानी की यह फिल्म एनॉलिटिकल भी है। पीके का हर कदम उसकी समझ में होने वाले किसी नए इजाफे से होता है। दिलचस्प बात यह है कि पीके को कुछ और समझ में आता है पर हमारे सामने कुछ और सत्य उद्घाटित होता है- जैसे कि वह कहता है कि धर्म एक फैशन है।
‘पीके’ की खूबी यह है कि वह कहानी कहने के लोकप्रिय तत्वों का सहारा लेते हुए बुराई को व्यक्ति केंद्रित बनाने की बजाय एक तंत्र के रूप में प्रस्तुत करती है और हमें उस तंत्र और विरोधाभासों के प्रति हमें सचेत करती है, जिनका जाल लुभावने शब्दों के जरिए बुना गया है। कबीर के शब्दों में कहें तो- माया महा ठगिनि हम जानी। तिरगुन फांसि लिये कर डोलै बोलै मधुरी बांनी।।