“पापा मैं एक कहानी सुनाऊं?”
“हां !”
“बहुत पहले की बात है/ एक आदमी हुआ करता था/ उसका नाम था हीरो… “उसने बहुत मेहनत की/ इंजीनियरिंग, नौकरी, ऑफिस, हां बोलो, नीचे देखो, हंसो, रोने लगो… “एक दिन यहां से बहुत कोस दूर/ दिल और दुनिया के बीच अपने हीरो को एक साथी मिला…”
‘तमाशा’ देखकर आपको विक्रमादित्य मोटवानी की फिल्म ‘उड़ान’ की याद आ सकती है। शायद यह फिल्म ‘उड़ान’ के उस किशोर का वैकल्पिक भविष्य है। एक विस्तार। उसके युवा होने की कथा…
अगर उसके जीवन में कुछ भी न बदलता।
बाकी सबकुछ वही है। कहानियां सुनने और जीने की ललक। जीवन में कुछ चुनने की अनिवार्यता से पैदा होने वाली उलझन। एक ही जीवन में कई जीवन जी लेने की आकांक्षा।
‘तमाशा’ देखकर आपको और भी बहुत कुछ याद आ सकता है। कोई क्लासिक उपन्यास, कोई ग़जल, कोई कविता… मगर जो याद आएगा वह इसी फिल्म की तरह किसी बेचैनी को अभिव्यक्त कर रहा होगा।
सतही और सपाट किस्म की कहानियों और फिल्मों के साथ जीने वालों को यह फिल्म उबाऊ लग सकती है, मगर फिल्म अपने विषय के हिसाब से अपना खुद का व्याकरण रचती है। या दूसरे शब्दों में कहें तो व्याकरण तोड़ती है।
ठीक उसी तरह है जैसे कविता व्याकरण को तोड़कर अर्थ की रचना करती है। इसीलिए इम्तियाज अली की फिल्में कविता के ज्यादा करीब हैं। वे फिल्म के केंद्रीय भाव को ज्यादा महत्व देते हैं।
इसी फिल्म के संवाद लंबे हो सकते हैं मगर वे उस थीम को, उस केंद्रीय भाव को टटोलते हैं। जरा देखें-
दीपिकाः “ये तुम नहीं हो वेद, ये सब नकली है।”
रनबीरः “मैं वो डॉन थोड़ी ना हूं तारा, वो तो एक्टिंग थी ना, वो मैं एक रोल प्ले कर रहा था और ये मैं रीयल में हूं।”
दीपिकाः “फिर तो मैं किसी और के साथ हूं वेद, मैं कुछ और ढूंढ़ रही हूँ।”
खुद को पहचानने और खुद के करीब जाने की ललक ही तमाशा का वह केंद्रीय भाव है, जिसके चारो तरफ फिल्म को बुना गया है। इम्तियाज अली की फिल्मों में इंडीविजुअलिटी का भाव बहुत गहरा है। उतना ही गहरा जितना कि कभी गुरुदत्त की फिल्मों दिखता था।
बस फर्क इतना है कि गुरुदत्त की ‘प्यासा’ और ‘कागज के फूल’ जैसी फिल्मों के नायकों की आत्मकेंद्रियता में दरअसल सामाजिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश काफी साफ था, वो यहां तक आते-आते धुंधला पड़ता गया है। इसके अपने सामाजिक, राजनीतिक कारण होंगे फिलहाल अभी हम उन पर चर्चा नहीं करते हैं।
पर हम यह देख सकते हैं कि ‘तमाशा’ पॉपुलर कल्चर के अपने रूट्स को भी तलाशती है। खास तौर पर राजकपूर की पिल्मों के। फिल्म के दो दृश्य इस कांटेक्स्ट में खास तौर पर याद रखना चाहिए। फिल्म के शुरु और अंत में स्टेज के सीन में एक जोकर है, जो ‘मेरा नाम जोकर’ के प्रतीक की याद दिलाता है और उस फिल्म की थीम में भी क्या प्रेम और अभव्यक्ति की छटपटाहट नहीं थी?
एक और सीन याद करें-
रनबीरः (कटाक्ष के साथ) “तुझे तो प्यार हो गया है पगली!”
दीपिकाः “हां… हां वेद।”
रनबीरः “पर किसी और से…”
प्रेम की इतनी उत्कटता अब बहुत कम दिखती है। इस सीन में आपको राजकपुर और नरगिस की फिल्म ‘आवारा’ के शैडोज़ दिखेंगे। एक-दूसरे की आंखों में झांकते किरदार, बैकलाइट, दीपिका के चेहरे पर झुका हुआ रनबीर।
बहरहाल ‘तमाशा’ सफल हो या न हो, यह इस दौर की एक ऐसी फिल्म है जिससे बहुत से संवेदनशील युवा खुद को जोड़ पाएंगे। इसलिए नहीं कि वे दीपिका और रनबीर की ड्रेसेज और स्टाइल को फॉलो कर सकें बल्कि इसलिए कि यह फिल्म हमें एक बार अपने भीतर झांकने को कहती है।
रनबीरः “वही कहानी फिर एक बार, मज़नू ने लिए कपड़े फाड़, और तमाशा बीच बाज़ार…”
कहानी वही है। कई बार सुनी, कई बार कही गई। मगर वह फिर उसी हौसले से बीच-बाजार फिर से हमारा गिरेबां थामकर हमारे कानों में कुछ फुसफुसाकर चली जाती है।