आखिर किसी ने तो ऐसी फिल्म बनाई, जहां हम एक भारतीय परिवार को बिल्कुल उस तरह से देख सकते हैं जैसे कि वे सचमुच में हैं। अपनी तमाम लाचारियों, तकलीफों, कमजोरियों और खुशी के लम्हों के साथ। फिल्म का प्रोमो देखकर लगता है कि यह फर्जी खुशियों को दर्शाने वाली एक बनावटी सी फिल्म है मगर इसके उलट यह डार्क और खुरदरी है।
मगर ठहरिए, बस इतना कहने से मैं इस फिल्म पर सतही बातचीत कर पाऊंगा। बात इससे कहीं आगे जाती है। कपूर एंड सन्स में हम जो देखते हैं वो देश के लाखों मध्यवर्गीय परिवारों का मानों एक प्रतिबिंब है। आर्थिक पृष्ठभूमि बहुत मायने नहीं रखती… क्योंकि कमोवेश सपने तो सभी एक जैसे देखते हैं। सभी के मन में ईर्ष्या उठती है, सभी दुखी होते हैं और सभी जीवन में किसी न किसी मोड़ पर धोखा खाते हैं।
यह फिल्म मुझे एक बिल्कुल दूसरे सवाल की तरफ ले जाती है। हमारे यहां फिल्मों और किताबों में दिखाए गए परिवार इतने अवास्तविक और यूटोपियन से क्यों होते हैं? मुझे याद है जब मैं छोटा था तो ‘पारिवारिक फिल्म’ हिन्दी सिनेमा का एक टाइप था, जिसमें एक सुखी परिवार और उससे ईर्ष्या करने वाले और उसमें आग लगाने वाले कुछ लोग होते थे और अंत में सब कुछ सही हो जाता था। मगर वे परिवार में अपने आस-पास कहीं नहीं नजर आते थे।
हमें सिनेमा और साहित्य में वैसे परिवार क्यों नहीं दिखे जैसे रूसी उपन्यासों में दिखते हैं… खुरदुरी वास्तविकता और प्रेम के सोंधेपन के साथ। तो कपूर एंड सन्स एक ऐसी ही फिल्म है जो भारतीय पारिवारिक फिल्मों के सारे मानदंड तोड़ती हुई, उन्हें खारिज करती हुई चलती है।
यह करन जौहर की फिल्म है, एक पॉपुलर फिल्म है। मगर अच्छी बात यह है कि यह पॉपुलर होने के लिए समझौते नहीं करती। कपूर एंड सन्स का परिवार उतना ही अटपटा है जितना अक्सर एक परिवार होता है।
एक दादा जी (ऋषि कपूर) यानी अमरजीत कपूर, उनका बेटा (रजत कपूर) जो नौकरी छोड़कर बिजनेस करने की कोशिश में आर्थिक तंगी से जूझ रहा है। उनकी बहू सुनीता (रत्ना पाठक) जो परिवार के हर सदस्य की इमोशन की डोर से बंधी हुई है। फिर कपूर साहब के पोते यानी अर्जुन (सिद्धार्थ मलहोत्रा) और राहुल (फ़वाद खान)। बड़े अटपटे ढंग से दोनों ही लेखक हैं, एक सफल मगर दूसरा असफल।
कहानी किसी वेस्टर्न प्ले जैसी है। जहां ड्राइंग रूम ड्रामा है, सब कुछ एक ही लोकेशन और परिवार के सदस्यों के बीच घट रहा है। धीरे-धीरे हम कपूर फैमिली के अंधेरे कोनों से परिचित होने लगते हैं। हमें हैरत होती है कि किस तरह चटकने की हद तक पहुंच जाने के बाद भी वे सदस्य मजबूती से परिवार नाम की संस्था को अपने कंधों पर उठाए हुए हैं।
फिल्म सवालों के जवाब नहीं देती, फिल्म की एक और खूबी है कि वह अपने पात्रों का दुख हल्का नहीं करती। चाहे वह टिया (आलिया भट्ट) के साथ हुई त्रासदी हो या अर्जुन के मन के किसी कोने में छिपी तकलीफ या राहुल की उलझन।
शायद यही वह बिंदु है जब यह फिल्म रूसी उपन्यासों की याद दिलाती है। खास तौर पर फिल्म देखते हुए मैक्सिम गोर्की और तोलस्तोय के परिवार याद आने लगते हैं। दुख जस का तस रहता है, दुख कम नहीं होता मगर जिंदगी आगे बढ़ती है तो सुकून के पल भी आते हैं।
दादा जी परिवार को एक कड़ी में बांधने वाले शख्स का काम करते हैं। फिल्म का एक दृश्य जहां परिवार मिलकर एक गीत गा रहा है- अद्भुत है। सबका मिलकर खुश होना उनके निजी दुख को और गहरा कर देता है।
फैमिली फोटो खींचना और दादा जी की बर्थडे पार्टी… इन्हीं दो बिंदुओं के इर्द-गिर्द फिल्म की पटकथा बुनी गई है और जिस तरह बुनी गई है वो अद्भुत है। पात्रों के आपसी संवाद उसी तरह चलते हैं, जैसे कि वास्तविक जिंदगी में। इसकी पटकथा का तानाबाना इस तरह है कि वह ऊपरी स्तर पर भले सहज लगे मगर सतह के नीचे की जटिलताओं का भी लगातार एहसास होता रहता है।
कहानी में कोई पेंचोखम नहीं, कोई उतार-चढ़ाव नहीं, मगर कुछ देर बाद हमें लगता है कि हम किसी आर्केस्ट्रा में बैठे हैं। जहां हर वाद्य (या चरित्र) अपने मूल अस्तित्व के साथ किसी संगीत रचना (मूल कथा) का निर्माण कर रहा है। बस जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती जाती है, हमें धुन ज्यादा स्पष्ट होकर समझ में आने लगती है… शायद यही हमारे भारतीय परिवारों की हारमोनी है।