हमारा बॉलीवुड थर्ड जेंडर को कैसे देखता है?

शायद एक वक्त आएगा जब लोग आश्चर्य करेंगे कि किसी पुरुष के स्त्रियों जैसे व्यवहार को लंबे समय तक भारतीय सिनेमा में मजाक का विषय माना जाता रहा है। हिन्दी सिनेमा इस मामले में खासा निष्ठुर रहा और उसने उसी निर्ममता से उसने उभयलिंगी (Bisexual), ट्रांससेक्सुअल या ट्रांसजेंडर लोगों का मजाक उड़ाने वाला बर्ताव किया जैसा तत्तकालीन सोसाइटी करती थी। अर्से तक सिनेमा में इस तरह के किरदार (जिन्हें हम एलजीबीटी भी कह सकते हैं) हास्य पैदा करने का जरिया बने रहे।

राहुल रवेल की फिल्म ‘मस्त कलंदर’ को भी इसी कैटेगरी में रख सकते हैं मगर यह पहली बॉलीवुड फिल्म थी, जिसमें संकेतों में नहीं साफ तौर पर एक गे किरदार दिखाया गया। यह किरदार निभाया था अनुपम खेर ने, जो फिल्म में अमरीश पुरी के बेटे बने थे। इसके कई साल बाद महेश भट्ट निर्देशित पूजा भट्ट की फिल्म ‘तमन्ना’ में भले ही थोड़ा मेलोड्रामा हो मगर हिजड़ा बने परेश रावल के किरदार को संवेदनशीलता से दिखाने की कोशिश की गई थी। वैसे इस फिल्म की पृष्ठभूमि में कई सामाजिक बदलाव भी थे। ‘तमन्ना’ 1997 में रिलीज हुई थी और यही वो वक्त था जब मध्य प्रदेश में पहले ट्रांसजेंडर राजनीतिक शख्सियत शबनम मौसी का उभार देखने को मिला।

दरअसल यह भारतीय समाज का वह दौर था जब यह छोटा सा तबका हमारे समाज में अपने लिए सम्मानजनक जगह बनाने की जद्दोजेहद में दिखने लगा था। वास्तविक जीवन के चरित्रों और आसपास की खबरों में दिलचस्पी रखने वाले महेश भट्ट ने यह स्वीकार किया था कि ‘तमन्ना’ की प्रेरणा के पीछे कहीं न कहीं शबनम मौसी ही था। हालांकि बाद में आशुतोष राणा ने ‘शबनम मौसी’ में रीयल लाइफ का यही रोल निभाया मगर यह फिल्म औसत दर्जे की होने के कारण न तो चली न इसकी ज्यादा चर्चा हुई।

हालांकि मेनस्ट्रीम सिनेमा में ट्रांसजेंडर्स का मजाक उड़ाना खत्म नहीं हुआ था। शाहरुख खान की फिल्म ‘कल हो न हो’ में होमोसेक्सुअल रिश्तों को लेकर इस तरह से मजाक रचे गए कि एक ए क्लास और फैमिली फिल्म होने के बावजूद लोग बिना हिचक उन पर हंसे। इसने मुख्यधारा के सिनेमा के लिए एक नया रास्ता खोल दिया और ‘दोस्ताना’ जैसी फिल्म सामने आई, जिसने समलैंगिक संबंधों को कहानी में एक ट्विस्ट की तरह प्रस्तुत किया। इसके बाद आई सेक्स कॉमेडी की बाढ़ में यह लोगों को हंसाने की सबसे आसान सिचुएशन बन गई। बाद में मेनस्ट्रीम सिनेमा में होमोसेक्सुअल रिलेशन पर कुछ चालू किस्म की फिल्में भी बनीं जिनमें ‘गर्लफ्रैंड’ और ‘डोन्नोवाई’ शामिल हैं।

इस दौरान गंभीर कोशिशें भी होती रहीं। इस सिलसिले में 1996 में आई अमोल पालेकर की एक अपेक्षाकृत कम चर्चित मगर अहम फिल्म ‘दायरा’ का उल्लेख जरूरी है। इस फिल्म में निर्मल पांडे ने एक ट्रांसजेंडर चरित्र को बेहद वास्तविक तरीके से पर्दे पर उतारा था। इसी साल दीपा मेहता की सबसे चर्चित फिल्म ‘फायर’ आई, जो शबाना आजमी और नंदिता दास के समलैंगिक संबंधों को दर्शाती थी। लेस्बियन रिश्तों पर बनी इस फिल्म ने काफी विवाद खड़ा कर दिया।

1997 में कल्पना लाजमी की भी एक फिल्म ‘दरमियां’ आई। किरण खेर मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री की एक खत्म होती अभिनेत्री के रूप में आईं जो अपने बेटे आरिफ जकारिया के ट्रांसजेंडर होने को स्वीकार नहीं रही है। मेलोड्रामा होने के बावजूद यह एक डार्क फिल्म थी और विषय को तफसील से छूती थी। सन 2003 में इसी विषय को विस्तार देती फिल्म आई ‘गुलाबी आइना’ (द पिंक मिरर), इस फिल्म में सभी नए कलाकार थे। सेंसर बोर्ड को इस फिल्म से काफी ऐतराज था, लिहाजा इसे भारत में बैन कर दिया गया। सन् 2008 में लिसा रे और शीलत सेठ अभिनीत भारतीय अंग्रेजी फिल्म ‘आइ कांट थिंक स्ट्रेट’ की कहानी भी लेस्बियन संबंधों के इर्दगिर्द घूमती है। बीते साल लेस्बियन रिश्तों पर आधारित फिल्म ‘अनफ्रीडम’ को तो न्यूडिटी के कारण भारत में बैन कर दिया गया।

सुखद यह है कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री उत्तरोत्तर इस विषय के प्रति संवेदनशील होती गई है। इसका एक बेहतरीन उदाहरण 2013 में आई ‘बांबे टॉकीज’ है। भारतीय सिनेमा के 100 सालों को सेलेब्रेट करती इस फिल्म की चार शार्ट फिल्मों में से दो फिल्में काफी संवेदनशील तरीके से इस विषय को छूती हैं। पहली शार्ट फिल्म ‘अजीब दास्तां है ये’ का निर्देशन किया था करन जौहर ने। करन ने इस फिल्म में दांपत्य जीवन, दोस्ती और होमोसेक्सुअलटी को लेकर जटिल रिश्तों का तानाबाना बुना। करन की चिरपरिचित शैली के विपरीत इस फिल्म में एक किस्म उदासी और आइरनी है। यह फिल्म इस तरह के सेक्सुअल रुझान को एक अस्तित्ववादी टच देती है। वहीं जोया अख्तर की शॉर्ट फिल्म ‘शीला की जवानी’ भाई-बहन के रिश्तों पर है जहां छोटा भाई लड़कियों की तरह रहना पसंद करता है और बहन ही इस बात को समझती है।

निर्देशक शोनाली बोस और निलेश मनियार की फिल्म ‘मार्गरीटा विद अ स्ट्रॉ’ में समलैंगिक रूझान को निर्देशक ने पूरी संवेदनशीलता से रखा है, यह एक केंद्रिय विषय की तरह फिल्म में मौजूद है। व्हीलचेयर पर जीवन बिताने वाली अक्षम लड़की लैला अपने माता-पिता के संशय और भय के बीच उस साधारण जिंदगी की सीमाओं का अतिक्रमण करती है। वह अपने मन और सेक्सुअलिटी को एक्सप्लोर करती है और उसे अपने बाइसेक्सुअल होने का अहसास होता है। पाकिस्तान से आई एक अंधी लड़की खानम (सयानी गुप्ता) से वह शारीरिक और भावनात्मक रुप से जुड़ जाती है। यह पहली फिल्म है जो एलजीबीटी चरित्र को बतौर आउटसाइडर नहीं इनसाइडर देखती है। यह एक शुरुआत है, अभी शायद एक बिल्कुल सहज एलजीबीटी प्रोटेगॉनिस्ट का पर्दे पर आना बाकी है।

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