पिछले दिनों लंबी रेल यात्राओं के दौरान बहुत सी फिल्मी छवियां मन में कौंध गईं। भारतीय फिल्मों का तो रेलगाड़ी से गहरा रिश्ता रहा है। जरा सुपरहिट फिल्म ‘शोले’ का पहला सीन याद करिए। एक खाली से सूनसान प्लेटफार्म पर धुंआ उगलती ट्रेन रुकती है। एक शख्स उतरता है। इसके बाद से फिल्म के टाइटिल स्क्रीन पर उभरने शुरु होते हैं। निर्देशक बड़ी सहजता से हमें एक दूसरी दुनिया के भीतर लेकर जाता है। फिल्म खत्म होती है तो उसी सूनसान प्लेटफार्म से हम धर्मेंद्र को रामगढ़ से लौटते देखते हैं। घटनाओं की लंबी श्रृंखला के बाद दोबारा ट्रेन देखकर हमें अहसास होता है कि इस बीच कितना कुछ घटित हो गया। कितने नए रिश्ते बने, कितने बिछुड़े, किसी का प्रतिशोध पूरा हुआ, कोई अकेला रह गया।
‘पाकीज़ा’ फिल्म की ट्रेन को कोई भूल सकता है। मीना कुमारी और राजकुमार की पहली मुलाकात ट्रेन में होना, राजकुमार का नोट लिखकर जाना – “आपके पांव बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे”। मीना कुमारी के लिए वह पूरी जिंदगी का हासिल बन जाता है क्योंकि ये पांव तो कोठों पर नाचने वाली एक तवायफ के थे। ट्रेन की दूर से रुक-रुककर आती सीटी की आवाज़ मानों मीना कुमारी के लिए जीवन में एक नई उम्मीद की किरण बन जाती है।
ट्रेन में दो अजनबियों का मिलना हमारे बॉलीवुड के लिए एक आइडियल सिचुएशन है। पहली नजर के प्यार से लेकर मीठी नोकझोंक तक के लिए यहां खूब स्पेस होता है। कई खूबसूरत रोमांटिक गीत ट्रेन में ही फिल्माए गए हैं। चाहें देव आनंद की “है अपना दिल तो आवारा…” हो या राजेश खन्ना की “मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू”। ‘डीडीएलजे’ में सिमरन का राज का हाथ थामने के लिए ट्रेन के साथ-साथ दौड़ना तो बॉलीवुड का एक आइकॅनिक सीन बन चुका है। धर्मेद्र की एक पुरानी फिल्म ‘दोस्त’ का एक गीत “गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है…” तो एक नैरेटर की तरह काम करता है।
बॉलीवुड की यह ट्रेन ड्रामा भी क्रिएट करती है। घर से भागे हुए डरे-सहमे कोमल हृदय बालकों, लड़कियों या मजबूर स्त्रियों के लिए को कभी मालगाड़ी के डब्बों में शरण मिलती है तो कभी सवारी गाड़ी में। कभी ये परिवार को जोड़ती हैं तो कभी इन्हीं रेलगाड़ियों में परिवार बिछुड़ भी जाते हैं। फिल्म ‘शक्ति’ में अमिताभ और स्मिता पाटिल छेड़छाड़ के एक हादसे के बाद एक-दूसरे से मुखातिब होते हैं। मुज़रिमों के फरार होने के लिए रेलवे क्रासिंग से बेहतर कोई जगह नहीं होती और किसी ज़माने में खलनायक को मारने का एक आसान तरीका होता था कि उसका पैर पटरियों में फंस जाता था और सामने से ट्रेन आ रही होती थी।
‘द इकोनामिस्ट’ ने बीती सदी का लेखाजोखा करते हुए रेल के बारे में कहा था कि इनकी मदद से न सिर्फ लोग एक एक जगह से दूसरी जगह पहुँचे बल्कि इसने विचारों के आदान-प्रदान में भी बड़ी भूमिका निभाई। सिर्फ बॉलीवुड नहीं लीक से हटकर बने सिनेमा में भी ट्रेन का बहुत अहम रोल रहा है। हवा में लहराते कास के फूलों में बीच टहलते बच्चे, दूर से आती धुंआ उगलती ट्रेन और फिर पूरे स्क्रीन पर छा जाने वाली उसकी धक-धक। ‘पाथेर पांचाली’ का यह सीन विश्व सिनेमा के महानतम दृश्यों में से एक है। उन्हीं सत्यजीत रे की पूरी फिल्म ‘नायक’ ट्रेन में फिल्माई गई है। अवतार कौल की फिल्म ’27 डाउन’ ने मुंबई की लोकल ट्रेन को जैसे एक किरदार में बदल दिया था। हैंड-हेल्ड कैमरे की मदद से इसमें मुंबई के तत्कालीन जीवन के सबसे जीवंत दृश्य फिल्माए गए थे। ‘गांधी’ फिल्म की चर्चा तो ट्रेन के बगैर नहीं की जा सकती है। गांधी के जीवन में आए हर नए मोड़, उनके हर फैसले और हर नए कदम पर कहीं न कहीं ट्रेन मौजूद है।
रेलगाड़ियां अभी भी फिल्मों में अक्सर दिख जाती हैं मगर उनका फिल्म की कहानी से और किरदारों से वह रिश्ता नज़र नहीं आता। “शनै: शनै: होती जाती है अब जीवन से दूर/ आशिक जैसी विकट उसासें वह सीटी भरपूर”। वीरेन डंगवाल की कविता ‘भाप इंजन’ की ये महज एक पंक्ति हमारे समाज से एक पूरे दौर के खत्म होने को बयान करती है।