पार्च्ड – फिल्म फेस्टिवल्स के लिए ‘फास्टफूड फेमिनिज़्म’

अगर फिल्म निर्देशक मनमोहन देसाई न होते तो शायद चालू फिल्में, मसाला फिल्म, बंबइया सिनेमा जैसे शब्दों से हम अपरिचित ही रह जाते। वे इस बात को बिना झिझक स्वीकारते थे कि उनकी फिल्में एक चाट की तरह होती हैं जिसमें सभी मसाले होते हैं। उनका एक इंटरव्यू मुझे याद है जिसमें उन्होंने बताया कि उनकी नई फिल्म में 22 ऐसे नए आइटम हैं जिन्हें हिन्दी फिल्मों के दर्शकों ने पहले कभी नहीं देखा होगा। वे फिल्म को किसी मेले में दिखाए जाने तमाशे की तरह तैयार करते थे।

कुछ कुछ ऐसा ही हाल हमारे सो-कॉल्ड इंटैलेक्चुअल सिनेमा का भी है, जिन्हें फिल्म फेस्टिवल्स के लिए तैयार किया जाता है। मनमोहन देसाई अगर खोमचे वाले की तरह चाट तैयार करते थे तो यहां अक्सर फास्टफूड वाली रेसिपी होती है। वह सारी चीजें होती हैं जो फिल्म को चर्चाओं में ला दें। यहां कलात्मकता नहीं उसका भ्रम पैदा किया जाता है। फेस्टिवल में फिल्म दिखाई जानी है तो पिछड़े हुए भारतीय गांव दिखा दें, जगह-जगह गालियां हों, कुछ बोल्ड सेक्स सीन,  फेमिनिज़्म को प्रमोट करने वाले कुछ संवाद। फेस्टिवल की इसी रेसिपी को तैयार करने में पार्च्ड एक अच्छी फिल्म बनते-बनते रह गई। यहां चार अलग अलग स्त्रियों की कहानी कही गई है।

लीना यादव की इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उनका गांव, गांव के लोग, लोगों की बातचीत, सरपंच… सब कुछ बनावटी लगता है। ऐसा लगता है निर्देशक ने गांव के बारे में कुछ पढ़कर एक गांव की कल्पना की और उसे वास्तविकता के करीब लाने का प्रयास किया। इसकी वजह से फिल्म में जगह-जगह ऐसे झोल हैं जो खाने में कंकर की तरह लगते हैं। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है – लीना यादव के इस गांव में मोबाइल आ चुका है मगर टीवी नहीं आया है। जिसकी वजह से गांव के पुरुष या तो नाच देखने जाते हैं या वेश्यालयों में। हकीकत यह है सन् 1986 तक पूरे देश में टेलीविजन का नेटवर्क फैल चुका था और कुछ साल बाद तक गांव और झोपड़पट्टियों में छोटे स्क्रीन वाले ब्लैक एंड व्हाइट पहुंच गए थे। जबकि मोबाइल का विस्तार अभी भी जारी है।

फिल्म की नायिकाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं, इनमें से दो बाहर से आने वाले आर्डर पर काम करती हैं और इसका उनको न सिर्फ उचित पैसा मिलता है बल्कि बोनस भी दिया जाता है। उनके पास पक्की नौकरी तक ऑफर हैं। एक नाटक कंपनी में नाचती है और अपनी मर्जी से जीती है। जबकि गांव के पुरुष क्या करते हैं यह स्पष्ट नहीं है। फिर भी ये महिलाएं कमजोर और आए दिन पिटने के लिए मजबूर हैं। पंचायतें इतनी मजबूत क्यों हैं इसका भी अंदाजा नहीं लग पाता। फिल्म को देखकर यह अंदाजा लगता है कि इसमें दिखाई गई नाटक कंपनी बरसों से एक ही गांव के पास डेरा डाले हुए है। जबकि हकीकत यह है कि नाच कंपनियां एक इलाके से दूसरे इलाके में अपना डेरा डालती रहती हैं। इनके खास सीजन होते हैं, धार्मिक त्योहारों और फसल कटने से इनकी आमदनी का गहरा संबंध होता है।

डांस कंपनी में नाचने वाली बिजली (सुरवीन चावला) ही दरअसल वह किरदार है जो बाकी को बदलाव के लिए प्रेरित करता है। बिजली ही बाकी तीन नायिकाओं को बाहर की दुनिया से जोड़ती है और उनके भीतर उम्मीदें पैदा करती है। मगर अपनी सहेलियों के बीच इतनी उन्मुक्त और आजाद दिखने वाली बिजली खुद जगह जगह समझौते करती नजर आती है। वह नाचने के साथ अपना जिस्म भी बेचती है और कई बार रेप जैसे हालात बिना वजह सहने के लिए मजबूर दिखती है। नतीजा यह होता है कि बिजली का कैरेक्टर विश्वसनीय बन ही नहीं पाता है। इसी तरह की दिक्कत लज्जो (राधिका आप्टे) के साथ है।

फिल्म में सबसे कायदे से कहानी कही गई है रानी (तनिष्ठा चटर्जी) की। तनिष्ठा ने इस रोल बड़ी सहजता के साथ निभाया भी है। वैवाहिक जीवन की कड़वी स्मृतियों के साथ पति की मौत के बाद 15 वर्षों तक अपनी बूढ़ी सास और जवान होते बेटे के बीच जी रही एक ऐसी महिला जिसे अभी भी उम्मीद है कि सब कुछ धीरे धीरे सुधर रहा है। फिल्म यहां बहुत सधे हुए तरीके से दिखाती है कि वह भी अपनी सास की जगह लेती जा रही है और उसका बेटा उसके पति जैसा व्यवहार कर रहा है।

बेटे के लिए ब्याहकर लाई गई कटे बालों वाली लड़की जानकी (लहर खान) के साथ रानी के खट्टे मीठे रिश्ते बड़ी खूबसूरती से दिखाए गए हैं। कम उम्र में ब्याह दी गई जानकी किसी और लड़के को चाहती है। रानी के मन में जानकी के लिए धीरे धीरे पैदा होती सहानुभूति को इतनी खूबसूरती से दिखाया गया है कि अंत में जब वह अपना घर बेचकर उसके पैसे देती हुई बहु को उसके प्रेमी के साथ जाने की इजाजत देती है तो यह जरा भी अटपटा नहीं लगता है बल्कि पूरा दृश्य बेहद मार्मिक बन पड़ा है। उस दृश्य का फिल्मांकन भी बहुत अच्छा है जब जानकी अपने प्रेमी के साथ बस में जा रही होती है और बस की खिड़की से बाहर चेहरे से टकरा रही ताजी हवा को महसूस कर रही होती है। उसके थोड़े लंबे हो गए बाल उड़ रहे होते हैं।

फिल्म में ऐसे कई खूबसूरत और प्रतीकात्मक दृश्य हैं। दशहरे के मेले का लगना और उजड़ना। आग में जलकर लाजो के पति की मौत और उसी वक्त रावण का जलना। चांदनी रात में तीनों औरतों का निर्वस्त्र नदी में स्नान। वहीं कई अटपटे प्रसंगों की भरमार है। शुरु में पंचायत के फैसले, लाजो का किसी अनजान तांत्रिक किस्म के व्यक्ति के साथ सेक्स करना और बिजली के साथ कुछ पैसों के बदले तीन लोगों का रेप करना।

पूरी फिल्म स्त्रियों की आजादी पर कोई ठोस बात कहने की बजाय एक भावोच्छ्वास बनकर रह गई है। वह आजादी को एक भावुकता से भरी फिलॉसफी में तो बदल देती है मगर उसके ठोस कारणों की तरफ नहीं ले जाती। लीना यादव को यह समझना होगा कि मसाले तो मसाले ही होते हैं, चाहे उनका इस्तेमाल 100 करोड़ कमाने के लिए हों या 10 फिल्म महोत्सवों में चर्चा बटोरने के लिए।

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