‘मनमर्जियां’ अनुराग कश्यप की फिल्म नहीं है।
इस फिल्म में अनुराग कश्यप सिरे से गायब हैं। सिर्फ गाहे-बगाहे बिना किसी रचनात्मक संदर्भ के दो लड़कियां फ्रेम में कूदकर आ जाए तो भले आपको ‘देव डी’ का इमोशनल अत्याचार या ‘गुलाल’ के पियूष मिश्रा या ‘बांबे वेल्वेट’ का जैज़ याद आ जाए और आप कहें- ‘अरे हां, ये तो अनुराग वाला स्टाइल है।’
‘मनमर्जियां’ उन कुछ फिल्मों में से है जिनको देखकर यह नहीं समझ में आता कि उन्हें बनाया क्यों गया है। सिर्फ एक अच्छी लोकेशन में सामान्य से अच्छा अभिनय करा लेना, थोड़ी प्रामाणिकता और कुछ शॉकिंग एलिमेंट से क्या कोई फिल्म अच्छी बन जाती है? उकताहट की हद तक प्रिडिक्टबल स्टोरी लाइन… यानी ‘तनु वेड्स मनु’ और ‘हम दिल दे चुके सनम’ का मिडल क्लास पंजाबी फैमिली संग कॉकटेल। जब निर्देशक यह स्टैबलिश कर दे कि हमारी नायिका तो मूडी है। उसके दिमाग का ठिकाना नहीं कि वह कब क्या कर बैठेगी? फिर तो आप ठंडी सांस लेकर अपनी सीट पर बैठे रहते हैं – चल, दिखा अपना मनमौजीपना, हमने तो टिकट ले ही लिया है।
अनुराग की खूबी यह है कि वे टाइप्ड किस्म का वातावरण नहीं रचते हैं। इधर अनुराग ने यथार्थ में हास्य को पिरोने की अद्भुत क्षमता हासिल की है। उसके छींटे ‘मनमर्जियां’ में जहां-तहां मिलेंगे। अगर स्पॉइलर का डर न हो तो मैं क्लाइमेक्स की तारीफ करना चाहूंगा। तो करूं उसकी चर्चा? नहीं? अरे, जिस फिल्म के शुरू होने के 20 मिनट बाद ही उसका अंत आपको समझ में आ जाए तो अब स्पाइलर की चिंता लेकर बैठने से क्या फायदा। तो इसका क्लाइमेक्स अपेक्षाकृत खूबसूरत मगर बासी है।
एक शांत दृश्य। फिल्म का नायक अभी-अभी तलाक के बाद बाहर आता है। अभी-अभी भूतपूर्व बनी अपनी पत्नी से कहता है- चलो मैं तुम्हें घर तक छोड़ देता हूँ। … और तब वो एक-दूसरे को अपने बारे में बताना शुरू करते हैं। यह किसी ईरानी सिनेमा में दिखने वाले खूबसूरत प्रसंग जैसा था। काश, पूरी फिल्म की बुनावट ऐसी ही होती। खैर, ऐसा प्रयोग मेरे प्रिय निर्देशक प्रियदर्शन बहुत पहले ‘डोली सजा के रखना’ फिल्म में कर चुके हैं। जिसका क्लाइमेक्स एक बंद कमरे में चाय पीने के दौरान ही समाप्त हो जाता है।
निर्देशक तो खैर अनुराग भी मेरे प्रिय हैं। ‘अग्ली’ देखकर मन में आया कि बहुत हो चुका… ये जबरदस्ती की डार्कनेस से बाहर निकलना होगा अनुराग को। ‘मुक्काबाज’ में उनकी बदली शैली देखकर खुशी हुई। मगर ये क्या? इतना बदलने की जरूरत थोड़े ही थी… कि पहचान में ही न आए।
अब अगर ये अनुराग की फिल्म होती तो क्या होता? तो यह उसी तरह की होती जैसी शुरू के 20 मिनट तक थी। मगर उसके बाद उम्मीद थी कि हम परत-दर-परत किरदारों और परिवेश के भीतर धंसते जाएंगे। अनुराग हमें धीरे-धीरे हमें एक अंधेरी दुनिया और मन के अंधेरे कोनों की तरफ ले जाएंगे। यह भी संभव था कि फिल्म उतनी स्याह न हो, तो भी…
तब भी कुछ ऐसा उद्घाटित होगा जो अबसे पहले नहीं देखा था। सत्तर के दशक की एक चर्चित, सिनेमाहाल तक न पहुंच सकी कला फिल्म थी ‘त्रिकोण का चौथा कोण’ यह एक ऐसा प्रेम त्रिकोण था जिसमें दो स्त्रियां और एक पुरुष एक साथ रहने का फैसला कर लेते हैं। ‘मनमर्जियां’ में कहीं एक जगह जाकर कुछ ऐसा कौंधता है कि शायद इस त्रिकोण में तीनों के रास्ते अलग हैं। हमें वहीं अंत क्यों देखना चाहिए जैसा कि हम बार-बार देखते आए हैं?
‘देव डी’ जैसी लाल-पीली रोशनियों से अनुराग का अनुराग यहाँ भी दिखता है और थकाता है। संगीत का अतिरेक भी थकाता है क्योंकि कहानी में उत्तेजना नहीं है। तो यहां संगीत उनकी पिछली फिल्मों की तरह कहानी को धक्का नहीं देता। फिल्म का हास्य भी कुछ समय बाद कहानी में रचा-बसा नहीं लगता। ऐसा लगता है कि निर्देशक ने इशारा किया और अब ये पात्र दर्शकों को हंसाना चाहते हैं। अब सवाल ये है कि फिल्म में अच्छा क्या है? एक प्रामाणिक परिवेश, जिसमें गली-कूचे, पारिवारिक बैकग्राउंड, घरों के अंदर की साज-सज्जा, कपडे़, हेयर स्टाइल, लोगों के बात करने-चलने का तरीका आदि शामिल है। कोई शक नहीं कि इसमें अनुराग मास्टर हैं।
मगर कुल मिलाकर… ‘मनमर्जियां’ अनुराग कश्यप की फिल्म नहीं है।