‘पटाखा’ जैसी फिल्में ज्यादा बननी चाहिए। इसलिए नहीं कि यह बहुत कलात्मक फिल्म है या इसमें कोई महान संदेश है। सिर्फ इसलिए कि यह मौलिक है। यह एक ठेठ देसी कलेवर वाली भारतीय फिल्म है। जो उतनी ही लाउड है जितने हम भारतीय अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में होते हैं। इस फिल्म में विदेशी फिल्मों की तरह कलर टोन नहीं सेट की गई है। यह तो भड़कीले रंगों वाली, तीखे, चटपटे संवादों वाली और इमोशंस के हैवी डोज़ वाली फिल्म है। इसमें कड़ाही में छने गर्म समोसों या चाट जैसा स्वाद है, जो जुबान (यानी आपके सौंदर्यबोध) पर थोड़ा भारी पड़ेगा मगर स्वाद भी खूब आएगा।
और सबसे बड़ी बात कि अब तक अपनी अभिव्यक्ति को शेक्सपियर और रस्किन बांड में तलाशने वाले विशाल भारद्वाज ने इस बार हिन्दी के एक ऐसे लेखक की कहानी चुनी है, जिसे हिन्दी वाले भी अभी बहुत अच्छे से नहीं जानते हैं। चरण सिंह ‘पथिक’ की क़िताब है ‘पीपल के फूल’ और उसकी कहानी ‘दो बहनें’ पर आधारित है यह फिल्म। इस कहानी में लोककथाओं जैसी सादगी है। “एक समय की बात है एक गांव में दो बहनें थीं, जिनकी आपस में जरा भी नहीं बनती थी…” ऐसे ही तो शुरू होती हैं हमारी कहानियां। इसके बाद ये कहानियां भागती हैं। खूब उतार-चढ़ाव होते हैं और अंत तक आते-आते आपकी आंखें भीग जाती हैं या भीगें न भी तो थोड़ी सी नमी आ जाती है क्योंकि यह आपको अपनी सी कहानी लगने लगती है।
हमारी इन भारतीय कहानियों की बुनावट में एक खास बात होती है उसके किरदार। हर चरित्र का अपना एक अलग रंग होता है। दो बहनों की इस कहानी को सान्या मलहोत्रा और राधिका मदान ने खूब रंग दिए हैं। उनके लिए जो संवाद लिखे गए हैं जो स्क्रीन पर दुर्लभ ही कहे जाएंगे। इसमें हमारी हिन्दी की खूबी यानी कि उसका ‘देसी विट’ भी मौजूद है जो हम अक्सर बसों, सैलून, रेलवे प्लेटफार्म और छोटे शहरों के बाजार में सुनते हैं। सुनील ग्रोवर इस फिल्म की बैकबोन हैं। वे सूत्रधार की भूमिका भी निभाते हैं और हर मोड़ पर कहानी के एक विशिष्ट किरदार की भी। विजय राज हमेशा की तरह शानदार हैं और इस फिल्म के सबसे बेहतरीन अभिनेता कहलाए जाने के हकदार भी।
फिल्म बेहद लाउड है और इसी लाउडनेस में इसका सौंदर्यबोध है। बड़े हिस्से में बहनों की मार-पिटाई और झगड़ा है। भागदौड़ है। चीख-चिल्लाहट है। और इन सबके बीच संगीत भी है। गुलजार का लिखा गीत ‘एक तेरो बलमा, एक मेरो बलमा’ को सुनिधि चौहान और रेखा भारद्वाज ने सुंदर गाया है और विशाल भारद्वाज ने मौलिक अंदाज में फिल्माया भी है। यह एक विशुद्ध मनोरंजन वाली फिल्म है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसे देखकर आपको किसी देसी-विदेशी फिल्म की याद नहीं आएगी। और यही निर्देशक विशाल भारद्वाज की सफलता है।