पार्च्ड – फिल्म फेस्टिवल्स के लिए ‘फास्टफूड फेमिनिज़्म’

अगर फिल्म निर्देशक मनमोहन देसाई न होते तो शायद चालू फिल्में, मसाला फिल्म, बंबइया सिनेमा जैसे शब्दों से हम अपरिचित ही रह जाते। वे इस बात को बिना झिझक स्वीकारते थे कि उनकी फिल्में एक चाट की तरह होती हैं जिसमें सभी मसाले होते हैं। उनका एक इंटरव्यू मुझे याद है जिसमें उन्होंने बताया कि उनकी नई फिल्म में 22 ऐसे नए आइटम हैं जिन्हें हिन्दी फिल्मों के दर्शकों ने पहले कभी नहीं देखा होगा। वे फिल्म को किसी मेले में दिखाए जाने तमाशे की तरह तैयार करते थे।

कुछ कुछ ऐसा ही हाल हमारे सो-कॉल्ड इंटैलेक्चुअल सिनेमा का भी है, जिन्हें फिल्म फेस्टिवल्स के लिए तैयार किया जाता है। मनमोहन देसाई अगर खोमचे वाले की तरह चाट तैयार करते थे तो यहां अक्सर फास्टफूड वाली रेसिपी होती है। वह सारी चीजें होती हैं जो फिल्म को चर्चाओं में ला दें। यहां कलात्मकता नहीं उसका भ्रम पैदा किया जाता है। फेस्टिवल में फिल्म दिखाई जानी है तो पिछड़े हुए भारतीय गांव दिखा दें, जगह-जगह गालियां हों, कुछ बोल्ड सेक्स सीन,  फेमिनिज़्म को प्रमोट करने वाले कुछ संवाद। फेस्टिवल की इसी रेसिपी को तैयार करने में पार्च्ड एक अच्छी फिल्म बनते-बनते रह गई। यहां चार अलग अलग स्त्रियों की कहानी कही गई है।

लीना यादव की इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उनका गांव, गांव के लोग, लोगों की बातचीत, सरपंच… सब कुछ बनावटी लगता है। ऐसा लगता है निर्देशक ने गांव के बारे में कुछ पढ़कर एक गांव की कल्पना की और उसे वास्तविकता के करीब लाने का प्रयास किया। इसकी वजह से फिल्म में जगह-जगह ऐसे झोल हैं जो खाने में कंकर की तरह लगते हैं। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है – लीना यादव के इस गांव में मोबाइल आ चुका है मगर टीवी नहीं आया है। जिसकी वजह से गांव के पुरुष या तो नाच देखने जाते हैं या वेश्यालयों में। हकीकत यह है सन् 1986 तक पूरे देश में टेलीविजन का नेटवर्क फैल चुका था और कुछ साल बाद तक गांव और झोपड़पट्टियों में छोटे स्क्रीन वाले ब्लैक एंड व्हाइट पहुंच गए थे। जबकि मोबाइल का विस्तार अभी भी जारी है।

फिल्म की नायिकाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं, इनमें से दो बाहर से आने वाले आर्डर पर काम करती हैं और इसका उनको न सिर्फ उचित पैसा मिलता है बल्कि बोनस भी दिया जाता है। उनके पास पक्की नौकरी तक ऑफर हैं। एक नाटक कंपनी में नाचती है और अपनी मर्जी से जीती है। जबकि गांव के पुरुष क्या करते हैं यह स्पष्ट नहीं है। फिर भी ये महिलाएं कमजोर और आए दिन पिटने के लिए मजबूर हैं। पंचायतें इतनी मजबूत क्यों हैं इसका भी अंदाजा नहीं लग पाता। फिल्म को देखकर यह अंदाजा लगता है कि इसमें दिखाई गई नाटक कंपनी बरसों से एक ही गांव के पास डेरा डाले हुए है। जबकि हकीकत यह है कि नाच कंपनियां एक इलाके से दूसरे इलाके में अपना डेरा डालती रहती हैं। इनके खास सीजन होते हैं, धार्मिक त्योहारों और फसल कटने से इनकी आमदनी का गहरा संबंध होता है।

डांस कंपनी में नाचने वाली बिजली (सुरवीन चावला) ही दरअसल वह किरदार है जो बाकी को बदलाव के लिए प्रेरित करता है। बिजली ही बाकी तीन नायिकाओं को बाहर की दुनिया से जोड़ती है और उनके भीतर उम्मीदें पैदा करती है। मगर अपनी सहेलियों के बीच इतनी उन्मुक्त और आजाद दिखने वाली बिजली खुद जगह जगह समझौते करती नजर आती है। वह नाचने के साथ अपना जिस्म भी बेचती है और कई बार रेप जैसे हालात बिना वजह सहने के लिए मजबूर दिखती है। नतीजा यह होता है कि बिजली का कैरेक्टर विश्वसनीय बन ही नहीं पाता है। इसी तरह की दिक्कत लज्जो (राधिका आप्टे) के साथ है।

फिल्म में सबसे कायदे से कहानी कही गई है रानी (तनिष्ठा चटर्जी) की। तनिष्ठा ने इस रोल बड़ी सहजता के साथ निभाया भी है। वैवाहिक जीवन की कड़वी स्मृतियों के साथ पति की मौत के बाद 15 वर्षों तक अपनी बूढ़ी सास और जवान होते बेटे के बीच जी रही एक ऐसी महिला जिसे अभी भी उम्मीद है कि सब कुछ धीरे धीरे सुधर रहा है। फिल्म यहां बहुत सधे हुए तरीके से दिखाती है कि वह भी अपनी सास की जगह लेती जा रही है और उसका बेटा उसके पति जैसा व्यवहार कर रहा है।

बेटे के लिए ब्याहकर लाई गई कटे बालों वाली लड़की जानकी (लहर खान) के साथ रानी के खट्टे मीठे रिश्ते बड़ी खूबसूरती से दिखाए गए हैं। कम उम्र में ब्याह दी गई जानकी किसी और लड़के को चाहती है। रानी के मन में जानकी के लिए धीरे धीरे पैदा होती सहानुभूति को इतनी खूबसूरती से दिखाया गया है कि अंत में जब वह अपना घर बेचकर उसके पैसे देती हुई बहु को उसके प्रेमी के साथ जाने की इजाजत देती है तो यह जरा भी अटपटा नहीं लगता है बल्कि पूरा दृश्य बेहद मार्मिक बन पड़ा है। उस दृश्य का फिल्मांकन भी बहुत अच्छा है जब जानकी अपने प्रेमी के साथ बस में जा रही होती है और बस की खिड़की से बाहर चेहरे से टकरा रही ताजी हवा को महसूस कर रही होती है। उसके थोड़े लंबे हो गए बाल उड़ रहे होते हैं।

फिल्म में ऐसे कई खूबसूरत और प्रतीकात्मक दृश्य हैं। दशहरे के मेले का लगना और उजड़ना। आग में जलकर लाजो के पति की मौत और उसी वक्त रावण का जलना। चांदनी रात में तीनों औरतों का निर्वस्त्र नदी में स्नान। वहीं कई अटपटे प्रसंगों की भरमार है। शुरु में पंचायत के फैसले, लाजो का किसी अनजान तांत्रिक किस्म के व्यक्ति के साथ सेक्स करना और बिजली के साथ कुछ पैसों के बदले तीन लोगों का रेप करना।

पूरी फिल्म स्त्रियों की आजादी पर कोई ठोस बात कहने की बजाय एक भावोच्छ्वास बनकर रह गई है। वह आजादी को एक भावुकता से भरी फिलॉसफी में तो बदल देती है मगर उसके ठोस कारणों की तरफ नहीं ले जाती। लीना यादव को यह समझना होगा कि मसाले तो मसाले ही होते हैं, चाहे उनका इस्तेमाल 100 करोड़ कमाने के लिए हों या 10 फिल्म महोत्सवों में चर्चा बटोरने के लिए।

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Waiting : तीन स्त्रियों का सिनेमाई जादू

‘वेटिंग’ तीन स्त्रियों का सिनेमाई जादू है। अनु मेनन का सधा हुआ, सहज निर्देशन… जिसके कारण फिल्म धीरे-धीरे आपके भीतर उतरती है। कल्कि का खुद को चरित्र के भीतर समाहित कर लेना और सुहासिनी मणिरत्नम का प्रभावशाली तरीके से हिन्दी सिनेमा में कदम रखना। बाकी नसीरुद्दीन शाह के अभिनय पर कुछ अलग से कहने की जरूरत नहीं, वे तो जैसे इन तीन स्त्रियों के जादू को बैलेंस करने के लिए फिल्म में मजबूती के साथ खड़े हैं।

मृत्यु की प्रतीक्षा पर बहुत सी फिल्में बनीं हैं। हिन्दी सिनेमा में एक आइकॅनिक किरदार को जन्म दे चुकी ‘आनंद’ हो या उन्हीं राजेश खन्ना की ‘सफर’, मणि रत्नम की फिल्म ‘अंजलि’ हो या महेश भट्ट की तमाम शुरुआती फिल्में। मगर ये फिल्में मौत की प्रतीक्षा और अपने किसी प्रिय के बिछुड़ने के कष्टप्रद इंतजार को रूमानियन और मेलोड्रामा में डायल्यूट कर देती हैं। ‘वेटिंग’ इन फिल्मों से एक कदम आगे है। वह इस तकलीफदेह इंतजार के बीच प्रेम, धैर्य, उम्मीद जैसे शब्दों के मायने फिर से टटोलती है। बिना किसी बहस में गए… चुपके से।

कहानी बस इतनी सी है कि दो-तीन लाइनों में समाप्त हो जाए। एक हॉस्पिटल में पिछले आठ महीनों से अपनी पत्नी के कोमा से बाहर आने का इंतजार कर रहे प्रोफेसर शिव कुमार (नसीर) की मुलाकात तारा देशपांडे (कल्कि) से होती है, जिसका पति एक भीषण सड़क हादसे में घायल आइसीयू में भर्ती है। दोनों को नियति हर रोज इंतजार करना है- किसी बुरी खबर या फिर उम्मीद की एक किरण का। कल्कि एक आम नौजवान लड़की है, जो अचानक अपने जीवन में आए इस बदलाव से हैरान है। उसे हैरत है कि उसके 1400 से ज्यादा फेसबुक फ्रैंड्स और हजारों फॉलोअर्स होने के बावजूद वह अपने दुख में बिल्कुल अकेली है। उसे उम्मीद, धैर्य और पॉजीटिव थिंकिंग की बातें बेतुकी लगती हैं।

मगर प्रोफेसर के पास जीवन के देखने का एक नजरिया है। वह उनके शब्दों में नहीं उनके रोजमर्रा के जीवन और अपनी तकलीफ से हर रोज लड़ने के उनके जज्बे में नजर आता है। टूटे हुए वे भी हैं भीतर से… उन्हें इसका अहसास तब होता है जब अपनी तकलीफ से जूझ रही कल्कि उनके करीब आती जाती है। उम्र, अनुभव, सोच और पारिवारिक पृष्ठभूमि के फासलों के बावजूद दोनों एक-दूसरे की बात समझने लगते हैं क्योंकि उनका दुख एक है। दोनों चरित्रों के बीच दोस्ती या ऐसे ही किसी अनकहे रिश्ते को फिल्म बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत करती है। नसीर प्रोफेसर शिव के किरदार में अपने चरित्र को एक काव्यात्मक विस्तार देते हैं। कल्कि की बेचैनी और नसीर का धैर्य दोनों फिल्म में एक अनोखा सा संतुलन बनाते हैं और कहानी अपनी गति से आगे बढ़ती रहती है।

सुहासिनी की यह पहली हिन्दी फिल्म है। वे दक्षिण की एक बेहतरीन अभिनेत्री और निर्देशक होने के साथ-साथ जाने-माने निर्देशक मणि रत्नम की पत्नी भी हैं। ज्यादातर वक्त बिस्तर पर आंखें बंद किए नजर आती हैं। मगर कोमा के अलावा कुछेक दृश्यों के जरिए ही उन्होंने अपने चरित्र को कह दिया है। उनके छोटे-छोटे दृश्यों से नसीर का चरित्र और ज्यादा समझ में आता है। हालांकि इसे फिल्म की पटकथा की खूबी माननी चाहिए। छोटे-छोटे दृश्यों और संवादों के जरिए फिल्म अपनी बात को कहती आगे बढ़ती चलती है। कुछ लोगों को फिल्म धीमी लग सकती है। मगर यह उन फिल्मों में से है जहां कहानी सुनाने या कहने की हड़बड़ी नहीं है। ठीक वैसे जैसे जिंदगी की रफ्तार होती है, फिल्म भी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ती है। मिकी मैक्लेरी का संगीत सुखद है और फिल्म की टोन से मेल खाता है। खास तौर पर कविता सेठ की सुफियाना ‘ज़रा-ज़रा’ बेहतर खूबसूरत है।

‘वेटिंग’ किसी नतीजे की तरफ नहीं ले जाती। वह अपने दर्शकों को जिंदगी की एक सिचुएशन से रू-ब-रू कराती है। वह बारी-बारी से उन सब सवालों के पास जाती है, जो जिंदगी में हम सबके लिए अहम हैं। किसी को प्रेम करना क्या है? उसे हर स्थिति में स्वीकार करना? उम्मीद क्या है? खुद को हमेशा एक झूठे दिलासे में रखना या जिंदगी की तपती धूप में एक छांव… अनु मेनन इस फिल्म में किसी सवाल का जवाब नहीं देतीं, क्योंकि सवाल के जवाब हमारे भीतर ही मौजूद हैं। क्योंकि हमारा दुख और हमारा प्रेम हमारे भीतर ही मौजूद है। तो हमसे बेहतर जवाब किसके पास हो सकते हैं?

मसानः प्रेम और मृत्यु के बीच एक कविता

‘‘मसान’’ विशुद्ध सिनेमाई भाषा में रची गई कविता है। एक आधुनिक मिजाज़ वाली कविता जो अपने होने में ही अर्थ को आहिस्ता-आहिस्ता खोलती है। नीरज घेवन ने अविनाश अरूण के कैमरे की मदद से अद्भुत बिंब रचे हैं। अतिशियोक्ति न लगे तो उनके बिंब सत्यजीत रे के सिनेमा की याद दिलाते हैं। ऐसी छवियां जो जीवन भर के लिए आपके मन में घर कर जाती हैं।

ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं होता कि ये छवियां फिल्म की कथा संरचना में बड़ी खूबसूरती से रची-बसी हैं, बल्कि इसलिए कि ये प्रतिछायाएं जीवन की गहरी संवेदनाओं की लहरों पर हिलती नजर आती हैं। बनारस में रात को नदी के किनारे जगर-मगर करते घाट हों, या शमशान में चिताओं से उठती लपटें और चिंगारियां या नदी के तट से दूर पुल पर गुजरती ट्रेन… ‘‘मसान’’ देखते वक्त आप भूल जाते हैं कि यह कोई फिल्म है। आप इस फिल्म में नदी किनारे चलती बयार और चारो तरफ फैले आसमान के नीचे के निचाट खालीपन को भी स्क्रीन पर महसूस कर सकते है। फिल्म निर्देशक ने न सिर्फ कैमरे के फ्रेम में बल्कि पटकथा में भी स्पेस के महत्व को समझा है और उसका बेहतर इस्तेमाल किया है। इस तरह बिना लाउड हुए फिल्म दिल में कहीं गहरे तक उतरती चली जाती है।

मसान का निर्माण इंडो-फ्रैंच को-प्रोडक्शन के तौर पर हुआ है। नीरज ने इससे पहले बनारस से मुंबई आए एक दंपति की कहानी पर एक 17 मिनट लंबी फिल्म ‘शोर’ बनाई थी जो अनुराग कश्यप की फिल्म ‘शॉर्ट्स’ का एक हिस्सा थी। बतौर निर्देशक यह नीरज की दूसरी और पूरी लंबाई की पहली फिल्म है। कहानी मृत्यु और प्रेम के बीच आकार लेती है। फिल्म की पटकथा इन दो ध्रुवों के बीच के तनाव पर सधे कदमों से बढ़ती जाती है।

फिल्म की शुरुआत ही प्रेम और मृत्यु के इस कंट्रास्ट से होती है। एक होटल में दो उत्सुक प्रेमियों का करीब आना, अचानक पुलिस का हस्तक्षेप और पुलिस का वहां मौजूद लड़की देवी (रिचा चड्ढा) का जबरन वीडियो बनाना और लडक़े का आत्महत्या कर लेना- इस कहानी की बुनियाद को तैयार करते हैं। असली फिल्म कुछ मिनटों के इस घटनाक्रम के बाद अपना आकार लेती है। जब हम देखते हैं कि किस तरह पुलिस लगातार देवी और उनके पिता को ब्लैकमैल करती रहती है, कैसे देवी के पिता तीन लाख रुपये जुटाने के लिए परेशान होकर भटकते हैं, किस तरह झिझका हुआ प्रेम परवान चढ़ता है, कैसे लोगों के उदास जीवन में हल्की बयार जैसी खुशियां दाखिल होती हैं।

देवी का पूरा जीवन निरुद्देश्य हो जाता है मगर वह अपनी दृढ़ता छोड़ती नहीं है। वह धीमे मगर मजबूत कदमों से आगे बढ़ती जाती है। पिता और बेटी दोनों ही एक-दूसरे के प्रति भावुक नहीं हैं, मगर वे संवेदनहीन भी नहीं हो पाते। इसके समानांतर एक और कथा चलती है। यह शमशान में मृत शरीर को जताने वाले क्रिया क्रम करने वाले एक अछूत परिवार की कहानी है। घाट पर लाशों के बीच जीवन गुजारने वाला दीपक (विक्की कौशल) इस काम से छुटकारा पाना चाहता है। वह पढ़ रहा है और एक ठीक-ठाक नौकरी पाने के लिए प्रयासरत है। उसकी मुलाकात शालू (श्वेता त्रिपाठी) से होती है और दोनों के बीच दोस्ती और फिर प्रेम हो जाता है। वक्त गुजरने के साथ जैसे ही प्रेम का रंग गहराता है, उसका एक दुखद अंत होता है जो दीपक को संवेदना के स्तर पर बुरी तरह से झकझोर देता है।

समानांतर चलती दोनों कहानियां प्रत्याशित तौर पर फिल्म में एक जगह जाकर जुड़ती हैं, या दूसरे शब्दों में कहें तो जुड़ने का आभास सा देती हैं और फिल्म एक संभावना की तरफ इशारा करती हुई खत्म हो जाती है। इन समानांतर चलती कहानियों को नीरज ने कुछ इस तरह से निर्देशित किया है कि मुख्य कथानक लगभग विलीन हो जाता है। हमें जो याद रह जाता है वह होते हैं इसके किरदार, उनकी छोटी-छोटी खुशियां और न खत्म होने वाले दुःख। आसमान, सड़क और नदी जहां ये किरदार सांस लेते हैं।

छोटे शहरों को इससे पहले भी कई निर्देशकों ने फिल्माया है मगर वे प्रचलित ‘पैनॉप्टिकल व्यूप्वाइंट’ से बाहर न आ सके, जहां रचनाकार खुद को किसी ऊंची या विशिष्ट जगह पर रखकर सब्जेक्ट को देखता है। वह विषय-वस्तु से परे और विशिष्टता बोध के साथ उन्हें प्रस्तुत करता चलता है। यहां तक कि अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ भी इस ‘पैनॉप्टिकल विज़न’ से परे नहीं हो पाई थी, जिसकी टीम में नीरज भी मौजूद थे।

यह फिल्म आपको इसके किरदारों के बीच ले जाकर बिठा देती है आप उनकी खुशियों और दुःख में शामिल हो जाते हैं। विक्की कौशल के चरित्र में एक किस्म की उदासी है, प्रेम के रंग उसकी उदासी को और गहरा कर देते हैं। यह प्रेम हिन्दी की कुछ पॉपुलर कवियों और शायरों की पंक्तियों के बीच परवान चढ़ता है। धीरे-धीरे फिल्म पर मृत्यु और उदासी का रंग और गहरा होता जाता है। मगर निरंतर बहती नदी की तरह जीवन खत्म नहीं होता वह आगे बढ़ता जाता है।

फिल्म का नैरेटिव यथार्थ के इतने करीब है कि निर्देशक, कलाकारों और कैमरामैन की तरफ से उसका निर्वाह कर पाना भी अपने में एक चमत्कार सा लगता है। खास बात यह है कि फिल्म यथार्थ को भी ग्लोरीफाई करने का प्रयास न करके उसे जस का तस लेती है। वह जीवन की विडंबनाओं के बीच हास्य और क्रूरता के बीच अति कोमल पलों को भी तलाश लेती है- जैसा कि जीवन में अक्सर होता है। बहुत महीन संवेदनाओं का जाल भी बुनता चलता जाता है और कठोर हकीकत का धरातल भी मौजूद रहता है।

शालू त्रिपाठी ने एक छोटे शहर की लड़की के संकोच, उत्सुकता और साहस को बखूबी जिया (इन सभी के लिए अभिनय शब्द उपयुक्त नहीं लगता) है। फिल्म का एक और अहम किरदार है- देवी के पिता विद्याधर पाठक (संजय मिश्रा)- वे तीसरी समानांतर कथा के नायक हैं। वे पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक प्रतिनिधि चरित्र हैं- परंपराओं और संस्कारों में जकड़ा घिसट-घिसटकर छोटी-छोटी चालाकियों और तिकड़मों से अपना आत्मसम्मान बचाता एक शख्स। एक छोटे से बच्चे झोंटा के साथ उनकी जुगलबंदी में सहज हास्य के साथ उतनी ही मार्मिक भी है। कई दूसरे चरित्र भी याद रह जाते हैं चाहे इंस्पेक्टर मिश्रा बने भगवान तिवारी हों या फिर

फिल्म का एक और बहुत ही महत्वपूर्ण चरित्र है- नदी। इसकी हलचलों को और विभिन्न रंगों को अविनाश अरुण के कैमरे ने बड़ी खूबसूरती से पकड़ा है। उन्होंने नदी  को उसके तमाम रंगों के साथ बतौर एक किरदार खड़ा किया है। चाहे वह नदी के रूमानी रंग हों या उदासी में डूबे हुए या अद्भुत कौतुक की संरचना करते पानी के भीतर से सिक्के निकालने का दृश्य हो- सब कुछ एक-दूसरे से जुड़ता चला जाता है। शमशान बार-बार नहीं आता है मगर वह नेपथ्य में है। फिल्म के किरदारों और कहानी पर छाया हुआ है। जब-जब चलती चिताओं के बीच शमशान का फिल्मांकन हुआ- शानदार बन पड़ा है।

‘‘मसान’’ की खूबी यह है कि यह बिना बड़े बोल बोलने का प्रयास किए एक बड़ी फिल्म बन जाती है। हमारे यहां आर्टहाउस सिनेमा पर यूरोपियन सिनेमा और हॉलीवुड के इंडिपेंडेंट सिनेमा का गहरा असर है। मगर यह फिल्म अपने मूल में, अपनी शैली में और अपनी आत्मा में यूरोपियन सिनेमा की बजाय ज्यादा एशियाई है या दूसरे शब्दों में कहें तो ईरानी सिनेमा के ज्यादा करीब- सादगी लिए मगर गहरे तक असर कर जाने वाली।

खुद को जानने की छटपटाहट, मार्गरीटा विद अ स्ट्रा

शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम नायकों पर हिन्दी में कई फिल्में बनीं हैं। अक्सर ये फिल्में अक्षम नायकों की सामाजिक रूप से स्वीकारोक्ति को अपना विषय बनाती हैं। अक्सर इन फिल्मों में अधूरे नायकों की अपनी शारीरिक सीमाओं से परे निकलकर खुद को साबित करने छटपटाहट को अभिव्यक्ति दी जाती है। इस तरह की फिल्मों में सबसे पहले सई पराजंपे की ‘स्पर्श’ का सहज ही ख्याल आ जाता है। जहां एक नेत्रहीन शिक्षक सामाजिक रूप से अपने आत्मगौरव को बनाए रखने के लिए संघर्ष करता है। उसका यह संघर्ष  सामाजिक नहीं बल्कि भावनात्मक है और सई ने इसे बखूबी प्रस्तुत भी किया है।

संजय लीला भंसाली ने आश्चयर्यजनक रूप से अपनी बहुरंगी शैली के बीच ऐसे विषय में भी महारत हासिल कर रखी है। उनकी पहली फिल्म ‘ख़ामोशी द म्यूज़िकल’ ही एक मूक-बधिर दंपति की करुण कथा सामने लेकर आती है। ‘ब्लैक’ अभिव्यक्ति की छटपटाहट लिए एक मानवीय संवेदना से भरी कथा है। इस कड़ी में ‘गुज़ारिश’ को भी रख सकते हैं जहां एक व्यक्ति अपनी अपाहिज जिंदगी से तंग आकर इच्छा मृत्यु को चुनना चाहता है।

पिछले दिनों आई ‘मार्गरीटा विद अ स्ट्रा’ इन फिल्मों से थोड़ा अलग हाशिए पर जाकर खड़ी होती है। अपने नाम की तरह फिल्म की सामान्य से हटकर है। मार्गरीटा फिल्म की नायिका का नाम नहीं है। यह व्हीलचेयर पर जीवन बिताने वाली अक्षम लड़की लैला (कल्कि कोएचलिन) की कथा है, जो एक वास्तविक जीवन के चरित्र से प्रेरित है। वह सेरेब्रल पल्सी की बीमारी से पीड़ित है। एक धीमा और निरंतर संघर्ष उसकी नियति है। चाहे किसी से अपनी बात कहनी हो या फिर छोटी-छोटी निजी जरूरतें हों। मगर लैला का संघर्ष अपने सरवाइवल के लिए नहीं है। उसके पास सब कुछ है। उसकी देखभाल करने वाले माता-पिता, भाई, एक अपने जैसा दोस्त और अपनी मर्जी से रचनात्मक काम करने की संतुष्टि। मगर कुछ तो ऐसा रहता है जहां जाकर लैला ठहर जाती है। उसे यह याद रखना पड़ता है कि वह आम लोगों से अलग है, बार-बार यह अहसास दिलाते जाने के बावजूद कि उसे भी आम लोगों की तरह ही जीने का हक है।

लैला अपने माता-पिता के संशय और भय के बीच उस साधारण जिंदगी की सीमाओं का अतिक्रमण करती है, जिनके बीच जीते रहना उसकी मजबूरी है। वह अपने भीतर के मन को (और सेक्सुअलिटी को) एक्सप्लोर करती है। इस क्रम में उसे अपनी बाइसेक्सुअलिटी के बारे में पता लगता है। क्रिएटिव राइटिंग की क्लासेज करते हुए एक विदेशी लड़के से पहली बार लैला के शारीरिक संबंध बनते हैं। बाद में पाकिस्तान से आई एक अंधी लड़की खानम (सयानी गुप्ता) से वह शारीरिक और भावनात्मक रुप से जुड़ जाती हैऊपरी तौर पर फिल्म बस इतनी ही है। बिना किसी उतार-चढ़ाव वाली इस कहानी में लैला के जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों को एक घंटे 40 मिनट की फिल्म में बदल दिया गया है। । हां, लैला की मनपसंद कॉकटेल ड्रिंक मार्गरीटा यहां एक प्रतीक की तरह है। जीने के लिए तमाम नियमों के बीच अपनी इच्छाओं के जरिए खुद के करीब जाने का।

फिल्म अपनी परिणति में अमूर्त है। वह एक खुले अंत की तरफ बढ़ती है, जहां हमें यह नहीं पता होता है कि फिल्म पटकथा में पिरोई गई घटनाओं की श्रंखला में किस निष्कर्ष की तरफ जा रही है मगर अंत में लैला को सेल्फ रियलाइजेशन की तरफ बढ़ता हुआ देखते हैं। बावजूद इसके निर्देशक शोनाली बोस और निलेश मनियार ने फिल्म को दार्शनिकता में नहीं उलझने दिया है। उन्होंने यथार्थवादी शैली में सीमित संवादों के जरिए कहानी को आगे बढ़ाया है। उनका जोर डिटेलिंग पर नहीं है। यही वजह है कि शुरु में मेटाडोर में चलती रेवती थोड़ी अटपटी सी दिखती है, मगर थोड़ी ही देर में हम पूरे परिवार के लिए उस गाड़ी के महत्व को बिना कहे समझ जाते हैं। यह परिवार भी अनोखा सा है। लैला सिख पिता और दक्षिण भारतीय मां की संतान है। निर्देशक द्वय का जोर चरित्रों के प्रस्तुतिकरण और उनके आपसी अंतर्संबंधों पर ज्यादा है। ये किरदार जब एक-दूसरे के करीब आते हैं तो उनके बीच एक आभासी सा ‘इमोशनली चार्ज्ड एनवायरमेंट’ विकसित होने लगता है। चाहे वह लैला और उसकी मां (रेवती) के बीच के रिश्ते हों या लैला और खानम के बीच अंकुरित होता हुआ प्रेम जो सिर्फ परिस्थितिजन्य शारीरिक नहीं है बल्कि अपने भावनात्मक अधूरेपन को एक-दूसरे में तलाशने की कोशिश है।

इस फिल्म को कल्कि कोएचलिन के सहज अभिनय के लिए देखा जाना चाहिए। कल्कि को देखते हुए क्षण भर को भी नहीं लगता है कि वह किसी पात्र को स्क्रीन पर ला रही है या उस किरदार में डूब जाने के लिए मेहनत कर रही हो। वह बस जैसे इस फिल्म को जी रही है। कल्कि की सबसे बड़ी चुनौती थी फिल्म के कई संवेदनशील हिस्सों में किरदार के इमोशंस को अभिव्यक्त करना जबकि खुद उसका किरदार ऐसा है जो खुद को अभिव्यक्त नहीं कर पाता, न शब्दों और भाषा के जरिए और न ही भावाभिव्यक्ति के जरिए। मगर कल्कि ने यह कर दिखाया है और अपनी सेक्सुअलिटी को भांपने जैसे जटिल मनोभावों को भी वह बेहद सहजता से निभा ले जाती हैं। फिल्म में दो और कभी न भूलने वाले चरित्र हैं।

पहली लैला की मां बनी रेवती, जो अब से 25 साल पहले मणि रत्नम की ‘अंजलि’ में भी मानसिक रूप से अविकसित छोटी बच्ची की मां बन चुकी हैं। उन्होंने एक अक्षम बेटी की मां की चिंताओं को बखूबी अभिव्यक्त किया है। एक मां की चिंताओं को बयान करने के लिए पटकथा में अलग से दृश्य या संवाद नहीं रचे गए हैं। ये चिंताएं उनकी साधारण रोजमर्रा की बातचीत में एक परछांई की तरह हर वक्त मौजूद रहती है। रेवती फिल्म में बराबर उन परछाइयों का अहसास दिलाती रही हैं। इस चिंतित और केयरिंग मां के चरित्र का एक दूसरा पहलू भी है। वह दूसरे लोगों के मुकाबले बदलावों के प्रति बहुत उदार है, अनजान राहों पर चलने का जोखिम उठाती लैला को सबसे पहला समर्थन उसकी अपनी मां से ही मिलता है। कैरेक्टर में यह आयाम लाना आसान नहीं था।

दूसरा अहम किरदार है सयानी गुप्ता का। उसका चरित्र ज्यादा खुलता नहीं मगर उसमें कई परतें हैं। सयानी एक ही वक्त में उदास और बिंदास दोनों ही है। लैला के प्रति उसके खिंचाव और आकर्षण को दिखा पाना निर्देशक और अभिनेता दोनों के स्तर पर एक मुश्किल काम था। सयानी ने सहज तरीके से इस चुनौतीपूर्ण भूमिका को अंजाम दिया है। समलैंगिक रूझान को निर्देशक ने पूरी संवेदनशीलता से रखा है, यह लगभग एक केंद्रिय विषय की तरह फिल्म में मौजूद है। नहीं तो हिन्दी फिल्मों में ऐसे रिश्तों को महज कॉमेडी तक सीमित कर दिया गया है।

अपनी तमाम अच्छाइयों के बावजूद ‘मार्गरीटा…’ एक फील गुड मूवी है। यह जिंदगी के बहुत से सवालों को हाशिए पर रखते हुए ही अपने विषय पर चर्चा कर पाती है। इसके साथ ही फिल्म का पेस बहुत धीमा है। यदि हम उन फिल्मों की बात करें जो अक्षम चरित्रों के इर्द-गिर्द हैं तो पाएंगे कि उन किरदारों में एक किस्म का आवेग था, चाहे वो सई परांजपे के नसीर हों या फिर भंसाली के नाना पाटकर व रानी मुखर्जी। शारीरिक अक्षमता भावनात्मक तीव्रताओं को जन्म देती है। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण स्टीफेन ज्विग का उपन्यास ‘बिवेयर ऑफ पिटी’  है। जिसका युवा नायक एंटोन जब पक्षाघात की शिकार एडिथ से मिलता है तो उसके साथ-साथ पाठकों को भी अनुमान भी नहीं होता है कि आने वाले समय में वे किन भावनात्मक झंझावातों से रूबरू होने जा रहे हैं।

‘मार्गरीटा…’ में खूबी यह है कि इसे मेलोड्रामा से दूर रखा गया है। न वेबजह आंसू बहे और न ही भावुकता भरे संवाद बोले गए। न ही नायिका के प्रति संवेदना दिखाने के लिए के एक भी दृश्य रचा गया है। इसका मेलोड्रामा कहानी की ऊपरी सहत से काफी नीचे हिलकोरे लेता रहता है… मगर ऊपरी तौर पर उस भावनात्मक तीव्रता की कमी खलती है, जिसके चलते किरदार और फिल्म अर्से तक याद रह जाते हैं।