आने वाली पीढ़ी जब इन्हें देखेगी तो बोलेगी- ये छिछोरे लोग हैंः कमल स्वरूप

भारतीय सिनेमा में अपने किस्म के अनूठे फिल्मकार कमल स्वरूप ने लोकसभा चुनाव के दौरान बनारस जाकर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाई- ‘बैटल ऑफ बनारस’। उनके शब्दों में वे ‘भारतीय जीवन में चुनाव की उत्सवधर्मिता’ और ‘भीड़ के मनोविज्ञान’ का फिल्मांकन करना चाहते थे। मगर उनकी फिल्म सेंसर बोर्ड को आपत्तिजनक लगी और इसे मंजूरी देने इनकार कर दिया गया। वे ट्रिब्यूनल के पास गए उन्होंने भी मंजूरी नहीं दी। अब फिल्म के निर्माता इसे लेकर हाईकोर्ट जा रहे हैं।

ट्रिब्यूनल का तर्क था कि यह डॉक्यूमेंट्री नेताओं के भड़काऊ संवादों से भरी हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह फिल्म पीएम मोदी के खिलाफ जाती है इसलिए इसे प्रतिबंधित किया जा रहा है। हमने कमल स्वरूप से इस पर एक लंबी बात की और जानना चाहा कि आखिर फिल्म में ऐसा क्या है जिससे इतने विवाद खड़े हो गए।

कमल स्वरूप ने सन 1974 में पूना फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट से डिप्लोमा किया है। उसके बाद से वे लगातार सिनेमा अध्ययन, डाक्यूमेट्री फिल्म मेकिंग और फीचर फिल्म के निर्माण से जुड़े रह हैं। सन् 1980 में बनी उनकी फिल्म ‘ओम-दर-ब-दर’ को उनकी सबसे बेहतरीन फिल्म माना जाता है। फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म ने जमकर तारीफ बटोरी मगर इसका कभी सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं हो सका।  स्वरूप को लिए दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है।  प्रस्तुत है कमल स्वरूप से दिनेश श्रीनेत की बातचीत।

सेंसर बोर्ड- ने किस आधार पर इस फिल्म को सर्टीफिकेट देने से मना किया?

बस सीधे-सीधे यह कहकर रिजेक्ट हो गई कि यह फिल्म सेंसर बोर्ड के लायक नहीं है। जब दिल्ली में ट्रिब्यूनल के पास पहुंचे तो उन्होंने भी यही बोला कि सेंसर बोर्ड का फैसला सही है। इसमें जाति और संप्रदाय के खिलाफ भड़काऊ स्पीच है। जबकि फिल्म में कोई कमेंट्री नहीं है। हमने सिर्फ स्पीच को रिकार्ड किया है। ये वही भाषण हैं जो मोदी, केदरीवाल, सपा नेता और इंडिपेंडेंट कैंडीडेट बोल रहे थे। भाषण भी आम थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा क्या बोलेंगे? कभी किसी को अंबानी का प्यादा कहा जाएगा तो कभी कांग्रेस के भ्रष्टाचार की चर्चा होगी।

तो आपके मुताबिक ऐसी क्या वजह है कि फिल्म पर रोक लगाने की कोशिश हो रही है?

मैं बताता हूं कि यह फिल्म लोगों को क्यों इतनी भड़काऊ लग रही है! दरअसल इसमें दिखने वाले सारे लोग अब बड़े लोग हो गए हैं। टीवी पर चीजें आती हैं और चली जाती हैं मगर यहां यह एक भारी डाक्यूमेंट, एक दस्तावेज बन जाता है। हमारी आने वाली पीढ़ी जब इन्हें देखेगी तो बोलेगी- ये छिछोरे लोग हैं।

आपको यह डाक्यूमेंट्री बनाने का ख्याल कैसे आया?

मैंने तो इसलिए शुरु किया था कि मुझे भीड़ के व्यवहार और उसे डाक्यूमेंट करने में काफी दिलचस्पी है। बनारस एक बहुत अच्छा बैकड्राप था। एक ड्रामा था कि कैसे इलेक्शन के दौरान राजनीतिक पार्टियां एक शहर को जीतने की कोशिश करती हैं। नोबेल विजेता एलियस कैनेटी की किताब ‘क्राउड्स एंड पॉवर’ मुझे बहुत पसंद है- इसमें भीड़ के प्रकार, संगठन की बनावट, प्राचीन समाज आदान-प्रदान और त्योहार की चर्चा है। कुल मिलाकर यह एक एंथ्रोपॉलोजिकल किताब है। मुझे लगा कि अपनी डाक्यूमेट्री के लिए मुझे उस किताब को ही अपना आधार बनाना चाहिए। मेरा लेंस वही किताब थी। बाकी मेरा राजनीतिक दिलचस्प खास नहीं थी।

जब आप इस फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तो राजनीतिक दलों की क्या प्रतिक्रिया थी?

बीजेपी वालों से मेरा ज्यादा कांटेक्ट नहीं बन पाया। उनकी गुप्त मीटिंग को शूट करने में मेरी दिलचस्पी नहीं थी। संघ के भवन में उनका बहुत बड़ा सा कार्यालय था। वहां गुजरात के टॉप आइटी प्रोफेशनल्स भी बैठते थे। वे शक की निगाह से हमें देखते थे। वे देखते थे कि हम तो हर राजनीतिक पार्टी के साथ बैठते थे। धीरे धीरे हुआ यह कि हर राजनीतक पार्टी हमें शक की निगाह से देखने लगी।

आपको बनारस में शूटिंग के दौरान भी कोई दिक्कत आई?

कम्युनिकेशन की दिक्कत तो बहुत थी। जब रैली निकलती है तो मोबाइल जाम हो जाते हैं। तंग गलियां हैं तो गाड़ियों मे ट्रैवेल नहीं कर सकते। हमे भागकर या मोटरसाइकिल से एक से दूसरी जगह जाना होता था। एक साथ पांच-पांच पार्टियों का प्रोग्राम की शीट बनानी होती थी। मुझे बहुत मजा आया। हम रात को उनके प्रोग्राम देख लेते थे। फिर तय करते थे कि अगले दिन कौन कहां जाकर शूट करेगा। मैं रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ फिल्म में असिस्टेंट था और क्राउड हैंडल करता था, तो वो दिन ताजा हो गए।

अगर भारत में फिल्म पर प्रतिबंध लग गया तो इसका भविष्य क्या होगा?

हमारे प्रोड्यूसर लंदन के रहने वाले भारतीय हैं। वे कोशिश में लगे हैं। वैसे ये फेस्टिवल में जा रही है। फ्रांस में दिखाई जाएगी मगर न्यूयार्क में नहीं जा पाएगी। वहां के फेस्टिवल इंडियन एनआरआई चलाते हैं। वे पंगा नहीं लेना चाहते। मामी फेस्टिवल वाले भी डर गए थे कि कहीं कोई पंगा हो न जाए। जो पंगा नहीं लेना चाहते वे घबराएंगे। नेट-फ्लिक्स भी घबराएगा। वह इसे एंटी बीजेपी मानता है तो भय होगा कि कहीं उसका लाइसेंस न रद हो जाए। बाहर जब हम विदेशों में दिखाएंगे तो बहुत से लोग इंडियन पॉलीटिक्स को समझ नहीं पाएंगे। हमारी पालिटिक्स बड़ी काम्प्लेक्स है। चुनाव एक महोत्सव की तरह है। स्टेज सजते हैं। रैलियां निकलती हैं। लोग नारे लगाते हैं। यह बिल्कुल रामलीला की तरह है। हमें इसमें मजा आता है। इस फिल्म में बनारस बहुत ही भव्य लगा है। इतनी सारी पब्लिक जिंदगी में देखी नहीं है।

इस प्रतिबंध को आप कितना जायज मानते हैं, या दूसरे शब्दों में मैं पूछूं कि सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आप क्या कहना चाहेंगे?

देखिए, हम कोर्टे में जा रहे हैं! हमारा प्रोड्यूसर जा रहा है। वहां वकील आते हैं। आपको मौका दिया जाता है अपनी बात रखने का। ट्रिब्लयून में प्रोड्यूसर को अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं दिया। यहां तो सेंसर वाले आंख बंदकर फिल्म देखते हैं। जरा सा शक होगा तो बोलेंगे रहने दो। मेरा मानना है कि वे कट सजेस्ट कर सकते हैं पर पूरी पिक्चर बैन करने का कोई मतलब नहीं होता है। मेरी फिल्म ओम दर-ब-दर को एक साल तक सेंसर सर्टीफिकेट नहीं दिया। बोलते थे पिक्चर समझ मे नहीं आ रही है। वे खोजते रहते कि उसमें दिखाई बातों का मतलब क्या हो सकता। उस समय कांग्रेस की सरकार थी। फिर एऩएफडीसी ने इस फिल्म को दबाकर रखा। सेंसर में ये लोग डांटते थे जैसे कि जजमेंट कर रहे हों। वे ज्ञान देने लगते हैं। वहां के बाबू तक हमें डांटते थे।


बैटल फॉर बनारसका विवाद

सन् 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान अचानक बनारस महत्वपूर्ण हो गया। यहां पर नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की चुनावी लड़ाई ने न सिर्फ भारत बल्कि सारी दुनिया की मीडिया का ध्यान खींचा था। कमल स्वरूप ने इस चुनाव के दौरान बनारस में डेरा डाल दिया और इस ऐतिहासिक चुनाव को शूट किया। मगर अब जब डाक्यूमेंट्री बनकर तैयार हो गई तो इसके प्रदर्शन को फिल्म सर्टिफिकेशन अपीलेट ट्रिब्यूनल (एफसीएटी) ने मंजूरी देने से मनाकर दिया।

ट्रिब्यूनल ने तर्क दिया है कि इस डॉक्यूमेंट्री से सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ सकता है। इससे पहले सेंसर बोर्ड ने ‘बैट्ल ऑफ बनारस’ को सर्टीफिकेट देने से मना कर दिया था। बोर्ड ने कहा, ‘फिल्म को देखने और पक्षों को सुनने के बाद हमारा नजरिया है कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का प्रदर्शन के लिए प्रमाणपत्र देने से इनकार करना तर्कसंगत है। इसका कारण है कि फिल्म की थीम राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के नफरत और भड़काउ संवादों से भरे हैं। और यह लोगों को जाति और सांप्रदायिक आधार पर बांटने का प्रयास करता है। यह फिल्म स्पष्ट रूप से सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए प्रमाणन के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करती है…इस आधार पर अपील खारिज की जाती है।’

Advertisement

पोलर एक्सप्रेसः भविष्य का सिनेमा


चार साल पहले क्रिसमस के मौके पर सारी दुनिया में रिलीज की गई दुनिया की पहली ‘आल डिजिटल कैप्चर फिल्म’ पोलर एक्सप्रेस को इस क्रिसमस पर याद किया जाना चाहिए। इसलिए भी शायद यह भविष्य के सिनेमा की शुरुआत है। इस कला माध्यम को शायद वे ज्यादा बेहतर एक्सप्लोर कर सकेंगे जो सिनेमा को विशुद्ध कला की तरह नितांत निजी स्पर्श देना चाहते हैं।’पोलर एक्सप्रेस’ क्रिसमस की रात एक बच्चे के स्वप्निल नार्थ पोल की यात्रा की कहानी कहती है। यह एक अद्भुत फिल्म है जो आपको मानों सपनों की दुनिया में ले जाती है, मगर ठहरिए… सपनों की दुनिया में अपनी फैंटेसी के चलते नहीं बल्कि हर दृश्य को एक कल्पनातीत विस्तार देने के कारण। इस फिल्म के ट्रेन, उसके भारी-भरकम इंजन, डब्बों से छनती रोशनी, इंजन से उठती भाप और आसमान से लगातार गिरती बर्फ को भूल नहीं सकते। यह सब वास्तविक दुनिया में संभव नहीं है।
फिल्म का वह दृश्य भूला ही नहीं जा सकता जब फिल्म के मुख्य पात्र एक बच्चे के हाथों से ट्रेन का टिकट छूट जाता है और हम देखतें हैं कि कैसे वह फड़फड़ाता हुआ ट्रेन के बाहर उड़ता चला जाता है। बर्फ की मोटी तह पर दौड़ते भेड़ियों के खुरों से उड़ती बर्फ की फुहार के बीच एक परिंदे की चोंच में दबता है और वहां से छुट कर दोबारा ट्रेन की पटरियों के बीच फड़फड़ाता हुआ दोबारा ट्रेन के रोशनदान जैसे विंडो में आकर फंस जाता है। जब आप इस फिल्म को देखते हैं तो जैसे किसी कलाकार द्वारा रची गई पेंटिग के भीतर दाखिल हो चुके होते हैं, जो दुनिया उस कलाकार की आंखों से देखी जा रही है, चाहे वह बर्फ का गिरना हो, या खिड़कियां या चेहरे पर पड़ती रोशनी…

यहां यह बताना मुनासिब होगा कि यह एक एनीमेशन फिल्म न होकर लाइव एक्शन फिल्म है, जो परफारमेंस कैप्चर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हुए बनाई गई है। इस फिल्म के लिए अभिनेता टॉम हैक्स को पांच अलग-अलग किरदार निभाने पड़े, जिन्हें बाद में मोशन कैप्चर की मदद से एक एनीमेशन फिल्म में बदल दिया गया। फिल्म के निर्देशक राबर्ट जे़ड ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे इसी नाम से आई बच्चों की किताब की शैली को बरकरार रखना चाहते थे।


‘पोलर एक्सप्रेस’ को मैं इसलिए भविष्य की फिल्म कहना चाहूंगा क्योंकि यह फिल्म कल्पनाओं के असीम विस्तार का रास्ता खोलती है। एक एक ऐसी रचनात्मक दुनिया की संभावना के बारे में बताती है जहां कलाकार का अपनी रचना पर पूरा नियंत्रण होगा। जैसे शब्द-शब्द से हजार पृष्ठों का ‘क्राइम एंड पनिश्मेंट’ या ‘वार एंड पीस’ जैसा नावेल लिख दिया जाता है या रंग और ब्रश के स्ट्रोक्स से गुएर्निका अथवा मोनालिसा जैसी कलाकृतियां तैयार होती हैं, वैसे ही डिजिटल टेक्नोलॉजी की बदौलत उस संसार की रचना की जा सकेगी जो हमारे भीतर है।

हालांकि पहले लुई बुनुएल जैसे निर्देशकों ने इसे साकार करने का प्रयास किया है मगर वे सिर्फ दृश्यों के एक नया अथवा सामान्य चेतना के लिए एक असंबद्ध क्रम देकर प्रभाव पैदा कर सके। वह एक समानांतर संसार का सृजन नहीं कर सके। शायद ‘पोलर एक्सप्रेस’ जैसी फिल्में भविष्य में और ज्यादा बनेंगी जो अभिनेता, कैमरे या लोकेशन का सहारा लिए बगैर एक रचना का रूप लेंगी।