कहानी हमारी हकीकत न होती… बॉलीवुड की ऐतिहासिक प्रेम कहानियां

‘मुगल-ए-आजम’, ‘हीर-रांझा’, ‘सोहनी-महीवाल’ और ‘बाजीराव-मस्तानी’… बॉलीवुड को प्रेम के किस्से लुभाते रहे हैं और शायद हर लार्जर दैन लाइफ फिल्म बनाने वाले निर्देशक का सपना होता है कि वह अतीत की किसी ऐसी ही कहानी को भव्य तरीके से प्रस्तुत करें। अपनी हर फिल्म में उत्तरोत्तर भव्य होते गए संजय लीला भंसाली की कुछ ऐसी महत्वाकांक्षा ‘बाजीराव मस्तानी’ के प्रोमो में झलकती है।

थोड़ा पलट के देखें तो बॉलीवुड की ये ऐतिहासिक प्रेम कहानियां भी दो तरह की हैं। एक वो किस्से जिन्हें हम इतिहास की प्रामाणिक मानते हैं और इतिहास की वो घटनाएं जिनमें हकीकत के अंश से ज्यादा लोगों की कल्पनाओं का रंग है, जैसे सलीम-अनारकली की कहानी या फिर बाजीराव-मस्तानी। इन सब कहानियों में बस एक ही समानता है, वो है प्रेम का उत्कट आवेग जो अक्सर मौत को छु जाता है।

पंजाब इन प्रेम कहानियों का गढ़ रहा है। पंजाब की इन प्रचलित कहानियों में मिर्ज़ा-साहिबा, सस्सी-पुन्नुँ और सोहनी-माहीवाल तो सुने-सुनाए जाते हैं, हीर रांझा की कहानी सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुई। वैसे तो पंजाबी साहित्य में लगभग 30 किस्से हीर या हीर राँझा नाम से मौजूद हैं मगर बाबा वारिस शाह की रचना को जो मकबूलियत मिली वह किसी और को नहीं।

वारिस शाह की इसी रचना पर सन 1970 में चेतन आनंद ‘हीर रांझा’ फिल्म लेकर आए। कैफी आजमी के बिना इस क्लासिक फिल्म की चर्चा अधूरी रह जाएगी। ‘हीर-रांझा’ कैफी की सिनेमाई कविता कही जा सकती है। इस फिल्म के सारे डॉयलॉग पद्य में थे। ठीक उसी तरह जैसे 1996 में आई ‘रोमियो+जुलिएट’ फिल्म में शेक्सपियर के नाटक को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत किया गया मगर उसके सारे संवाद मूल नाटक के रखे गए। ‘हीर-रांझा’ फिल्म की दूसरी खासियत थी हीर यानी प्रिया राजवंश। लंदन की रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट से पढ़ी और अंगरेजी नाटकों की पृष्ठभूमि वाली प्रिया इस फिल्म में पंजाब के गांव की एक लड़की बनी थीं।

पंजाब की एक और दुखांत प्रेम कहानी सोहनी-महीवाल पर भी कई बार फिल्म बनी, न सिर्फ भारत में बल्कि पाकिस्तान में भी। हमारे यहां सबसे लोकप्रिय दो ही फिल्में रहीं। पहली आई 1958 में जिसमें भारत भूषण और निम्मी थे। इसके गीत बहुत लोकप्रिय हैं और आज भी यूट्यूब पर देखे जा सकते हैं। दूसरी 1984 में उमेश मेहरा और रशियन निर्देशक लतीफ फैजीएव की ‘सोहनी महीवाल’ आई। सनी देओल और पूनम ढिल्लो की यह फिल्म अपने वक्त में ठीक-ठाक चली।

लैला-मजनूं की कहानी जब बनी तब सुपरहिट रही। सत्तर के दशक में आई सुपरहिट फिल्म ‘लैला-मजनूं’ में ऋषि कपूर थे। इसकी लैला को याद करना चाहिए। लैला बनी रंजीता की यह पहली फिल्म थी, मगर इस फिल्म ने रातों-रात उन्हें सुपरस्टार बना दिया। फिल्म के गीत सुपरहिट थे। “इस रेशमी पाजेब की झंकार के सदके” या “कोई पत्थर से ना मारो” जैसे कई गीत आज भी बजते हैं और लोग पसंद करते हैं।

‘मुगल-ए-आजम’ के बाद के.आसिफ इसी कहानी पर एक भव्य फिल्म बनाना चाहते थे। उन्होंने ‘लव एंड गॉड’ बनानी चाही मगर इसको बनाने की कोशिश अपने आप में एक कहानी बन गई और 1963 में शुरु की गई इस फिल्म को आखिरकार कई मौतों और उतार-चढ़ाव के बाद 1986 में अधूरा ही रिलीज करना पड़ा। बहुत कम लोगों को पता होगा कि इसे बॉलीवुड का सबसे लंबा प्रोडक्शन माना जाता है और यह गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है।

इन्हीं के.आसिफ ने इससे पहले ‘मुगल-ए-आजम’ बनाई और एक ऐतिहासिक मिथक को इतनी खूबसूरती से प्रस्तुत किया वह फिल्म एक विश्व क्लासिक बन गई। इसके संवाद, अभिनय, दृश्य और गीत सब कुछ आज भी हमें बांध लेता है।

फिल्मों फेहरिस्त तो और भी लंबी हो सकती है मगर हर बार यह सवाल जरूर उठता है कि आखिर ऐसा क्या है जो इन कहानियों को हर दौर में प्रासंगिक बनाए रखता है? शायद हर प्रेम कहानी दरअसल एक विद्रोह की कहानी भी होती है। पहले यह विद्रोह आत्मपीड़ा में छिपा हुआ था। यानी प्रेम करने की आजादी को कुचलने की तकलीफ सोहनी-महीवाल और लैला-मजनूं की दुखांत कहानियों में बदलकर रह जाते थे।मगर इनके किरदारों की खुद को खत्म करने की हद तक जिद हमें दिवाना बना देती है। ‘मुगल-ए-आजम’ के “प्यार किया तो डरना क्या” गीत में मधुबाला की बेबाकी तो उस दौर के युवाओं को इस कदर भाई कि वह उनके सामाजिक विद्रोह की अभिव्यक्ति बन गया।

‘मुगल-ए-आजम’ के एक और गीत की लाइनें हैं- “हमें काश तुमसे मोहब्बत न होती… कहानी हमारी हकीकत न होती”। शायद कहानियों की खूबसूरती यही होती है कि वह हमारी एक ऐसी हकीकत से जुड़ी होती हैं जिन्हें उनके सिवा कोई और बयान नहीं कर सकता।

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कहानी ‘लाजवंती’ की

A still from Lajwantiविजयदान देथा की कहानियां हमेशा से फिल्म निर्देशकों के लिए आकर्षण का केंद्र रही हैं। चाहे मणि कौल की ‘दुविधा’ हो, प्रकाश झा की ‘परिणति’, अमोल पालेकर की ‘पहेली’ हो या फिर उदय प्रकाश द्वारा उनकी कहानियों पर बनाई गई छोटी-छोटी फिल्में। सभी ने उनके जादुई संसार को सिनेमा के पर्दे पर अपने-अपने तरीके से उतारने की कोशिश की है। इसी कड़ी एक अनूठी कोशिश है पुष्पेंद्र सिंह की फिल्म ‘लाजवंती’। निर्माण के दौरान कई दिक्कतों उबरने के बाद इस फिल्म का दुनिया के सबसे सम्मानित फिल्म महोत्सवों में एक बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में भारत से ऑफिशियल सेलेक्शन हुआ है।

देथा की कहानी को पर्दे पर उतारने की पुष्पेंद्र की यह कोशिश कई मायनों में अलग है। उनका बचपन आगरा के गांव सैंया में बीता जो राजस्थान के बार्डर पर लगता है। स्कूली पढ़ाई के दौरान उन्होंने लोकथाओं का आधार लेकर रची गई बिज्जी की अनूठी दुनिया को बहुत करीब से देखा। जहां समाज के हाशिए पर टिके बेहद मामूली लोगों के दुख-सुख, आकांक्षाओं और सपनों की कथाएं हैं। बचपन से ही सिनेमा में दिलचस्पी रखने वाले पुष्पेंद्र ने पूना फिल्म इंस्टीट्यूट से निकलने बाद जब ‘लाजवंती’ कहानी पढ़ी तो पनिहारिनों के गीतों में रची-बसी इस प्रेमकथा से इतने प्रभावित हुए कि इसके लेखक से मिलने उनके गांव चले गए। बिज्जी से उन्होंने कहानी पर फिल्म बनाने के अधिकार मांगे।

पुष्पेंद्र इससे पहले अमित दत्ता और अनूप सिंह की महोत्सवों में सराही जा चुकी फिल्मों में बतौर सहायक निर्देशक काम कर चुके थे। उन्होंने अपनी पहली फिल्म के लिए देथा की कहानी को ही क्यों चुना?  जवाब में वे कहते हैं, “मैं मानता हूं कि हमारी संस्कृति लोककलाओं में ही बसी है। हमारे यहां इंडिपेंडेंट सिनेमा सामने तो आया मगर उसका सारा फोकस शहरी जीवन था। लोक संस्कृति का रूप सुंदर और अद्भुत है। मुझे लगा कि पनिहारिनों की अनोखी कहानी के जरिए मैं उस लोक संस्कृति को प्रस्तुत कर सकता हूं।”

Poster of the movie Lajwantiअब अगला चरण था इस फिल्म के लिए राजस्थान में ऐसी लोकेशन तलाशने का जहां पर देथा के संसार को उतारा जा सके। दो साल तक भटकने के बाद भी उन्हें संतोषजनक लोकेशन नहीं मिली। एक दिन मुंबई में उनकी मुलाकात मांगनिहार लोकगायकों से हुई। और जब वे राजस्थान में उनके गांव पहुंचे तो लगा कि कहानी आंखों के आगे साकार हो रही है। उन्होंने तय किया कि फिल्म को इसी लोकेशन पर फिल्माना है। पुष्पेंद्र ने खुद एफटीआई से अभिनय का प्रशिक्षण ले रखा है। फिल्म में उनके अलावा एक ही प्रोफेशनल अभिनेत्री संघमित्रा ने काम किया। बाकी कलाकारों की जगह गांव के मूल निवासियों को रखा गया। अन्य निर्देशकों की तरह पुष्पेंद्र ने गांव के लोगों को कैमरे के सामने लाने से पहले किसी तरह की वर्कशाप वगैरह का सहारा नहीं लिया। उनका मानना है कि इससे लोग अतिरिक्त रूप से सचेत हो जाते हैं।

फिल्म सिर्फ शिड्यूल में पूरी हो गई। पहला शिड्यूल 10 दिन तक चला और दूसरा तीन दिन तक। पूरी फिल्म को सिर्फ एक ही कैमरे से शूट किया गया और इसके लिए के कैनन 5 डी मार्क-थ्री कैमरे का इस्तेमाल किया गया। पैसा जुटाने का काम क्राउड फंडिंग के जरिए किया गया। कई लोग मदद के लिए सामने आए और गाड़ी चल निकली। पुष्पेंद्र ने बताया कि यह मॉडल तो यूरोप-अमेरिका के इंडिपेंडेंट फिल्म मेकर्स ने बनाया है मगर हकीकत यह है कि भारत में क्राउड फंडिंग की परंपरा बहुत पुरानी रही है। यहां यह चंदे के रूप में दिखती है। लड़कियों की शादी में भी दोस्त, पड़ोसी और रिश्तेदार मदद करते हैं।

यहां तक तो फिल्म काफी कम बजट में शूट कर ली गई। दिक्कत तब आई जब बढ़ते खर्चों की वजह से फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन का काम रुक गया। इससे उबारा दिल्ली के ही एक फिल्म प्रेमी संजय गुलाटी ने। उन्होंने इसके निर्माण में सहयोग दिया और फिल्म पूरी हुई। फिल्म का प्रीमियर अब बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में होगा। पुष्पेंद्र मुस्कुराते हुए कहते हैं, “बिज्जी इस बारे में बहुत अनुभवी थे। उन्होंने मुझसे कहा था… ‘हमारा क्या हम तो कहानी लिख लेते हैं, उसी को दिन-रात जीते हैं… मगर फिल्म बनाना मुश्किल है…’ मुझे खुशी है कि यह मुश्किल काम हम पूरा कर सके।”

तो कैसा लड़का है तू?

A scene from the movie BA Passकुछ फिल्में आप देखते हैं और भूल जाते हैं। कुछ याद रह जाती हैं। और कुछ फिल्में आपका गिरेबान पकड़कर झूल जाती हैं। आप स्तब्ध हो जाते हैं और लंबे समय तक उन्हें अपनी स्मृति से निकाल नहीं पाते। अजय बहल की फिल्म ‘बीए पास’ कुछ इसी तरह की फिल्म है। किशोर मन और बच्चों पर कितना कुछ लिखा गया और कितनी फिल्में बनीं हैं, मगर ‘बीए पास’ इस वय के एक चरित्र की कहानी कहने के बहाने आप का हाथ थामकर उन अंधेरी गलियों की तरफ ले जाती हैं, जिनके बारे में आप हमेशा से जानते हैं मगर उधर कदम बढ़ाने से डरते हैं। यह एक शॉक्ड कर देने वाली फिल्म है और इरोटिक तो कतई नहीं है। हालांकि इसका प्रचार कुछ इसी तरह किया गया मगर यह फिल्म दिल्ली और सेक्स को एक सोशल मेटाफर की तरह इस्तेमाल करती थी। यह ठीक वैसा है जैसे चेक लेखक मिलान कुंदेरा अपने उपन्यासों में सेक्स को एक पॉलिटिकल मेटाफर की तरह इस्तेमाल करते हैं।

‘बीए पास’ दोहरे स्तर पर एक जद्दोजहद लेकर चलती है। अपने माता-पिता की दुर्घटना में मौत के बाद एक बीए का स्टूडेंट अपनी बहनों की परवरिश करने और उन्हें गरीबी के दंश से बचाने के लिए खुद देह व्यापार की दलदल में फंसता चला जाता है। उसका पुरुष होना एक नाटकीय विरोधाभास रचता है, जो इस पेशे की मजबूरी और गलाजत को पर्त-दर-पर्त खोलता जाता है।

फिल्म न्यूयार्क में रहने भारतीय और अंग्रेजी के लेखक मोहन सिक्का की कहानी ‘रेलवे आंटी’ पर आधारित है। क्लाइमेक्स को छोड़ दिया जाए तो निर्देशक बहल कहानी से दाएं-बाएं नहीं गए और उसे इमानदारी से पर्दे पर उतारने में ही अपनी रचनात्मकता दिखाई। फिल्म में दिल्ली शहर एक किरदार, एक रूपक की तरह उभरता है। उल्लेखनीय है कि यह कहानी ‘दिल्ली नॉयर’ संकलन का एक हिस्सा है, जिसमें उदय प्रकाश की कहानी ‘दिल्ली की दीवार’ भी ‘द वाल्स आफ डेलही’ के नाम से शामिल है। फिल्म का परिवेश समझने के लिए सिक्का की लिखी मूल कहानी की आरंभिक पंक्तियों पर गौर करें, जहां वे मुकेश की नजर से दिल्ली को देखते हैं –

“मैं अंधेरे में डूबे छोटे से बरामदे में लेटा हूँ, दिल्ली में बुआ के फ्लैट में मुझे यही जगह मिली है। इसकी खिड़कियां पंचकुइयां रोड की तरफ खुलती हैं, जहां से लगातार हार्न का शोर सुनाई देता रहता है। यहां तक हवा का झोंका भी नहीं पहुंचता। अभी सर्दियों का मौसम शुरु नहीं हुआ और हवा में फटे हुए पटाखों की सल्फर मिली गंध घुली हुई है, जिससे सांस लेना मुश्किल हो जाता है।“

कुछ इसी तरह निर्देशक अजय बहल भी छोटी-छोटी चीजों से एक वातावरण बुनते हैं। यह वातावरण ही चरित्रों को विश्वसनीय बनाता है। फिल्म छोटे-छोटे दृश्यों और मामूली से लगने वाले संकेतों के जरिए अपनी बात कहती चलती है। फिल्म के बड़े हिस्से में हमें अंधेरी दिल्ली दिखती है मगर उनके बीच रोशनी और रंग भी उभरते हैं और उदासी को गहरा करते हैं। फिल्म के भीतर कहानी शुरु होती है एक शोक सभा से। हम समझ जाते हैं कि नायक के माता-पिता नहीं रहे और उसकी दो बहनें हैं। वायसओवर में मुकेश (शादाब कमल) की आवाज सुनाई देती है- “मां-बाप का जल्दी मरना कभी हादसा नहीं लगता, कभी मौत नहीं लगती… सिर्फ धोखा लगता है। खाली किसने दिया… समझ में नहीं आता है।”  बीए का स्टूडेंट मुकेश कुछ कमाने लायक हुआ नहीं। दो बहनें भी हैं। परवरिश का जिम्मा बुआ पर आता है। मुकेश अपनी बुआ और रिश्तेदारों से कहता है- “मैंने कहीं नहीं जाना है, यहीं रहना है। सोनू और छोटी का ख्याल रखना है…”  और जैसे इसी संवाद के साथ ही फिल्म की बेसलाइन तैयार हो जाती है। सीन अंधेरे में फेड-इन होता है और कुछ झूलते-जगमगाते रंगों के साथ पर्दे पर शीर्षक उभरते हैं।

मुकेश के रोल को शादाब ने बड़ी सहजता से निभाया है। उनके पास नाटकीय होने के मौके थे, मगर शादाब उस लालच में नहीं पड़े। उनका अंडरप्ले ही दरअसल उस चरित्र को विश्वसनीयता प्रदान करता है। थोड़े ही दिनों में मुकेश को समझ में आ जाता है कि वह अपनी बुआ और उसके बेटे की आंखों में खटकने लगा है। कालेज और घर के बीच भटकते हुए वह एक क्रिश्चियन कब्रिस्तान में शतरंज खेलते हुए टाइम पास करता है, जहां उसकी मुलाकात वहीं काम करने वाले जॉनी से होती है और यह चरित्र दिव्येंदु भट्टाचार्य के सजीव अभिनय के कारण याद रह जाता है। जॉनी कहता है, “यह दिल्ली है, यहां हर कोई चोर है। यहां अच्छे टाइम में प्लॉट कटते हैं, बुरे टाइम में जेब और खराब टाइम में गले…”

कहानी में अहम मोड़ आता है बुआ के घर किटी पार्टी से, जहां सारिका (शिल्पा शुक्ला) भी आई है। वहां से शुरु होता है लालच का एक खेल- सेबों की पेटी के बहाने सारिका पहली बार मुकेश को सिड्यूस करती है। फिल्म का एक छोटा सा दृश्य है, जब मुकेश पहली बार सारिका के घर जाते वक्त सीढ़ियां चढ़ता है। यह है तो कुछ सेकेंड का- मगर पार्श्व में बजता संगीत उसके जीवन में जल्दी ही छा जाने वाले अंधेरे और त्रासदी का संकेत देता है। कॉलबेल बजाने से पहले मुकेश की घबराहट और बूढ़ी बीजी का अटपटे ढंग से उसे चेताना इस संभावित त्रासदी के रंग को और गहरा करता जाता है। आखिर सारिका से उसकी मुलाकात होती है। सारिका का इरादा स्पष्ट है। शिल्पा ने सारिका के चरित्र को एक नाटकीय रंग दिया है। एक ढीठ, सेक्सुअली फ्रस्ट्रेट और चालाक स्त्री के किरदार को उन्होंने पूरे आत्मविश्वास के साथ निभाया है।

सेक्स दृश्यों के फिल्मांकन में कई बड़े निर्देशक भी तटस्थ नहीं रह पाते मगर अजय बहल का कैमरा इन दृश्यों में एक दूरी बनाकर रखता है। मुकेश को अकेले में फुसलाने के बाद दोनों के बीच पहला लंबा चुंबन सेंसुअस नहीं है। वहां पर भी संगीत एक भय और उदासी का वातावरण रचता है। यह उदासी इतनी गहरी होती जाती है कि जब सारिका सोफे पर बैठे मुकेश के सामने खुद को सामने निर्वस्त्र कर रही होती है तो सेक्स का यह खेल विवशता और पैसे की ताकत के खेल में बदलता नजर आता है। हमेशा सेक्स के इस खेल में ताकत का प्रतीक पुरुष यहां निरीह नजर आता है।

आगे लगातार आने वाले सेक्स दृश्यों के बेहद कलात्मक मोंताज में भी पार्श्व संगीत हमें स्क्रीन पर नजर आ रहे दृश्यों से परे लेकर जाता है। इन दृश्यों का छायांकन अद्भुत है। निर्देशक इन पात्रों की शारीरिक भंगिमाओं और उनके चेहरे के एक्सप्रेशन तो दिखाता है मगर यह सब कुछ उनके आसपास की तमाम आउट ऑफ फोकस यानी धुंधली सी नजर आ रही चीजों के बीच घटित हो रहा होता है, जो इस पूरी दृश्य श्रृंखला को नियतिपरक बना रहा होता है। फिल्म के हर पात्र की नियति के बीज उसके भीतर छिपे नजर आते हैं, मगर यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि फिल्म में यह सब अमूर्त नियति के खेल की तरह सामने नहीं आता है- यह ठोस सामाजिक नियति है- जिसके आगे हम एक-एक करके इन चरित्रों को हौसला खोले और पराजित होते देखते हैं।

मुकेश की जिंदगी में कदम-दर-कदम पराजय का यह सिलसिला आगे बढ़ता जाता है। मुकेश की जिंदगी में फिर एक झटका आता है। थोड़े-बहुत खर्चे भेजने वाले दादाजी भी चल बसे। उसके फूफा फैसला लेते हैं- “छोटी और सोनू को होम में डलवा देते हैं… पम्मी अकेली कितना कर लेगी।” बहनों के घर छोड़कर जाने का दृश्य मार्मिक है। बारिश में मुकेश की दोनों बहनों को हम रिक्शे में बैठकर एक अनिश्चित भविष्य की तरफ जाते देखते हैं। मुकेश का संघर्ष बढ़ता जाता है। उसे पता चलता है कि हॉस्टल की संचालिका की गतिविधियां ठीक नहीं हैं। वह अपनी बहन को मोबाइल देता है ताकि उनके संपर्क में रह सके। अब मुकेश को और ज्यादा पैसे चाहिए। सारिका उसे चालाकी से इस्तेमाल करना शुरु करती है और अपने जैसी कई दूसरी महिलाओं के पास एक पुरुष वेश्या की तरह भेजना शुरु कर देती है।

शुरु में मुकेश का प्रतिरोध सारिका की लगातार चलने वाली दलीलों के आगे कमजोर होता जाता है। वह एक दिन सारिका से कहता है- “मेरे से नहीं होगा… मैं ऐसा लड़का नहीं हूं।” इस सीधे-सादे संवाद का मर्म गहरा है। मुकेश की जिंदगी और कठिन इसीलिए होती जा रही है क्योंकि ‘वह ऐसा लड़का नहीं है’। इसके जवाब में सारिका व्यंग से पूछती है- “अच्छा! कैसा लड़का है तू?” सारिका उसे समझाती रहती है- “पैसा कैसे आता है यह मत सोच, आता है और आता रहेगा, यह जानकर खुश रह…” जब मुकेश जानना चाहता है कि क्या वह सारिका को अच्छा नहीं लगता तो वह जवाब देती है- “सब अच्छा लगता है मुझे… तू भी अच्छा लगता है… दिल्ली की सोसाइटी मे शादी के लाइसेंस से जो कुछ भी मिलता है सब अच्छा लगता है।”

धीरे-धीरे दिल्ली का अंधेरा फिल्म पर हावी होता जाता है। पैरों की एड़ियां रगड़ने वाले घिसे-पिटे सेक्स दृश्य को निर्देशक ने लगातार डिज़ाल्व के जरिए जैसे एक पूरी सोसाइटी का रूपक बना दिया। कुछ ऐसे ही खूबसूरत दृश्य रात के अंधेरे में पुल से गुजरती खाली मेट्रो के हैं। घटनाएं आगे कई मोड़ लेती हैं। सारिका का पति उसे मुकेश के साथ रंगे हाथों पकड़ लेता है। सारिका न सिर्फ अचानक मुकेश से संबंध तोड़ लेती है बल्कि उसके पैसे भी हड़प लेती है। मुकेश को अचानक पैसे मिलने बंद हो जाते हैं। इसी बीच उसकी बहनें हॉस्टल छोड़ने का फैसला कर लेती हैं।

इसके बाद फिल्म का सबसे मार्मिक दृश्य सामने आता है जब मुकेश फोन करके दोबारा उन महिलाओं से संपर्क करने की कोशिश करता है- “हलो.. जी, कविता जी… मैं मुकेश बोल रहा हूं! हलो, मिस रीना.. जी मैं मुकेश बोल रहा हूं… जी… आपने फोन नहीं किया इसलिए सोचा कि… जी, रांग नंबर… काजल जी बोल रही हैं? उषा जी… वंदना जी… जी, सॉरी अबसे फोन नहीं करूंगा…” आखिरकार वह एक समलैंगिंक वेश्या के रूप में सड़क पर जाकर खड़ा हो जाता है। इस धंधे में उसकी इंट्री करना वाला नौजवान उसकी घबराहट देखकर उसे शराब की बोतल देता है और कहता है- “पी ले! मर्द को भी दर्द होता है…”  इसके बाद जो कुछ घटित होता है निर्देशक ने उसे किसी दुःस्वप्न की तरह प्रस्तुत किया है। मुकेश को पैसे नहीं मिलते हैं। हताशा के चरम पर पहुंचा मुकेश अंततः सारिका के घर से अपने पैसे चुराने का फैसला करता है। वहां उसकी मुठभेड़ सारिका से होती है और उसी वक्त उसका पति दरवाजा खटखटाने लगता है। घटनाएं तेजी से घटने लगती हैं। सारिका को चाकू मारकर मुकेश वहां से भाग खड़ा होता है।

क्लाइमेक्स में जब मुकेश भागता है तो हम समझ चुके होते हैं कि उसके लिए सारे दरवाजे बंद हो चुके हैं। जॉनी जो हमेशा मॉरीशस जाने के सपने देखता था, अपना कमरा छोड़कर जा चुका है। जब पुलिस मुकेश का पीछा कर रही होती है तो उसका फोन बजता है। उसकी बहनें बस स्टैंड पर उसका इंतजार कर रही होती हैं।

“हलो भइया! आप कहां हो? आप आए नहीं अभी तक? हम कब तक खड़े रहेंगे यहां पर? ये सीधी-सपाट आवाजें आपके कलेजे को चीर जाती हैं। खास तौर पर तब जब आप फिल्म के क्रेडिट्स पर्दे पर उभरने से ठीक पहले कहे गए मुकेश के संवाद के बरक्स इन्हें रखते हैं- “मैंने कहीं नहीं जाना है, यहीं रहना है। सोनू और छोटी का ख्याल रखना है…” मगर उस वक्त दृढ़ता से खड़ा मुकेश अब भाग रहा होता है। सोनू और छोटी आधी रात को बस स्टैंड पर अकेली उसका इंतजार कर रही होती हैं। मुकेश के पास जान बचाने का विकल्प भी खत्म हो चुका है।

‘बीए पास’ का मर्म उसकी कथा संरचना की निरंतरता में आकार लेता है। इस फिल्म को टुकड़ों में नहीं समझा जा सकता। यह फिल्म निर्ममता का दिखावा किए बिना हमारे बीच के एक निर्मम सत्य को सामने रख देती है। यह फिल्म बताती है कि कड़वी हकीकत को बयान करने के लिए जिंदगी की कोमलता और संवेदनशीलता की पहचान होना कितना जरूरी है।

अपने पर भरोसा है तो ये दांव लगा ले…

विक्रमादित्य मोटवानी इसलिए जिक्र करने लायक निर्देशक हैं क्योंकि उनकी फिल्मों में हड़बड़ी नहीं है। न तो जल्दी-जल्दी कहानी कहने की, न खुद को इंटैलेक्चुअल बताने की और न ही बेवजह एक भव्य फिल्म बनाने की। उनका कैमरा उतना ही और उन्हीं चीजों को दिखाता है, जिसकी कहानी कहने में जरूरत है और तब हमें अहसास होता है कि दरअसल सबसे जरूरी बातें तो यही थीं, और तब हर एक घटना का मतलब साफ होता चला जाता है। चाहे वह ‘लुटेरा’ फिल्म में सादे कैनवस पर उकेरी गई बदरंग पत्तियां हों या ‘उड़ान’ में हर सुबह पिता के साथ दौड़ लगाता और थककर हांफता किशोर।

विक्रमादित्य मोटवानी पर आगे चर्चा करने से पहले हम उस परिदृश्य पर भी एक नजर डालते हैं, जिसके बीच उनकी रचनात्मकता का मूल्यांकन होना है। बीते एक दशक में हिन्दी सिनेमा काफी बदल चुका है। इसकी बड़ी वजह फिल्मों के वितरण और बाजार में आया बदलाव है। सिनेमा में लोकेशन का महत्व, तकनीकी चकाचौंध और प्रोडक्शन की गुणवत्ता बढ़ी है, मगर इसके साथ ही कहानी लयबद्धता कहीं खो गई है। फिल्म को मीडिया के बीच चर्चा लायक बनाने और बाजार में टिकाए रखने का दबाव उनकी रचनात्मकता पर साफ नजर आता है। विक्रमादित्य मोटवानी अपनी दो फिल्मों के जरिए इसी लय के प्रति हमें आश्वस्त करते हैं। कि यह लय धुंधली भले ही पड़ गई हो मगर खत्म नहीं हुई है। मोटवानी शायद इसे इसलिए भी संभव कर पाते हैं क्योंकि उन्होंने अपनी रचनात्मकता को सामने लाने से पहले सिनेमा को गढ़ने में कई तरह की भूमिकाएँ निभाई हैं। दो शार्ट फिल्मों का निर्देशन, ‘पांच’ और ‘देवदास’ के साउंड डिपार्टमेंट से जुड़ना, ‘वाटर’ फिल्म के छायांकन और ‘पांच’ के संगीत में दखलंजादी बताती है कि मोटवानी की दिलचस्पी विभिन्न विधाओं में है और उसके संतुलन से वे एक बेहतर कहानी बुन सकते हैं।

Sonakshi an innocent girl in first half of Looteraसन् 1953 की पृष्ठभूमि पर बुनी गई ‘लुटेरा’ की प्रेम कहानी को हम किसी संगीत रचना की तरह महसूस कर सकते हैं। किताबों की शौकीन पाखी (सोनाक्षी सिनहा) के जीवन में वृद्ध होते जमींदार पिता के प्रति चिंताओं और अस्थमा के अटैक के बीच एक खूबसूरत नौजवान (रणवीर सिंह) दाखिल होता है। वरुण नाम का यह युवक खुद को एक आर्कियोलॉजिस्ट बताता है और अपने विनम्र स्वभाव के चलते जमींदार के घर में ही मेहमान बन जाता है। पाखी और वरुण के बीच शुरुआती शरारतों और चुहलबाजियों का दौर जल्दी ही नज़दीकियों में तब्दील हो जाता है। रेडियो पर बजते गीत, नागार्जुन की कविता और कैनवस पर उकेरी जा रही पत्तियों के बीच इन दोनों की नज़दीकी प्यार में बदलने लगती है। इसी बीच भारत सरकार जमींदारी प्रथा को एक कानून के जरिए खत्म कर देती है। सरकारी बाबुओं की लूट-खसोट के बीच जमींदार के मन में अपनी बेटी की शादी का उत्साह है। मगर वरुण एक आर्कियोलॉजिस्ट नहीं लुटेरा निकलता है। जमींदार के पुश्तैनी मंदिर से कीमती मूर्ति के साथ वह गायब हो जाता है।

कहानी का दूसरा हिस्सा शुरु होता है एक साल बात। यह हिस्सा एक त्रासद आर्केस्ट्रा की तरह है। पाखी के पिता गुजर चुके हैं। अतीत की कड़वी यादों के सहारे बीमार पाखी अपने अंतिम दिनों की तरफ बढ़ रही है। तभी उस शहर में एक बार फिर वरुण लौटता है। अपने असली चेहरे के साथ। दोनों आमने-सामने आते हैं मगर उनके बीच न सिर्फ एक बड़ा फासला है बल्कि एक कड़वाहट भी है। कहानी अपने अंत की तरफ बढ़ती है तो हम एक असाधारण कैमरा वर्क के बीच फिल्म को एक अनूठी परिणति तक पहुंचते देखते हैं। ‘लुटेरा’ भले ही ‘उड़ान’ जितनी बहुआयामी छवियों वाली फिल्म न हो, मगर कम संवादों वाली इस फिल्म को देखने में एक कंपोजिशन का आनंद मिलता है।

गौर करें तो अपनी तल्खी के बावजूद यह सांगीतिक संगति ‘उड़ान’ में भी थी। वह फिल्म अपने संगीत की तरह घुटन भरे जीवन से बाहर भागने की उन्मुक्तता और खुले आकाश में उड़ान को अभिव्यक्त करती थी। फिल्म में हर रोज अपने पिता के साथ दौड़ लगाते रोहन का दृश्य बार-बार आता है। दुहराव की हद तक। मगर फिल्म के अंत में जब यही किशोर अपने पिता पर तंज़ करता है और तिलमलाया पिता उस पर झपटता है तो हम बाप-बेटे को एक बार फिर दौड़ लगाते देखते हैं। मगर इस बार जिंदगी कुछ और कह रही है। बेटे के पैरों में तो मानों पंख लग गए हैं। यह उसके जीवन की निर्णायक दौड़ बन जाती है। अपने धन, सामाजिक रुतबे और शारीरिक बल पर दंभ करने वाला पिता उसके छलकते पानी जैसे निश्छल आवेग से कदम नहीं मिला पाता है। वह पीछे छूट जाता है और बेटा दौड़ता चला जाता है, वह जान लड़ाकर दौड़ता है- अपने वक्त, अपने अतीत और जिंदगी की तमाम कड़वाहटों को छोड़ता हुआ। कैमरे के किसी चमत्कृत कर देने वाले प्रभाव के बिना हम युवा नायक के साथ खुले आसमान में छलांग लगा देते हैं।

‘लुटेरा’ और ‘उड़ान’ फिल्म देखते हुए मुझे कई बार पुराने रूसी उपन्यासों की याद आई। खास तौर पर तुर्गनेव और चेखोव की। ‘लुटेरा’ देखते हुए शायद तुर्गनेव के उपन्यास मन में कौंध सकते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उनकी फिल्मों में परिवेश लगभग एक अहम किरदार की तरह मौजूद होता है। ठीक इसी तरह ‘उड़ान’ में चेखोव की उदास संवेदनशीलता बिखरी पड़ी है। फिल्म का वातावरण जैसे एक चरित्र बन जाता है। ट्रेन, सड़कें और फैक्टरियों से उठता धुआं तो सीधे तुर्गनेव की उदास शामों और छितिज के अपरिमित विस्तारवाले दृश्यों की याद दिलाता है। वहीं पात्रों के भीतर का सूनापन महसूस करते हुए कहीं मन में चेखोव कौंध जाते हैं।

जहां ‘उड़ान’ में मां की याद, निरुदेश्य से जीवन और संशय से भरे भविष्य के साथ यह सूनापन पूरी फिल्म में छाया हुआ है, ‘लुटेरा’ में यह दूसरे हिस्से में दोनों ही पात्रों पाखी और वरुण के भीतर विस्तार लेता है। इस पर गौर करना हो तो बंद अंधेरे कमरों में दोनों के बीच संवादों को याद करें। जिनमें एक गुस्सा, जिद और झुंझलाहट है। जहां प्रेम एक सतही भावाभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उन चिंगारियों की तरह है जो अतीत की राख में दबी कभी-कभार कौंध जाती हैं। पाखी को जबरदस्ती दवा का इंजेक्शन लगाने का दृश्य हो या उसे सोता हुआ छोड़कर वरुण का बाहर निकल जाना हो।

Pakhi loves Varnun, a scene from Looteraविक्रमादित्य ऐसा इसलिए संभव कर पाते हैं क्योंकि उन्होंने पर्दे पर जीवन की लय को समझ पाने के एक असाधारण कौशल को साध लिया है। तालाब के किनारे बैठे दोनों चरित्रों के बीच फुसफुसाहट में वह लय दिखती है, या फिर उस वक्त जब ‘लुटेरा’ का नायक सादे कैनवस पर बदरंग सी पत्तियां बना देता है। नायिका पाखी के साथ उसकी नादानी और कला की समझ पर हंसती हैं। मगर यह इस हँसी का मर्म आगे चलकर तब समझ में आता है जब रोज-ब-रोज गिरती बर्फ के बीच खुद से पेड़ की छाल पर बनाई गई एक पत्ती को बांधने वही नायक पेड़ पर चढ़ जाता है। एक नज़र में यह सिनेमाई कौतुक लग सकता है। मगर जब आप इस घटना को कही जा रही कहानी के अतीत और इस दौरान विकसित हो रहे चरित्रों के संदर्भों में देखते हैं तो किसी कविता की तरह उसके अर्थ खुलने लगते हैं। फिल्म के कुछ यादगार मोंताज में एक वह भी है जब पार्श्व में रेडियो पर “अपने पे भरोसा है तो ये दांव लगा ले…” गीत बज रहा होता है। अगर आप गौर करें तो इस गीत का चयन विक्रमादित्य ने अनायास ही नहीं किया है। गीत की शोखी और उसमें छिपी उदासी की परछाईं पूरी फिल्म में नजर आती है।

इंटरवल तक तो कहानी हमें यही बताती है कि हमारा नायक अपने हालातों की वजह से जीवन में पहली बार प्यार देने वाले लोगों का भी विश्वास खो देता है। बाद में यही नायक किसी के विश्वास को कायम रखने के लिए एक बनावटी पत्ती को सूखी टहनी पर टांकने के लिए चढ़ जाता है। बर्फ के तूफान के बीच यह दृश्य धोखे और हकीकत, फरेब और विश्वास, मृत्यु की आहट और जीवन के प्रति यकीन का ऐसा रूपक बन जाता है, जो हाल-फिलहाल की फिल्मों में दुर्लभ है। वरुण प्रेम के जरिए अपने-आप को पाना चाहता है और अपने अपराधी अतीत को मिटाने की कोशिश में लग जाता है। गीत की पंक्तियां इस हिस्से पर सटीक बैठती हैं- “डरता है ज़माने की निगाहों से भला क्यूँ/ निगाहों से भला क्यूँ / इनसाफ़ तेरे साथ है इलज़ाम उठा ले/ अपने पे भरोसा हैं तो ये दांव लगा ले…” मुझे याद नहीं आता कि बीते दिनों की कुछ बहुत बेहतरीन फिल्मों में से भी ऐसी कितनी हैं जिन्हें पर्त-दर-पर्त खोलने में आपकी दिलचस्पी होगी।

इसकी शायद एक बड़ी वजह यह है कि विक्रमादित्य मोटवानी की फिल्में वह नहीं बोलती जो दिखाती हैं। ठीक जिंदगी की तरह- जहां सतह में नहीं उसके परे जीवन का मर्म छिपा हुआ होता है। ‘उड़ान’ में बहुत कुछ नहीं घटित होता है। फिल्म एक छोटे से भावनात्मक सफर को प्रस्तुत करती है। हॉस्टल में रहने वाला एक लड़का जब अपने घर लौटता है तो उसके सामने टूटे हुए रिश्तों, घुटन और अपनी मां की यादों के सिवा कुछ भी नहीं होता है। ऐसे परिवार आम तौर पर नहीं मिलते हैं मगर इन अवास्तविक स्थितियों में नायक की घुटन और उसकी छटपटाहट को हम गहराई से महसूस कर पाते हैं। ठीक इसी तरह ‘लुटेरा’ के दूसरे हिस्से में नायक का एक बर्फीले पहाड़ी शहर में लौटना एक अलग कहानी की तरह है। इस हिस्से को एक छोटी मगर संपूर्ण फिल्म की तरह देखा जा सकता है। जहाँ अपनी आसन्न मृत्यु में अकेली, उदास, जिंदगी के दिनों को गिनती एक लड़की मौजूद है। जो इंतजार की उम्मीदें खत्म कर चुकी है। फिल्म के इस हिस्से में एक नीम अंधेरा है। मगर यह ‘फैशनेबल डार्क फिल्म’ नहीं है। इसमें पश्चिम से आयातित वह नैराश्य और कड़वाहट नहीं है जो हमें अनुराग कश्यप (समीक्षक क्षमा करें) समेत हाल के कई ऑफबीट फिल्म निर्देशकों के काम में दिखती है। मोटवानी उम्मीद की डोर को थामे रहते हैं, मगर एक संशय के साथ। टॉमस हॉर्डी के उपन्यासों की तरह पात्रों की नियति उनके भीतर ही छिपी होती है। घटनाओं का बेतरतीब सिलसिला उन्हें किसी अनजान भविष्य की तरफ घसीटता चला जाता है। और निराशा के इस घटाटोप में वे अचानक हमें उम्मीद की एक नन्ही सी किरण दिखाकर आगे बढ़ जाते हैं।

Sonakshi in second half of Looteraसिर्फ एक किरण… हमें यह कभी पता नहीं चलेगा कि ‘लुटेरा’ में बर्फीले तूफान के बाद भी सूखे पेड़ पर टंगी पत्ती पाखी की जिंदगी में कौन सा नया मोड़ लेकर आएगी। या अपने छोटे से सौतेले भाई को लेकर घर से निकला रोहन किस अनिश्चित भविष्य की तरफ जा रहा है। मोटवानी की सफलता उम्मीद की उस नन्ही किरण को दर्शकों तक पहुंचाने भर में है। इन दोनों फिल्मों का अंत हमारे जीवन में आई उन सुबहों की तरह है जब हम पूरी रात जगे और बुरी तरह से थके हुए होते हैं। मगर सुबह छितिज पर लाल रंग की आभा, हवा के ठंडे झोंके और पंक्षियों का कलरव फिर से हमारे टूटन भरे शरीर में ताजगी भर देता है। ‘उड़ान’ और ‘लुटेरा’ दोनों के क्लाइमेक्स शायद इसी वजह से हिन्दी सिनेमा के कुछ श्रेष्ठ क्लाइमेक्स में रखे जाने चाहिए।

हालांकि ऐसा नहीं है कि ‘लुटेरा’ एक त्रृटिहीन फिल्म है। उसकी काव्यात्मकता और संवेदनशील हो सकती थी और दुख के रंग और गहरे। कुछ मामलों में मोटवानी अपनी पिछली फिल्म ‘उड़ान’ से पीछे रह गए हैं। इस फिल्म का परिवेश उसे खूबसूरत तो बनाता है मगर ‘उड़ान’ के जमशेदपुर जैसा यथार्थपरक विस्तार लेकर नहीं आता। कुछ छोटे चरित्र भी उतने विश्वसनीय नहीं बन पाते जितना ‘उड़ान’ के राम कपूर। वरुण के भीतर का अंतर्द्वंद्व और उभर सकता था। और शायद गोली से घायल, बीमार और ऊंचाई से नीचे गिरने के बाद नायक की मृत्य के लिए पुलिस को गोलियां चलाने की जरूरत नहीं थी।

इसके बाद भी अगर यह एक महत्वपूर्ण फिल्म बनती है तो दरअसल कहानी के परे अंर्तनिहित मूल्यों के कारण, जिसे हमने पहले इंगित किया था। ‘लुटेरा’ फरेब और यकीन की कहानी कहती है। पूरी कहानी, चरित्र और परिस्थितियां इन दोनों शब्दों के बीच झूलते रहते हैं। इस फिल्म के नायक और नायिका दोनों ही विभाजित मनःस्थिति वाले हैं। वरुण कहानी में एक मुखौटे के साथ प्रवेश करता है। एक भावुक और सहज सा दिखने वाला युवा। जिसे पाखी सहज ही चाहने लगती है। मगर इंटरवल के बाद जब नायक का मुखौटा उतरता है तो हम उसे एक भगोड़े हत्यारे के रूप में देख रहे होते हैं। पहले हिस्से में उसके नकली चेहरे के आसपास एक भरोसे और मासूमियत का संसार मौजूद था मगर दूसरे हिस्से में जब वह अपने वास्तविक चेहरे के साथ सामने आता है तो उसके चारो तरफ घृणा, अविश्वास और हिंसा से भरा वातावरण नजर आता है।

फिल्म की नायिका पाखी का संसार भी अनोखा है। सोनाक्षी ने इसे उतने ही सहज तरीके से प्रस्तुत भी किया है। पहले हिस्से में जहां वह उन्मुक्त और बेफिक्र है, वहीं दूसरे हिस्से में बिना लाउड हुए सोनाक्षी ने किरदार के आत्मसंघर्ष को अभिव्यक्त किया है। कठिन क्षणों में भी अपना आत्मविश्वास बनाए रखने वाली एक युवती के रूप में सोनाक्षी ने किरदार को अद्भुत अभिव्यक्ति दी है। पहले हिस्से में युवा मन की तरंगों के साथ अकेलेपन और मृत्यु का संशय उसके आसपास मंडराता रहता है, उसके आसपास का सामाजिक और राजनीतिक वातावरण तेजी से बदलता नजर आता है और वह उस बदलाव के साथ जीने का संकल्प लेती दिखती है। बिजली के बल्ब जलाने-बुझाने का दृश्य न सिर्फ पाखी के चरित्र की गहराइयों में झांकने के लिए बल्कि फिल्म की संचरना को भी एक सुंदर विस्तार देता है। वहीं दूसरे हिस्से की पाखी बिल्कुल अलग है। उसके पास भविष्य की उम्मीदें बिल्कुल खत्म हो चुकी हैं। उसके जीवन का यह हिस्सा एक अनवरत लंबी रात की तरह है। जिसमें दुःस्वप्न की तरह उसका पुराना फरेबी प्रेमी भी लौट आया है। ऐसे घनघोर अविश्वास, घृणा और संशय में ओ हेनरी से प्रेरित पत्तियों के गिरने की उपकथा के माध्यम से दरअसल फिर से भरोसे की कोंपलें पनपने लगती हैं। मगर यहां वरुण का यह समर्पण किसी और के लिए नहीं खुद के लिए है। यह उसका अपने-आप से वादा है। यह उसका अपना प्रायश्चित है। यहीं पर आकर फिल्म बड़ी बन जाती है।

आखिरी दृश्य में अद्भुत छायांकन की चर्चा के बिना इस फिल्म पर बात अधूरी होगी। गिरती बर्फ के बीच पेड़ पर चढ़ रहे वरुण का दृश्य जब सामने आता है तो फिल्म कविता में बदलने लगती है। यह एक सपाट कहानी भर नहीं रह जाती और हमारे समामने मायने खुलने लगते हैं।

इन खुलते मायनों का सारांश फिल्म के आरंभिक हिस्से में रेडियो पर रह-रहकर बजने वाले गीत “अपने पे भरोसा है…” की पंक्तियां में शायद खोजा जा सकता है-

क्या खाक वो जीना है जो अपने ही लिये हो
खुद मिटके किसी और को मिटने से बचा ले
अपने पे भरोसा हैं तो ये दांव लगा ले

टूटे हुए पतवार हैं कश्ती के तो हम क्या
हारी हुई बाहों को ही पतवार बना ले
अपने पे भरोसा हैं तो ये दांव लगा ले

हमें ये सीक्वेल चाहिए!

देखते-देखते हिन्दी फिल्मों के सीक्वेल बनने लगे. सबसे पहले सीक्वेल के बारे में पता लगा स्टारवार्स सिरीज से. किशोरावस्था का ज्यादा हिस्सा सीक्वेल देखते ही गुजरा. एंपायर स्ट्राइक्स बैक पहले देखी फिर रिटर्न आफ जेडाइ- मगर स्टारवार्स आज तक न देख सका. कुछ और सीक्वेल देखे- कई बार खराब, जैसे- डाइहार्ड का दूसरा भाग और कई बार इतने शानदार कि दांतो तले उंगलियां दबाए रह गए, जैसे- मैड मैक्स का पार्ट टू. इन दिनों फिल्म रिलीज होने से पहले ही उसकी अगली कड़ी का ऐलान कर दिया जाता है. ऐसे में कई बार कुछ ऐसी फिल्मों के नाम मन में घूम जाते हैं, जिसके बारे में अक्सर लगता है कि इनका सीक्वेल बनना चाहिए. यहां मैं ऐसी ही चार फिल्मों की चर्चा करना चाहता हूं. हर बेहतर फिल्म अपना खुद का एक संसार रचती है. इन बेहतरीन फिल्मों के साथ मेरी भी कल्पना ने उड़ान भरी तो लगा क्यूं न ये प्लॉट सबके साथ शेयर किए जाएं…बैंडिट क्वीन

संभावित प्लॉट

फूलन के जीवन का एक नया अध्याय शुरु होता है. इस बार चंबल के बीहड़ नहीं, राजनीति के बीहड़ों से गुजरना था. फूलन 1994 में पैरोल पर छूटती है. खराब स्वास्थ्य और एक के बाद एक खत्म होते साथियों के चलते उसने ’83 में आत्मसमर्पण किया था. जेल से छूटने के बाद प्रदेश के तत्कालीन मुखिया ने सरकार की तरफ से उसके खिलाफ चल रहे सारे केस वापस ले लिए.

फूलन एकलव्य सेना का गठन करती है जिसका मकसद था छोटी जाति वालों को साक्षर और आत्मरक्षा के काबिल बनाना था. उमैद सिंह से शादी के बाद फूलन के जीवन एक नई राह पर चल पड़ता है. फूलन का राजनीतिक जीवन शुरु होता है. वह मीरजापुर से 11वीं लोकसभा के लिये चुनी जाती है.

मगर इस नई जिंदगी में सब कुछ नया नहीं है. बीते मौसम की हवाएँ एक बार फिर जिंदगी में आंधी बनकर चल पड़ती हैं. क्षत्रीय स्वाभिमान आंदोलन से जुड़े लोग फूलन के खिलाफ लामबंद होने लगते हैं. फूलन को अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास होता है और वह आलोचनाओं की परवाह किए बगैर उनका इस्तेमाल करने लगती है. 25 जुलाई 2001 को नई दिल्ली में कार से निकल रही फूलन को गोलियों से छलनी कर दिया जाता है. यह बेहमई में 22 ठाकुरों को मारे जाने का प्रतिशोध था.

इस तरह एक चक्र पूरा होता है, जातियों को बीच सुलगती रंजिश, वर्चस्व की जंग और राजनीति के अपराधीकरण के बीच से गुजरती फूलन किसी मंजिल तक नहीं पहुंचती मगर उसकी जिजीविषा मौजूदा व्यवस्था पर अनगिनत सवाल छोड़ती चलती है.

क्यूं बने फिल्म?

बैंडिट क्वीन के सिक्वेल में सर्वाधिक संभावनाएं हैं, बीहड़ से निकली एक दलित स्त्री किस तरह से राजनीति में अपनी जगह बनाती है और किस तरह से जाति और वर्चस्व की लड़ाई इस धरातल पर चलती रहती है, यह अपने में एक रोमांचक महागाथा की तरह है और शायद इसे फिल्माया जाना उसके डकैत जीवन को पर्दे पर उतारने से ज्यादा जोखिम भरा है.

परिंदा

संभावित प्लॉट
छोटे भाई करन और नई-नवेली पत्नी की क्रूर हत्या के बाद अन्ना को आग के हवाले करके किशन अपराधों की दुनिया से किनारा कर लेता है. उसके पास अतीत की कड़वी स्मृतियों के सिवा कुछ नहीं बचा है. वह मुंबई से दूर गोवा में छोटे से रेस्टोरेंट कारोबारी के रूप में एक गुमनाम सी जिंदगी बसर कर रहा है.

वहां उसकी मुलाकात एक तलाकशुदा महिला अनिता से होती है जो अपने बेटे के साथ अकेली रहती है. किशन को अतीत के अंधेरे से निकालने में उसकी बड़ी भूमिका बनती है. किशन एक नई जिंदगी शुरु करना चाहता है मगर उसका अतीत पीछा नहीं छोड़ता है.

जल्दी ही उसे पता लगता है कि न सिर्फ अन्ना के करीबी बल्कि अन्ना का दुश्मन मूसा के आदमी उसे खत्म करना चाहते हैं. वे उसे खोज निकालते हैं और जिंदगी-मौत की इस नई जद्दोजेहद में किशन का सामना एक भयानक सच्चाई से होता है.

आग में झुलसा अन्ना मरा नहीं जीवित था. वह खुद अपनी जान बचाने के लिए भाग रहा था. उसके साथियों ने पूरे कारोबार पर कब्जा कर लिया था और अब वे अन्ना को मारने के लिए ढूंढ़ रहे हैं. किशन के सामने एक राह निकलती है कोमल, शांत और उम्मीदों से भरे जीवन की और दूसरी एक अंतहीन दौड़ की जहां उसका मुकाबला प्रतिशोध की आग में जलते अन्ना और उसके साथियों से होना है…

क्यूं बने फिल्म?

यह विधु विनोद चोपड़ा का शायद आज भी सबसे बेहतरीन काम है, भारतीय थ्रिलर और अपराध फिल्मों में एक मील का पत्थर. इसमें एक डार्क इंटेंसिटी है. यह कहानी शुरु ही अधर में लटी परिस्थितियों से होती है. याद करें फिल्म में पहली बार माधुरी दीक्षित और अनिल कपूर कहां मिलते हैं? फिल्म का आरंभ ही एक तनाव भरी परिस्थिति से होता है. यह शैली अपने में कहानी के विस्तार की संभावनाएं समेटे हुए है. परिंदा हमारी दुनिया के समानांतर जैसे एक अलग दुनिया रचती है. उस दुनिया के भीतर जाना, वहां की कहानियों को सुनने का एक अलग ही रोमांच है.

रोबोट

संभावित प्लॉट
अपने भीतर लगी रेड-चिप के चलते भारी तबाही मचाने के कारण अदालत रोबोट चिट्टी को मानवजाति के लिए खतरा मानती है और उसे डिसएबल करने का आदेश देती है. चिट्टी कई बरसों से एक म्यूजियम का हिस्सा है. वह देखने में भले निष्क्रिय हो, उसका मस्तिष्क सक्रिय है और वह वायरलेस माध्यमों के सहारे से नई टेक्नोलॉजी से खुद को लगातार अपडेट करता रहता है.

एक दिन चिट्टी को एक ऐसी घटना का पता लगता है, जो मानवजाति के लिए एक बड़ा खतरा बनने जा रहा है. दरअसल यह सुदूर अंतरिक्ष से आ रहे एक सिगनल हैं, वैज्ञानिक अभी इस पहेली को सुलझा ही रहे होते हैं कि चिट्टी उन्हें डिकोड कर लेता है.

रोबोट का मानना है कि इन सिगनल्स से ये साफ है कि उनके इरादों में कहीं भी मित्रता का अंश नहीं है, वे पुराने समुद्री डाकुओं की तरह एक के बाद एक उन ग्रहों की खोजते और उन पर फतेह करते आ रहे हैं, जहां जीवन की संभावनाएं हैं. उसकी बात पर कोई यकीन नहीं करता है. चिट्टी के पास एक ही रास्ता है कि वह कानून और अपने रचयिता डा.वशीकरण को दिए वचन को तोड़कर दोबारा सक्रिय हो. वह डा.वशीकरण से बात करता है मगर वे इसके लिए राजी नहीं होते.

एक सुबह धरती का नजारा बदला हुआ दिखता है. तबाही शुरु हो चुकी है. चिट्टी खुद को म्यूजियम से आजाद करता है. शत्रुओं से लड़ने के लिए सबसे पहले उसे खुद को अपग्रेड करना है, वहीं शत्रु उसकी ताकत को भांप चुके और इस तरह एक तेज रफ्तार दौड़ शुरु हो जाती है दुनिया को बचाने की…

क्यूं बने फिल्म?

रोबोट भारत के गिने-चुने साइंस फिक्शंन्स में शायद सबसे बेहतर है. यह फिल्म मनोरंजन के साथ ही एक संवेदनशील मानवीय विषय को भी छूती है. फिल्म में चिट्टी नामक रोबोट बने रजनीकांत के चरित्र में विस्तार की अपार संभावनाएं हैं. उसमें वह गहराई है जो उसे सिक्वेल या सिरीज के लिए उपयुक्त बनाती है. भारत के अन्य सुपर हीरो की तरह वह बनावटी नहीं है. अपने यहां ज्यादातर फिल्मों में सुपरहीरो के मैनेरिज्म, पोशाक या उसके एक्शन पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है, उसके किरदार पर नहीं. बैटमैन जैसी गहराई ढूंढ़ना तो बहुत दूर की बात है. यह रजनीकांत की खूबी है कि वे इन कमियों से पार पाते हुए खुद को एक दिलचस्प देसी किरदार में ढाल सके हैं.

मनोरमा सिक्स फीट अंडर

संभावित प्लॉट
सत्यवीर सिंह रंधावा (जी हां, यही नाम था इस फिल्म के जूनियर इंजीनियर का जो शौकिया जासूसी नॉवेल भी लिखता था) उसी छोटे शहर की हलचल से रहित दुनिया में मगन है. इस बीच उसकी जिंदगी में थोड़ा बदलाव आया है, घर में एक नन्हीं बच्ची का आगमन हुआ है, और उसकी पत्नी निम्मी पहले के मुकाबले बच्चों में ज्यादा मशगूल है.

सत्यवीर के सामने दूसरी तरह के दबाव हैं. प्रकाशक अब उस पर दबाव डालने लगे हैं. पिछली किताबों की सेल कम हुई है. वहीं कुछ दूसरे लेखकों की खराब किताबें भी काफी बिकी हैं. इसी बीच एक दिन चाय की दुकान पर एक अनजान व्यक्ति बातों-बातों में सत्यवीर को अगले उपन्यास का प्लॉट दे जाता है. सत्यवीर फटाफट उपन्यास लिख देता है. उपन्यास न सिर्फ बिकता है कि बल्कि लंबे समय बात उसके पास पाठकों के पत्र आने शुरु हो जाते हैं.

मामला उस वक्त अचानक एक रहस्यमय करवट लेता है जब उसे यह पता लगता है कि एक हत्या की साजिश को आधार बनाकर उपन्यास में लिखी घटनाएं हू-ब-हू वहां से अस्सी किलोमीटर दूर बसे एक कसबे में हुई घटना से मेल खा रही हैं। सत्यवीर को यह बात पता लगती है तो वह हैरान रह जाता है। राज का पता लगाने के लिए वह उस कसबे जाता है, मगर उसे यह नहीं पता होता है कि ऐसा करके वह अपनी जिंदगी के लिए सबसे बड़ा खतरा मोल लेने जा रहा है।

क्यूं बने फिल्म?

मनोरमा सिक्स फीट अंडर पश्चिम की नॉयर सिनेमा शैली में एक अद्भुत फिल्म है और कई मायनों में मौलिक भी. इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी है कि इसका परिवेश और नायक का चरित्र चित्रण. इसमें अपार संभावनाएं हैं आगे की कथा बुनने की. यह अपने में शैली या जॅनर की तरह काम कर सकता है.

पुनश्चयः क्या बोले नवदीप…

क्या कृष्ण हैं भारतीय नायक?

जहां हर बालक इक मोहन है, और राधा इक-इक बाला…
सिकन्दर-ए-आज़म (1965) में राजेन्द्र कृष्ण का लिखा गीत


भारतीय नायक की आर्किटाइपल छवि क्या है? पश्चिम में यह ग्रीक मिथकों और बाइबिल की महागाथा से ओतप्रोत है. वहां मनुष्य और प्राकृतिक शक्तियों के बीच संघर्ष ज्यादा गहरा होकर उभरता है. इसके उलट भारतीय समाज लंबे समय से नायकों की पूजा करता चला आ रहा है. हमारे पौराणिक आख्यानों में नायकों की एक लंबी श्रृंखला है. मगर जो दो अहम नायक भारतीय जीवन में रचे बसे हैं वो हैं राम और कृष्ण. ये दो नाम ही चुनने के पीछे खास वजहें हैं, एक तो अन्य देवी-देवताओं के मुकाबले ये ज्यादा मानवीय हैं, इन्होंने एक आम मनुष्य के अवतार में जन्म से मृत्यु तक का एक पूरा सफर या पौराणिक शब्दावली का सहारा लें तो लीला रची (दिलचस्प है कि यह ‘लीला’ शब्द हमारे नाट्य या सिनेमा के काफी करीब बैठता है); दूसरे इन नायकों का जीवन, घटनाएं और मूल्य हमारे रोजमर्रा के जीवन में जब-तब उदाहरण बनते हैं.


भारतीय सिनेमा का नायक आम तौर पर राम और कृष्ण की छवि को ही खुद में समाहित करता है. राम यानी जिम्मेदार, मूल्यों पर यकीन करने वाला, सभी को साथ लेकर चलने वाला, सहनशील और उदार नायक. कृष्ण यानी पहली सतह पर चंचल, दिलफेंक, चीजों के प्रति अगंभीर रवैये वाला मगर दूसरी सतह पर बेहद शार्प और मौका आने पर चमत्कारिक तरीके से नतीजे देने वाला नायक. भारतीय नायक के ये दोनों चेहरे समानांतर रूप से भारतीय सिनेमा में मौजूद रहे हैं. भारतीय सिनेमा का आरंभ राम की नायकत्व वाली छवि के साथ होता नजर आता है. कृष्ण की चंचल छवि सहनायक के रूप में सामने आती है. धीरे-धीरे इस चंचल, गतिमान, शार्प नायक ने यह साबित कर दिया हमारे इस जटिल समय के नायक की जड़ें कृष्ण में भी खुद को तलाशती हैं.


कृष्ण भारतीय नायक की छवि पर कितना सटीक बैठते हैं इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है सुभाष घई ने अपनी फिल्म हीरो के नायक का नाम ही किशन रखा और बंसी हमेशा उसके हाथों में. कृष्ण के जीवन में भारतीय नायक को गढ़ने वाले तमाम तत्व पर्याप्त रूप से उपस्थित हैं. रोमांस, खिलंदड़ापन, योद्धा और अंततः एक जीवन दर्शन लेकर सामने आने वाला शख्स. यह एक मल्टीडाइमेंशनल पर्सनैलिटी है. यह हर रिश्ते को बड़ी गहराई से उभारता है. मां के रिश्ते में यह यशोदा और देवकी के बीच का कान्फ्लिक्ट लेकर आता है. जिसे बाद में हम मुख्यधारा की कई फिल्मों में देखते हैं. भाई-भाई के तौर पर कृष्ण-बलराम की जोड़ी ने खूब रंग खिलाए हैं. कृष्ण के जीवन में प्रेम और मित्रता के रंग भी काफी गहरे हैं. इसमें बिछोह भी है, शरारत भी है और त्याग भी. राधा और द्रौपदी से उनका मित्रवत संवाद उनके व्यक्तित्व को नया आयाम देता है. सुदामा और कृष्ण का प्रसंग भी दोस्ती के कुछ उदाहरणों में शामिल है. आगे कृष्ण और अर्जुन की दोस्ती अलग तरीके से सामने आती है, वे दोस्त के साथ मार्गदर्शक बनकर भी उभरते हैं.


कई बार कृष्ण ने छल का सहारा तो लिया मगर बड़े हितों को ध्यान में रखते हुए. उन्होंने सिर्फ मूल्यों का अनुसरण करने की बजाय उनका अवमूल्यन करने वालों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया. उन्होंने लचीला रुख अपनाया और मौके के मुताबिक अपनी रणनीति बदली. भलाई और बुराई के बीच संघर्ष में हमेशा कृष्ण उभरते हैं. याद करें राजीव राय की फिल्म युद्ध में यह पंक्ति तीन बार दोहराई जाती है, वह भी सबसे अहम प्रसंगों में- “डंके की चोट पड़ी है/ सामने मौत खड़ी है/ कृष्ण ने कहा अर्जुन से/ न प्यार जता दुश्मन से/ युद्ध कर”.  फिल्मों में कठिन निर्णय के दौर में अक्सर युद्धभूमि पर अर्जुन को उपदेश देते कृष्ण की तस्वीर सामने आती है. कृष्ण दुविधा और आत्मसंघर्ष के क्षणों को भी सामने लाते हैं. मगर यह पश्चिमी मन की दुविधा नहीं है, जो हैमलेट के रूप में सामने आती है, यह दुविधा से उबरकर संघर्ष तक ले जाती है.

तो आपका क्या मानना है, कृष्ण ही हैं हमारे नायक?  वैसे कुछ और पौराणिक नायकों का इस दृष्टि से विश्लेषण दिलचस्प रहेगा.

 

ए स्टूपिड कॉमन मैन…

एक नजर इंडिया के आम आदमी की आइकोनिक इमेज वाली पांच फिल्मों पर
आक्रोश (1980)
आम आदमी का गुस्सा एक कभी न खत्म होने वाली चुप्पी बन सकता है. गोविंद निहलानी की पहली फिल्म आक्रोश में ओम पुरी ने इसका एहसास कराया. विजय तेंडुलकर की लेखनी, निहलानी का डायरेक्शन और नसीर, स्मिता और ओम पुरी की शानदार एक्टिंग इसका दर्जा वर्ल्ड की ग्रेट मूवीज तक पहुंचा देती हैं. पूरी फिल्म में उनकी आंखें बोलती रहीं और उनकी खामोशी ने न सिर्फ एडवोकेट भास्कर कुलकर्णी बने नसीरुद्दीन शाह को बल्कि दर्शकों को भी बेचैन कर दिया. एक रेप केस को खोलने की जद्दोजहद में यह फिल्म पूरे सिस्टम पर सवाल खड़े करना शुरु कर देती है. फिल्म रिलीज हुई तो इसने देश भर में एक बहस छेड़ दी.

जाने भी दो यारों (1983)
कई साल पहले आई इस फिल्म का जादू आज भी बरकरार है. नसीरुद्दीन शाह और रवि वासवानी दरअसल फिल्म में उसी तरह से ठगे जाते हैं, जैसे रीयल में लाइफ कॉमन मैन इस पूरे सिस्टम के हाथों छला जाता है. इसके बावजूद उनकी उम्मीद खत्म नहीं होती, हम होंगे कामयाब… गीत गुनगुनाते हुए वे अपनी हार पर भी हंसते हैं. इस फिल्म में जबरदस्त सटायर होने के वावजूद इसके डायरेक्टर कुंदन शाह ने कहीं बिटरनेस नहीं आने दी और फिल्म का मिजाज हल्का-फुल्का रखा. फिल्म की स्क्रिप्ट ये साली जिंदगी के डायरेक्टर सुधीर मिश्र ने लिखी थी, दिलचस्प बात यह है कि फिल्म में रवि वासवानी के कैरेक्टर का नाम भी सुधीर मिश्र था.

मैं आजाद हूं (1989)
इतने बाजू इतने सर गिन ले दुश्मन ध्यान से, हारेगा तू हर बाज़ी जब खेलें हम जी-जान से. पूरी फिल्म में कैफी आज़मी का लिखा यही एक गीत बजता रहता है. अभिताभ को छोड़कर इस फिल्म में अधिकतर एक्टर थिएटर या नॉन कॉमर्शियल सिनेमा से थे. चाहे रघुवीर यादव हों या मनोहर सिंह या रामगोपाल बजाज. हॉलीवुड की फिल्म मीट जॉन डो से इंस्पायर्ड इस फिल्म में आम आदमी मीडिया छल में फंसकर सुसाइड करने पर मजबूर कर दिया जाता है. मगर उसकी इच्छाशक्ति मौत के बाद तमाम लोगों की आवाज बन जाती है. टीनू आनंद ने अपने फिल्म कॅरियर में एक बिल्कुल अलग फिल्म बनाई.

ए वेडनेसडे (2008)
मैं वो हूं जो आज बस और ट्रेन में चढ़ने से डरता है, मैं वो हूं जो काम पर जाता है तो उसकी बीवी को लगता है वह ज़ंग पर जा रहा है. मैं वो हूं जो कभी बरसात में फंसता है कभी ब्लास्ट में. झगड़ा किसी का भी हो, बेवजह मरता मैं ही हूं. भीड़ तो देखी होगी आपने? भीड़ में से कोई भी शक्ल ले लीजिए, वह मैं हूं. ए स्टूपिड! ए स्टूपिड कॉमन मैन… यह नसीरुद्दीन शाह का आखिरी लंबा डायलाग था और शायद आज के दौर में आम आदमी की सबसे बेहतरीन परिभाषा. डायरेक्टर नीरज पांडेय की पहली फिल्म जबरदस्त हिट हुई और लोगों के दिल को भी छुआ.

पीपली लाइव (2010)
नत्था अवश्य मरेगा… टीवी चैनल पर लोग जोर-शोर से कहते हैं. मगर नत्था मरना नहीं चाहता. उसे समझ में नहीं आता कि उसे चारो तरफ कौन सा मीडिया और पॉलीटिक्स का ड्रामा चल रहा है. पीपली लाइव की पॉपुलैरिटी के पीछे शायद यही वजह थी. फिल्म बताती है कि आम आदमी के बहाने सभी अपना हित साधना चाहते हैं. फिल्म की डायरेक्टर अनुष्का रिज़वी ने रीयल लाइफ का टच देकर एक ड्रामा क्रिएट किया और अद्भुत फिल्म बनाई. फिल्म का क्लाइमेक्स बहुत ही सिंबालिक है, जब मीडिया में छाया नत्था देखते-देखते महानगर की गुमनाम भीड़ का हिस्सा बन जाता है.

और अंत में
बातें करने को इतना तरस गया था कि सोचा थोड़ी सी पीकर अपने आप से कुछ कहूंगा….
ज़िंदगी भी इक नशा है दोस्त… जब चढ़ता है तो पूछो मत क्या आलम होता है… लेकिन जब उतरता है…

फिल्म गाइड (1965) में राजू (देव आनंद)

मैं इस दुनिया की कहानी कहता हूं: राजकुमार गुप्ता


उनकी फिल्म ‘आमिर’ ने पहली बार मेरा ध्यान खींचा था. अपने अलग तरह के प्रोमो के कारण. बाद में मैंने यह फिल्म देखी. जिस बात ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह था रियलिस्टिक ट्रीटमेंट और कसी हुई स्क्रिप्ट. इससे भी बढ़कर यह कि इसे देखकर इससे मिलती-जुलती किसी और फिल्म की याद नहीं आती थी. राजकुमार गुप्ता की फिल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ को भी आलोचकों से खूब सराहना मिल रही है. फिल्म रिलीज होने से कुछ दिनों पहले यह बातचीत हुई थी. हालांकि बातचीत का संदर्भ उनकी आने वाली फिल्म थी, मगर इससे बतौर फिल्ममेकर राजकुमार के कन्सर्न भी पता लगते हैं.

‘आमिर’ के बाद आप मोस्ट प्रॉमिसिंग डायरेक्टर बन गए, अपनी अगली फिल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ के बारे में बताएं?
मेरी फिल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ रीयल इंसिडेंट्स से प्रेरित है. मैंने उसे एक एंटरटेनिंग थ्रिलर बनाने की कोशिश की है. मैं आम तौर पर इस दुनिया की कहानी कहता हूं. यानी वह दुनिया जो मैं अपने आसपास देखता हूं.अपने आसपास की इसी घटना ने आपको क्यों इंस्पायर किया?
आम तौर पर मेरी दिलचस्पी वास्तविक घटनाओं के ड्रामेटिक इंटरप्रिटेशन में रहती है. इस घटना में मेरी दिलचस्पी लंबे समय से थी. मैं लगातार इसके बारे में पढ़ता-सुनता और डिस्कस करता रहा. इस इश्यू के चलते पूरे देश में विरोध की एक आवाज पैदा हुई. इस बात ने मुझे सबसे ज्यादा फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया.

आज के समय में लीक से हटकर सब्जेक्ट पर फिल्म बनाना कितना मुश्किल या आसान है?
दोनों ही बातें हैं. यह मुश्किल भी है आसान भी. मेरी पहली फिल्म ‘आमिर’ को आलोचकों ने तो सराहा ही, मगर उसे कामर्शियल सक्सेस भी मिली. छोटे बजट की फिल्म में कहानी और सब्जेक्ट बहुत इंपार्टेंट हो जाता है. यह सच है कि फिल्म मेकिंग पर बिजनेस का बहुत ज्यादा प्रेशर होता है. हमें उसके बीच से ही अपने लिए रास्ता बनाना होता है.

रीयल लाइफ से इंस्पायर्ड कहानियों पर फिल्में बनाना कितना रिस्की है?
यह सच है कि मैंने इस फिल्म के रेफरेंस प्वाइंट सच्ची घटनाओं से लिए हैं मगर यह मेरा इंटरप्रिटेशन है. मैंने अपनी बात को सिनेमा के दायरे में रहकर कहने की कोशिश की है.

अक्सर फिल्मों को लेकर कोई न कोई कंट्रोवर्सी क्रिएट होती रहती है, ‘नो वन किल्ड जेसिका’ के लिए आप कितना तैयार हैं?
आपको पता है कि कंट्रोवर्सी किसी भी चीज को लेकर हो सकती है, चाहे फिल्म की थीम हो, कहानी, कोई सीन या गाने को कुछ बोल भर. इस लिए मुझे इसकी ज्यादा परवाह नहीं है. मेरे लिए चैलेंज इस बात का है कि फिल्म किस तरीके से लिखी जाए कि वह एक थ्रिलर के फारमेट में होते हुए भी सब्जेक्ट की सेंसिबिलिटी बरकरार रखे.

प्रलय की कहानियां


सिनेमा में तबाही की अवधारणा बाकायदा फिल्म मेकिंग की एक धारा के रूप में डेवलप हो चुकी है, जिनमें दुनिया के अंत या बुरे भविष्य की आशंकाओं के आसपास कहानी बुनी जाती है.
चाहे भारत में जबरदस्त सफल रही हॉलीवुड की ‘2012’ हो, या हाल में आई ‘स्काईलाइन’ या कुछ बरस पहले धूमकेतु के धरती से टकराने का अंदेशा लेकर बनी ‘डीप इंपैक्ट’. मनुष्य को बुरे भविष्य की कल्पना हमेशा सताती रहती है. इस तरह की फिल्में सिनेमा के जन्म साथ ही बननी शुरु हो गई थीं. भारत में ऐसी फिल्मों का चलन भले न हो मगर शेखर कपूर भविष्य पर आधारित अपनी फिल्म ‘पानी’ लेकर आ रहे हैं, जिसमें दिखाया जाएगा कि आने वाले समय में पानी जैसी बुनियादी जरूरत पर भी प्रभावशाली लोगों का कब्जा होगा.अगर गौर करें तो प्रलय की कहानियां लगभग हर सिविलाइजेशन की माइथोलॉजी में सुनने-पढ़ने को मिलती हैं. दिलचस्प बात यह है कि यह पॉपुलर कल्चर का भी अहम हिस्सा है. सिनेमा में तो तबाही की अवधारणा बाकायदा फिल्म मेकिंग की एक धारा के रूप में डेवलप हो चुकी है, जिनमें दुनिया के अंत या बुरे भविष्य की आशंकाओं के आसपास कहानी बुनी जाती है. इनमें पोस्ट-अपाकलिप्टिक और डिस्टोपियन सिनेमा मुख्य रूप से सामने आते हैं.

डिस्टोपियन सिनेमा को एंटी-यूटोपियन सिनेमा भी कहते हैं. यह एक कठिन समय की अवधारणा को लेकर चलता है. आम तौर पर यह एक ऐसे भविष्य की कल्पना होती है, जहां मानव सभ्यता एक मुश्किल दौर से गुजर रही होती है. मौजूदा वक्त की आशंकाएं या बुराइयां अपने चरम रूप में नजर जाती हैं. ये आशंकाएं कुछ भी हो सकती हैं, नाभिकीय युद्ध, प्रदूषण की इंतहा, राजनीतिक तानाशाही या समाज में पनप रही हिंसा. साहित्य में हम जार्ज आरवेल के उपन्यास ‘1984’ और ’द एनीमल फार्म’ तथा चेक लेखक कैरेल चैपेक के नाटक ‘आरयूआर’ में डिस्टोपियन भविष्य की झलक देख सकते हैं.

कई बरस पहले आई रिडले स्कॉट की फिल्म ‘ब्लेड रनर’ में 2016 का लॉस एजेंल्स दिखाया गया है, जब शहर में असाधारण रूप से जनसंख्या बढ़ चुकी है, मौसम अक्सर खराब रहता है और शहर में जबरदस्त प्रदूषण है. वहीं पोलिटिकल डिस्टोपिया में उस वक्त की कल्पना होती है जब राजनीतिक ताकतें मनुष्य की निजी जिंदगी पर नियंत्रण करना शुरु कर देती हैं अथवा उनकी बुनियादी जरूरतों या सूचना हासिल करने के अधिकार पर सत्ता का नियंत्रण हो जाता है. इस तरह की फिल्मों में एलन मूर के ग्राफिक नॉवेल पर बनी वाचोव्स्की ब्रदर्स की फिल्म ‘वी फॉर वेंडेटा’ खास तौर पर उल्लेखनीय है. इसके अलावा इस तरह की फिल्मों में ’चिल्ड्रेन आर मेन’, ’क्लास आफ 1999’, ’कोड 46’ और 2009 में आई ‘डिस्ट्रिक्ट 9’ का नाम भी लिया जा सकता है.

डिस्टोपियन फिल्मों में अक्सर राजनीतिक सोच काफी स्पष्ट तौर पर सामने आती है। उदाहरण के तौर पर ‘वी फार वेंडेटा’ में निकट भविष्य के ब्रिटेन में विकसित हुई राजनीतिक तानाशाही को दिखाया गया है, जिसके खिलाफ एक व्यक्ति मध्यकालीन नायक का मुखौटा लगाकर क्रांति नायक की तरह काम करता है. ठीक इसी तरह से ‘डिस्ट्रिक्ट 9’ एलियंस के बहाने मनुष्य की तानाशाही प्रवृतियों की पड़ताल करती है. इस फिल्म में एक ऐसे भविष्य की कहानी है, जहां एलियंस धरती पर ही मनुष्यों के साथ रहते हैं, मगर उनके जीने की स्थितियां बहुत ही कठिन होती हैं.

डिस्टोपियन भविष्य को प्रस्तुत करने के तरीके भी अलग-अलग हो सकते हैं. इनमें एक ‘वैकल्पिक भविष्य’ की थ्योरी है, जिसके तहत एक ऐसे वर्तमान अथवा भविष्य की कल्पना की जाती है, जो दरअसल में इतिहास में हुई कुछ उथल-पुथल के चलते घटनाओं के बदले क्रम का नतीजा है. इसका सबसे दिलचस्प उदाहरण एलन मूर के ग्राफिक नावेल पर बनी फिलम ‘वॉचमैन’ है। जिसमें नब्बे के दशक में शीतयुद्ध को खत्म होता दिखाने की बजाय उसे चरम पर दिखाया गया है. आम तौर पर इन फिल्मों में किसी ऐतिहासिक घटना में हुए बदलाव के आधार पर भविष्य की कल्पना की जाती है. जहां से स्थितियां बदलती हैं, उसे ‘प्वाइंट आफ डाइवर्जन’ कहते हैं.

डिस्टोपियन फिल्मों की सीरीज में पोस्ट-अपाकलिप्टिक फिल्मों को भी रखा जाता है. जिनमें किसी तबाही के बाद की सामाजिक स्थितियों का चित्रण होता है. हॉलीवुड में ऐसी फिल्में काफी लोकप्रिय हुई हैं और कई बेहतरीन कहानियां सामने आई हैं. इस तरह की फिल्मों में ‘9’, ’12 मंकीज़’, ‘आय एम लीजेंड’, ‘मैड मैक्स’ व उसकी सिरीज़, तथा ‘वाले-ई’ जैसी फिल्मों में नाम लिया जा सकता है. यहां सवाल उठ सकता है कि ऐसा क्यों है कि बुरे सपने जैसा भविष्य दिखाने वाली फिल्में लोगों के बीच इतनी लोकप्रिय क्यों हैं? दरअसल ये फिल्में पॉपुलर कल्चर का इस्तेमाल करते हुए सोसाइटी में एक अलर्ट पैदा करती हैं. ये कहानियां सोसाइटी में पनप रही उन बुराइयों की लैब टेस्टिंग की तरह हैं, जिन्हें अक्सर हम अनदेखा करते जाते हैं.

पूरब और पश्चिम


हाल में क्रुक देखते हुए यह ख्याल आया कि हमारी फिल्मों में विदेशी चरित्रों को पेश करने का तरीका कितना सतही है. क्रुक आस्ट्रेलिया में नस्लवाद की समस्या की तह तक जाने का दावा करती है, मगर वहां के चरित्रों को ही विश्वसनीय तरीके से नहीं पेश कर पाती. फिल्म की एक अहम किरदार, आस्ट्रेलियन युवती निकोल का चरित्र भी उससे अलग नहीं. यह कैरेक्टर इतना फ्लैट है कि सत्तर के दशक की वैंप का चरित्र-चित्रण उनसे ज्यादा डेप्थ वाला लगता है. निकोल रात को अकेली गाड़ी चलती है, स्ट्रिपीज क्लब में डांस करती है, किसी के साथ हमबिस्तर होने में उसे कोई हिचक नहीं है. उसका फिल्म के नायक से कोई लगाव नहीं है मगर वक्त पड़ने पर वह ईर्ष्या का खेल भी रचती है.कमोवेश हर गोरी लड़की के बारे में हमारे फिल्मकारों का यह सामान्य नजरिया है. इन दिनों निर्देशकों की दिलचस्पी उनमें सिर्फ इतनी होती है कि वे सेंसर के दायरे में किसी तरह उन्हें टॉपलेस शूट कर लें (याद करें, क्रुक में निकोल बनी शेला- जिसे बेवजह खिड़की तरफ चेहरा करके टी-शर्ट बदलनी पड़ती है, किसना में कैथरीन बनी एंतोनियो बर्नार्थ- जिसे राजकपूर की फिल्मों की तरह पारदर्शी गीले कपड़े पहनकर नदी से निकलना पड़ता है और काइट्स की नताशा यानी बारबरा मोरी- जिसका अंतर्राष्ट्रीय संस्करण शायद ज्यादा हॉट होगा).

हैरत की बात यह है कि बड़े निर्देशकों ने भी कभी इन कैरेक्टर्स की सोशल-कल्चरल डाइमेंशंस को जानने का प्रयास नहीं किया. क्या मेरा नाम जोकर की मारीना के चरित्र में इतनी गहराई थी, जितनी पद्ममिनी या सिमी ग्रेवाल के चरित्र में दिखती है? मनोज कुमार ने पूरब और पश्चिम जैसी फिल्मों के जरिए भारतीय सभ्यता को बेहतर बताने के लिए अपनी फिल्मों में पश्चिमी सभ्यता का मजाक बनाना और उनकी आलोचना शुरु कर दी. उनकी फिल्मों में विदेशी लोग अहंकारी, स्वार्थी, सिर्फ भौतिकता के पीछे भागने वाले दिखाए जाते थे. इन फिल्मों ने विदेशी चरित्रों को प्रस्तुत करने का एक टाइप बना लिया. हैरत होती है कि बीबी कारंत और गिरीश करनाड की गोधुलि में भी एक विदेशी लड़की का चरित्र कोई नया आयाम लेकर नहीं आता. मनोज कुमार की छवियां नमस्ते लंदन तक में थोड़े उत्कृष्ट रूप में देखी जा सकती हैं, जहां पश्चिम के बरक्स भारतीयों की ग्लोबल छवि को प्रस्तुत किया गया था.


हिन्दी फिल्मों में विदेशियों को प्रस्तुत करने का थोड़ा और हास्यास्पद टाइप तलाशें तो कुछ सेट फार्मुले सामने आएंगे. जापानी लोग हमेशा किसी बड़ी साजिश में हिस्सेदारी के लिए पर्दे पर नजर आते हैं. वे अक्सर सूट पहने होते हैं और उन्हें सिर्फ अपने पैसे के बदले मिलने वाली सर्विस से मतलब होता है. भारत-चीन युद्ध के बाद सत्तर के दशक में भारतीय पल्प फिक्शन में चीनी सबसे बड़े खलनायक बनकर उभरे थे. चीनी आम तौर पर सेना के कमांडर या चीनी सिक्रेट सर्विस के दिखाए जाते हैं. भारत में पले-बढ़े प्रबुद्ध विदेशियों बॉब क्रिस्टो और टॉम आल्टर ने भी इसी तरह के न जाने कितने फ्लैट किरदार निभाए. जबकि उनके अभिनय और संवेदनशीलता का बेहतर इस्तेमाल हो सकता था.

उम्मीद के विपरीत कई बार कुछ बेहतर काम भी सामने आ जाते हैं. कृष्णा शाह की फिल्म शॉलीमार में तीन अहम विदेशी किरदार थे. जॉन सेक्सन- जिन्हें ब्रुस ली के साथ एंटर द ड्रैगन में भी देखा जा सकता है, रेक्स हैरिसन और सिल्विया माइल्स. रेक्स हैरिसन फिल्म के मुख्य खलनायक थे और उनकी अदाकारी स्तब्ध कर देने वाली थी. हां, सिल्विया माइल्स फिर से उसी टाइप्ट पश्चिमी औरत के किरदार में थीं, जो अपनी सेक्सुअलिटी का इस्तेमाल सफलता के लिए करती है और किसी के प्रति उसकी वफादारी नहीं होती. पिछले कुछ अर्से में आई फिल्मों में रंग दे बसंती की एलिस पैटन ने शायद एकमात्र वास्तविकता के करीब का किरदार निभाया था. सू के रोल में एलिस ने मौजूदा भारतीय हकीकत का एक पश्चिमी मानसिकता के साथ टकराव खूबसूरती से दर्शाया था.


कहने को तो लगान की रिचेल का नाम भी लिया जा सकता है, पर मेरा मानना है कि रिचेल का रोल भी एक खास टाइप है. इसमें भी डेप्थ की ज्यादा गुंजाइश नहीं थी. यह दरअसल वो रोल है जिसे पाले खां में फराह खान, किसना में एंतोनियों बर्नार्थ और लगान में रिचेल ने निभाया. एक ब्रिटिश युवती जो संवेदनशील है और जिसे भारतीयों के साथ सहानुभूति है. हमारे फिल्मकारों ने इसमें ज्यादा डाइमेंशन खोजने की जहमत नहीं उठाई. लिहाजा चाहे पाले खां की फराह हो या लगान की रिचेल सभी एक-सी लगती हैं.

वैसे कभी यह समझना दिलचस्प हो सकता है कि विदेशी फिल्मों में भारतीय किरदारों के कितने और कैसे ‘टाइप’ मिलते हैं?