विक्रमादित्य मोटवानी इसलिए जिक्र करने लायक निर्देशक हैं क्योंकि उनकी फिल्मों में हड़बड़ी नहीं है। न तो जल्दी-जल्दी कहानी कहने की, न खुद को इंटैलेक्चुअल बताने की और न ही बेवजह एक भव्य फिल्म बनाने की। उनका कैमरा उतना ही और उन्हीं चीजों को दिखाता है, जिसकी कहानी कहने में जरूरत है और तब हमें अहसास होता है कि दरअसल सबसे जरूरी बातें तो यही थीं, और तब हर एक घटना का मतलब साफ होता चला जाता है। चाहे वह ‘लुटेरा’ फिल्म में सादे कैनवस पर उकेरी गई बदरंग पत्तियां हों या ‘उड़ान’ में हर सुबह पिता के साथ दौड़ लगाता और थककर हांफता किशोर।
विक्रमादित्य मोटवानी पर आगे चर्चा करने से पहले हम उस परिदृश्य पर भी एक नजर डालते हैं, जिसके बीच उनकी रचनात्मकता का मूल्यांकन होना है। बीते एक दशक में हिन्दी सिनेमा काफी बदल चुका है। इसकी बड़ी वजह फिल्मों के वितरण और बाजार में आया बदलाव है। सिनेमा में लोकेशन का महत्व, तकनीकी चकाचौंध और प्रोडक्शन की गुणवत्ता बढ़ी है, मगर इसके साथ ही कहानी लयबद्धता कहीं खो गई है। फिल्म को मीडिया के बीच चर्चा लायक बनाने और बाजार में टिकाए रखने का दबाव उनकी रचनात्मकता पर साफ नजर आता है। विक्रमादित्य मोटवानी अपनी दो फिल्मों के जरिए इसी लय के प्रति हमें आश्वस्त करते हैं। कि यह लय धुंधली भले ही पड़ गई हो मगर खत्म नहीं हुई है। मोटवानी शायद इसे इसलिए भी संभव कर पाते हैं क्योंकि उन्होंने अपनी रचनात्मकता को सामने लाने से पहले सिनेमा को गढ़ने में कई तरह की भूमिकाएँ निभाई हैं। दो शार्ट फिल्मों का निर्देशन, ‘पांच’ और ‘देवदास’ के साउंड डिपार्टमेंट से जुड़ना, ‘वाटर’ फिल्म के छायांकन और ‘पांच’ के संगीत में दखलंजादी बताती है कि मोटवानी की दिलचस्पी विभिन्न विधाओं में है और उसके संतुलन से वे एक बेहतर कहानी बुन सकते हैं।
सन् 1953 की पृष्ठभूमि पर बुनी गई ‘लुटेरा’ की प्रेम कहानी को हम किसी संगीत रचना की तरह महसूस कर सकते हैं। किताबों की शौकीन पाखी (सोनाक्षी सिनहा) के जीवन में वृद्ध होते जमींदार पिता के प्रति चिंताओं और अस्थमा के अटैक के बीच एक खूबसूरत नौजवान (रणवीर सिंह) दाखिल होता है। वरुण नाम का यह युवक खुद को एक आर्कियोलॉजिस्ट बताता है और अपने विनम्र स्वभाव के चलते जमींदार के घर में ही मेहमान बन जाता है। पाखी और वरुण के बीच शुरुआती शरारतों और चुहलबाजियों का दौर जल्दी ही नज़दीकियों में तब्दील हो जाता है। रेडियो पर बजते गीत, नागार्जुन की कविता और कैनवस पर उकेरी जा रही पत्तियों के बीच इन दोनों की नज़दीकी प्यार में बदलने लगती है। इसी बीच भारत सरकार जमींदारी प्रथा को एक कानून के जरिए खत्म कर देती है। सरकारी बाबुओं की लूट-खसोट के बीच जमींदार के मन में अपनी बेटी की शादी का उत्साह है। मगर वरुण एक आर्कियोलॉजिस्ट नहीं लुटेरा निकलता है। जमींदार के पुश्तैनी मंदिर से कीमती मूर्ति के साथ वह गायब हो जाता है।
कहानी का दूसरा हिस्सा शुरु होता है एक साल बात। यह हिस्सा एक त्रासद आर्केस्ट्रा की तरह है। पाखी के पिता गुजर चुके हैं। अतीत की कड़वी यादों के सहारे बीमार पाखी अपने अंतिम दिनों की तरफ बढ़ रही है। तभी उस शहर में एक बार फिर वरुण लौटता है। अपने असली चेहरे के साथ। दोनों आमने-सामने आते हैं मगर उनके बीच न सिर्फ एक बड़ा फासला है बल्कि एक कड़वाहट भी है। कहानी अपने अंत की तरफ बढ़ती है तो हम एक असाधारण कैमरा वर्क के बीच फिल्म को एक अनूठी परिणति तक पहुंचते देखते हैं। ‘लुटेरा’ भले ही ‘उड़ान’ जितनी बहुआयामी छवियों वाली फिल्म न हो, मगर कम संवादों वाली इस फिल्म को देखने में एक कंपोजिशन का आनंद मिलता है।
गौर करें तो अपनी तल्खी के बावजूद यह सांगीतिक संगति ‘उड़ान’ में भी थी। वह फिल्म अपने संगीत की तरह घुटन भरे जीवन से बाहर भागने की उन्मुक्तता और खुले आकाश में उड़ान को अभिव्यक्त करती थी। फिल्म में हर रोज अपने पिता के साथ दौड़ लगाते रोहन का दृश्य बार-बार आता है। दुहराव की हद तक। मगर फिल्म के अंत में जब यही किशोर अपने पिता पर तंज़ करता है और तिलमलाया पिता उस पर झपटता है तो हम बाप-बेटे को एक बार फिर दौड़ लगाते देखते हैं। मगर इस बार जिंदगी कुछ और कह रही है। बेटे के पैरों में तो मानों पंख लग गए हैं। यह उसके जीवन की निर्णायक दौड़ बन जाती है। अपने धन, सामाजिक रुतबे और शारीरिक बल पर दंभ करने वाला पिता उसके छलकते पानी जैसे निश्छल आवेग से कदम नहीं मिला पाता है। वह पीछे छूट जाता है और बेटा दौड़ता चला जाता है, वह जान लड़ाकर दौड़ता है- अपने वक्त, अपने अतीत और जिंदगी की तमाम कड़वाहटों को छोड़ता हुआ। कैमरे के किसी चमत्कृत कर देने वाले प्रभाव के बिना हम युवा नायक के साथ खुले आसमान में छलांग लगा देते हैं।
‘लुटेरा’ और ‘उड़ान’ फिल्म देखते हुए मुझे कई बार पुराने रूसी उपन्यासों की याद आई। खास तौर पर तुर्गनेव और चेखोव की। ‘लुटेरा’ देखते हुए शायद तुर्गनेव के उपन्यास मन में कौंध सकते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उनकी फिल्मों में परिवेश लगभग एक अहम किरदार की तरह मौजूद होता है। ठीक इसी तरह ‘उड़ान’ में चेखोव की उदास संवेदनशीलता बिखरी पड़ी है। फिल्म का वातावरण जैसे एक चरित्र बन जाता है। ट्रेन, सड़कें और फैक्टरियों से उठता धुआं तो सीधे तुर्गनेव की उदास शामों और छितिज के अपरिमित विस्तारवाले दृश्यों की याद दिलाता है। वहीं पात्रों के भीतर का सूनापन महसूस करते हुए कहीं मन में चेखोव कौंध जाते हैं।
जहां ‘उड़ान’ में मां की याद, निरुदेश्य से जीवन और संशय से भरे भविष्य के साथ यह सूनापन पूरी फिल्म में छाया हुआ है, ‘लुटेरा’ में यह दूसरे हिस्से में दोनों ही पात्रों पाखी और वरुण के भीतर विस्तार लेता है। इस पर गौर करना हो तो बंद अंधेरे कमरों में दोनों के बीच संवादों को याद करें। जिनमें एक गुस्सा, जिद और झुंझलाहट है। जहां प्रेम एक सतही भावाभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उन चिंगारियों की तरह है जो अतीत की राख में दबी कभी-कभार कौंध जाती हैं। पाखी को जबरदस्ती दवा का इंजेक्शन लगाने का दृश्य हो या उसे सोता हुआ छोड़कर वरुण का बाहर निकल जाना हो।
विक्रमादित्य ऐसा इसलिए संभव कर पाते हैं क्योंकि उन्होंने पर्दे पर जीवन की लय को समझ पाने के एक असाधारण कौशल को साध लिया है। तालाब के किनारे बैठे दोनों चरित्रों के बीच फुसफुसाहट में वह लय दिखती है, या फिर उस वक्त जब ‘लुटेरा’ का नायक सादे कैनवस पर बदरंग सी पत्तियां बना देता है। नायिका पाखी के साथ उसकी नादानी और कला की समझ पर हंसती हैं। मगर यह इस हँसी का मर्म आगे चलकर तब समझ में आता है जब रोज-ब-रोज गिरती बर्फ के बीच खुद से पेड़ की छाल पर बनाई गई एक पत्ती को बांधने वही नायक पेड़ पर चढ़ जाता है। एक नज़र में यह सिनेमाई कौतुक लग सकता है। मगर जब आप इस घटना को कही जा रही कहानी के अतीत और इस दौरान विकसित हो रहे चरित्रों के संदर्भों में देखते हैं तो किसी कविता की तरह उसके अर्थ खुलने लगते हैं। फिल्म के कुछ यादगार मोंताज में एक वह भी है जब पार्श्व में रेडियो पर “अपने पे भरोसा है तो ये दांव लगा ले…” गीत बज रहा होता है। अगर आप गौर करें तो इस गीत का चयन विक्रमादित्य ने अनायास ही नहीं किया है। गीत की शोखी और उसमें छिपी उदासी की परछाईं पूरी फिल्म में नजर आती है।
इंटरवल तक तो कहानी हमें यही बताती है कि हमारा नायक अपने हालातों की वजह से जीवन में पहली बार प्यार देने वाले लोगों का भी विश्वास खो देता है। बाद में यही नायक किसी के विश्वास को कायम रखने के लिए एक बनावटी पत्ती को सूखी टहनी पर टांकने के लिए चढ़ जाता है। बर्फ के तूफान के बीच यह दृश्य धोखे और हकीकत, फरेब और विश्वास, मृत्यु की आहट और जीवन के प्रति यकीन का ऐसा रूपक बन जाता है, जो हाल-फिलहाल की फिल्मों में दुर्लभ है। वरुण प्रेम के जरिए अपने-आप को पाना चाहता है और अपने अपराधी अतीत को मिटाने की कोशिश में लग जाता है। गीत की पंक्तियां इस हिस्से पर सटीक बैठती हैं- “डरता है ज़माने की निगाहों से भला क्यूँ/ निगाहों से भला क्यूँ / इनसाफ़ तेरे साथ है इलज़ाम उठा ले/ अपने पे भरोसा हैं तो ये दांव लगा ले…” मुझे याद नहीं आता कि बीते दिनों की कुछ बहुत बेहतरीन फिल्मों में से भी ऐसी कितनी हैं जिन्हें पर्त-दर-पर्त खोलने में आपकी दिलचस्पी होगी।
इसकी शायद एक बड़ी वजह यह है कि विक्रमादित्य मोटवानी की फिल्में वह नहीं बोलती जो दिखाती हैं। ठीक जिंदगी की तरह- जहां सतह में नहीं उसके परे जीवन का मर्म छिपा हुआ होता है। ‘उड़ान’ में बहुत कुछ नहीं घटित होता है। फिल्म एक छोटे से भावनात्मक सफर को प्रस्तुत करती है। हॉस्टल में रहने वाला एक लड़का जब अपने घर लौटता है तो उसके सामने टूटे हुए रिश्तों, घुटन और अपनी मां की यादों के सिवा कुछ भी नहीं होता है। ऐसे परिवार आम तौर पर नहीं मिलते हैं मगर इन अवास्तविक स्थितियों में नायक की घुटन और उसकी छटपटाहट को हम गहराई से महसूस कर पाते हैं। ठीक इसी तरह ‘लुटेरा’ के दूसरे हिस्से में नायक का एक बर्फीले पहाड़ी शहर में लौटना एक अलग कहानी की तरह है। इस हिस्से को एक छोटी मगर संपूर्ण फिल्म की तरह देखा जा सकता है। जहाँ अपनी आसन्न मृत्यु में अकेली, उदास, जिंदगी के दिनों को गिनती एक लड़की मौजूद है। जो इंतजार की उम्मीदें खत्म कर चुकी है। फिल्म के इस हिस्से में एक नीम अंधेरा है। मगर यह ‘फैशनेबल डार्क फिल्म’ नहीं है। इसमें पश्चिम से आयातित वह नैराश्य और कड़वाहट नहीं है जो हमें अनुराग कश्यप (समीक्षक क्षमा करें) समेत हाल के कई ऑफबीट फिल्म निर्देशकों के काम में दिखती है। मोटवानी उम्मीद की डोर को थामे रहते हैं, मगर एक संशय के साथ। टॉमस हॉर्डी के उपन्यासों की तरह पात्रों की नियति उनके भीतर ही छिपी होती है। घटनाओं का बेतरतीब सिलसिला उन्हें किसी अनजान भविष्य की तरफ घसीटता चला जाता है। और निराशा के इस घटाटोप में वे अचानक हमें उम्मीद की एक नन्ही सी किरण दिखाकर आगे बढ़ जाते हैं।
सिर्फ एक किरण… हमें यह कभी पता नहीं चलेगा कि ‘लुटेरा’ में बर्फीले तूफान के बाद भी सूखे पेड़ पर टंगी पत्ती पाखी की जिंदगी में कौन सा नया मोड़ लेकर आएगी। या अपने छोटे से सौतेले भाई को लेकर घर से निकला रोहन किस अनिश्चित भविष्य की तरफ जा रहा है। मोटवानी की सफलता उम्मीद की उस नन्ही किरण को दर्शकों तक पहुंचाने भर में है। इन दोनों फिल्मों का अंत हमारे जीवन में आई उन सुबहों की तरह है जब हम पूरी रात जगे और बुरी तरह से थके हुए होते हैं। मगर सुबह छितिज पर लाल रंग की आभा, हवा के ठंडे झोंके और पंक्षियों का कलरव फिर से हमारे टूटन भरे शरीर में ताजगी भर देता है। ‘उड़ान’ और ‘लुटेरा’ दोनों के क्लाइमेक्स शायद इसी वजह से हिन्दी सिनेमा के कुछ श्रेष्ठ क्लाइमेक्स में रखे जाने चाहिए।
हालांकि ऐसा नहीं है कि ‘लुटेरा’ एक त्रृटिहीन फिल्म है। उसकी काव्यात्मकता और संवेदनशील हो सकती थी और दुख के रंग और गहरे। कुछ मामलों में मोटवानी अपनी पिछली फिल्म ‘उड़ान’ से पीछे रह गए हैं। इस फिल्म का परिवेश उसे खूबसूरत तो बनाता है मगर ‘उड़ान’ के जमशेदपुर जैसा यथार्थपरक विस्तार लेकर नहीं आता। कुछ छोटे चरित्र भी उतने विश्वसनीय नहीं बन पाते जितना ‘उड़ान’ के राम कपूर। वरुण के भीतर का अंतर्द्वंद्व और उभर सकता था। और शायद गोली से घायल, बीमार और ऊंचाई से नीचे गिरने के बाद नायक की मृत्य के लिए पुलिस को गोलियां चलाने की जरूरत नहीं थी।
इसके बाद भी अगर यह एक महत्वपूर्ण फिल्म बनती है तो दरअसल कहानी के परे अंर्तनिहित मूल्यों के कारण, जिसे हमने पहले इंगित किया था। ‘लुटेरा’ फरेब और यकीन की कहानी कहती है। पूरी कहानी, चरित्र और परिस्थितियां इन दोनों शब्दों के बीच झूलते रहते हैं। इस फिल्म के नायक और नायिका दोनों ही विभाजित मनःस्थिति वाले हैं। वरुण कहानी में एक मुखौटे के साथ प्रवेश करता है। एक भावुक और सहज सा दिखने वाला युवा। जिसे पाखी सहज ही चाहने लगती है। मगर इंटरवल के बाद जब नायक का मुखौटा उतरता है तो हम उसे एक भगोड़े हत्यारे के रूप में देख रहे होते हैं। पहले हिस्से में उसके नकली चेहरे के आसपास एक भरोसे और मासूमियत का संसार मौजूद था मगर दूसरे हिस्से में जब वह अपने वास्तविक चेहरे के साथ सामने आता है तो उसके चारो तरफ घृणा, अविश्वास और हिंसा से भरा वातावरण नजर आता है।
फिल्म की नायिका पाखी का संसार भी अनोखा है। सोनाक्षी ने इसे उतने ही सहज तरीके से प्रस्तुत भी किया है। पहले हिस्से में जहां वह उन्मुक्त और बेफिक्र है, वहीं दूसरे हिस्से में बिना लाउड हुए सोनाक्षी ने किरदार के आत्मसंघर्ष को अभिव्यक्त किया है। कठिन क्षणों में भी अपना आत्मविश्वास बनाए रखने वाली एक युवती के रूप में सोनाक्षी ने किरदार को अद्भुत अभिव्यक्ति दी है। पहले हिस्से में युवा मन की तरंगों के साथ अकेलेपन और मृत्यु का संशय उसके आसपास मंडराता रहता है, उसके आसपास का सामाजिक और राजनीतिक वातावरण तेजी से बदलता नजर आता है और वह उस बदलाव के साथ जीने का संकल्प लेती दिखती है। बिजली के बल्ब जलाने-बुझाने का दृश्य न सिर्फ पाखी के चरित्र की गहराइयों में झांकने के लिए बल्कि फिल्म की संचरना को भी एक सुंदर विस्तार देता है। वहीं दूसरे हिस्से की पाखी बिल्कुल अलग है। उसके पास भविष्य की उम्मीदें बिल्कुल खत्म हो चुकी हैं। उसके जीवन का यह हिस्सा एक अनवरत लंबी रात की तरह है। जिसमें दुःस्वप्न की तरह उसका पुराना फरेबी प्रेमी भी लौट आया है। ऐसे घनघोर अविश्वास, घृणा और संशय में ओ हेनरी से प्रेरित पत्तियों के गिरने की उपकथा के माध्यम से दरअसल फिर से भरोसे की कोंपलें पनपने लगती हैं। मगर यहां वरुण का यह समर्पण किसी और के लिए नहीं खुद के लिए है। यह उसका अपने-आप से वादा है। यह उसका अपना प्रायश्चित है। यहीं पर आकर फिल्म बड़ी बन जाती है।
आखिरी दृश्य में अद्भुत छायांकन की चर्चा के बिना इस फिल्म पर बात अधूरी होगी। गिरती बर्फ के बीच पेड़ पर चढ़ रहे वरुण का दृश्य जब सामने आता है तो फिल्म कविता में बदलने लगती है। यह एक सपाट कहानी भर नहीं रह जाती और हमारे समामने मायने खुलने लगते हैं।
इन खुलते मायनों का सारांश फिल्म के आरंभिक हिस्से में रेडियो पर रह-रहकर बजने वाले गीत “अपने पे भरोसा है…” की पंक्तियां में शायद खोजा जा सकता है-
क्या खाक वो जीना है जो अपने ही लिये हो
खुद मिटके किसी और को मिटने से बचा ले
अपने पे भरोसा हैं तो ये दांव लगा ले
टूटे हुए पतवार हैं कश्ती के तो हम क्या
हारी हुई बाहों को ही पतवार बना ले
अपने पे भरोसा हैं तो ये दांव लगा ले
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