
I’m not questioning your powers of observation; I’m merely remarking upon the paradox of asking a masked man who he is.
फिल्म ‘वी फॉर वेंडेटा’ से
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जेम्स बांड की फिल्म ‘स्काईफाल’ में एक दिलचस्प दृश्य है। बांड पहली बार अपने नए क्वार्टरमास्टर यानी क्यू से मिलता है। रिसर्च और डेवलपमेंट डिवीजन का पिछला हेड बुजुर्ग होकर रिटायर हो चुका है। उसकी जगह एक गीक से दिखने वाले युवा ने ले ली है। उसके और बांड के बीच बड़े अहम संवाद हैं। दोनों ही सागर की ऊंची लहरों के बीच पालों वाले एक पुराने शानदार जहाज को एक पेंटिंग में देखते हैं। दोनों के पास उस तस्वीर की अलग व्याख्या है। क्यू कहता है, “अनुभवी होना कुशल होने की गारंटी नहीं है।” तो बांड का जवाब आता है, “हां, जैसे युवा होना मौलिकता की गारंटी नहीं है।”

बांड की नई फिल्म ‘स्काईफाल’ इन्हीं दो विचारधाराओं के बीच एक बहस है। फिल्म इस बात पर काफी जोर देती है कि तेजी से बदलती दुनिया में पुराने मूल्यों पर यकीन बनाए रखना होगा। तभी सीक्रेट सर्विस की हेड एम खुद पर लगे आरोपों के जवाब में टेनीसन की कविता ‘यूलीसिस’ की कुछ पंक्तियां पढ़ती है, जिसमें पुराने ब्रिटिश दौर का नास्टेल्जिया झलकता है। उस वक्त जब पृष्ठभूमि में फिल्म का खलनायक सीधा प्रहार करने जा रहा होता है, एम उस कविता की आखिरी पंक्तियां बोल रही होती है-
वी ऑर नाट नाऊ दैट स्ट्रेंथ व्हिच इन ओल्ड डेज़
मूव्ड अर्थ एंड हैवेन, दैट व्हिच वी आर, वी आर–
वन इक्वेल टेंपर आफ हेरोइक हार्ट्स
मेड वीक बाइ टाइम एंड फेट, बट स्ट्रांड इन विल
टु स्ट्राइक, टु सीक, टु फाइंड, एंड नाट टु यील्ड
मगर जेम्स बांड हो या ‘द डार्क नाइट राइजेज’ का बैटमैन, वे बदलते वक्त की चुनौतियों के सामने थक रहे हैं। कई साल पहले नाइन-इलेवन के हादसे के बाद मार्वल कॉमिक्स के एक स्पेशल इश्यू में स्पाइडरमैन ध्वस्त ट्विन टावर के मलबे के सामने असहाय खड़ा नजर आता है। अमेरिकी पॉपुलर कल्चर के इतिहास में ऐसा बहुत कम हुआ होगा कि उनके महानायक बेन, जोकर या लक्स लूथर जैसे अपने चिर-परिचित काल्पनिक खलनायकों से लड़ने की बजाय वास्तविक दुनिया की किसी चुनौती के सामने खड़े हों। वह महज एक शुरुआत थी। महानायकों के गुरूर तोड़ने के लिए सिर्फ आतंकी हमले काफी नहीं थे, बल्कि आर्थिक मंदी की मार और पश्चिमी दुनिया के बरक्स नई महाशक्तियों के उदय ने इन्हें और बौना बना दिया।
सुपरहीरो कमजोर पड़ रहे थे।
सन् 2008 के झटकों के बाद 2011 से विश्व में फिर से आर्थिक मंदी सिर उठाने लगी। अब तो यह बाकायदा माना जा रहा है कि अगर यूरोप में आर्थिक विकास की गति रफ्तार नहीं पकड़ती है तो एक नया संकट फिर से पश्चिमी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेगा। ‘द डार्क नाइट राइजेज’ में पश्चिमी अर्थव्यवस्था का यह संकट साफ तौर पर नजर आता है। बैटमैन की गुप्त पहचान वाले ब्रुस वेन को इसी सिरीज की पहले आई फिल्मों की तरह प्रभावशाली बिजनेसमैन नहीं दिखाया गया है। उसका कारोबार डांवाडोल है। इतना ही नहीं जब खलनायक बेन गोथम सिटी स्टॉक एक्सचेंज पर कब्जा जमा लेता है तो बैटमैन के हाथ से बची-खुची संपत्ति भी चली जाती है और वेन एंटरप्राइजेज का शेयर गिर जाता है। यह ऐसे कारोबारी की कहानी है जो अपने बुरे दौर से गुजर रहा है।
पश्चिम में बढ़ती बेरोजगारी ने युवाओं में निराशा भर दी है। ब्रिटिश यूनिवर्सिटियों से पढ़ने वाले 51 फीसदी छात्र एशिया जा रहे हैं, जो वहां नहीं जा रहे वे ऑस्ट्रेलिया का रुख कर रहे हैं। यही वजह है कि इस साल हमें ‘द अमेजिंग स्पाइडरमैन’ में सुपरहीरो का एक नया अवतार दिखा। मुखौटे के पीछे यह नायक ज्यादा मानवीय है। आम युवा की तरह वह थोड़ा उतावलापन दिखाता है और गलतियां भी करता है। यह स्पाइडरमैन का जेन-नेक्स्ट अवतार है। हॉलीवुड की भाषा में इसे ‘री-बूट’ कहा जाने लगा है और क्रिस्टोफर नोलन इसके उस्ताद बन गए हैं, जिन्होंने पहले बैटमैन को अपनी तीन फिल्मों की श्रृंखला में री-बूट किया और अब ‘मैन आफ स्टील’ में सुपरमैन के कैरेक्टर को नई जेनरेशन के लिए री-बूट कर रहे हैं। जिन्होंने इस फिल्म का प्रोमो देखा है, उन्हें यह सुपरमैन श्रृंखला की पिछली फिल्मों से अलग, गहरे इमोशंस से भरा और एक त्रासद आधारभूमि लिए आता है। यहां सुपरमैन अपने अस्तित्व और ‘एलिएनेशन’ के सवालों से जूझ रहा है।
लेकिन असल पेचीदगियां उन मूल्यों की हैं, जिन्हें आधार बनाकर इन नायकों ने खुद को गढ़ा था। जब क्यू कहता है, “मैं अपने पाजामे में लैपटॉप के सामने बैठकर चाय की चुस्की लगाते हुए दुश्मन के लिए इतनी तबाही मचा सकता हूं, जितनी तबाही फैलाने में आपको एक बरस लग जाएंगे।” तो यह वाकई बांड के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आता है। नई टेक्नोलॉजी, नया मीडिया और नई विश्व व्यवस्था- इन सबके बीच महानायकों के लिए कहां जगह है?
एलन मूर के ग्राफिक नावेल ‘वाचमेन’ की तरह ये सुपरहीरो मानो अपने रिटायरमेंट की तरफ बढ़ रहे हैं। मूर ‘वॉचमेन’ के जरिए अपने पाठकों को एक वैकल्पिक इतिहास में ले जाते हैं, जहां वियतनाम युद्ध जीतने में अमेरिका की मदद करने के लिए 1940 और 1960 के दशक में सुपरहीरो उभरते हैं। देश सोवियत संघ के साथ एक परमाणु युद्ध के करीब पहुंच रहा है और पोशाकधारी सुपरहीरो या तो सेवानिवृत्त हो चुके हैं या सरकार के लिए काम कर रहे हैं। इसी नाम से बनी फिल्म भी काफी पॉपुलर हुई, जहां नायकों को पहचान के संकट और निजी उलझनों से जूझते हुए देखा गया।
कुछ-कुछ इसी तरह गैजेट्स की मदद से दुश्मनों के छक्के छुड़ाने वाले बांड को भी ‘स्काईफाल’ में सिर्फ साहस का सहारा लेना पड़ता है। पिछली कॉमिक्स श्रृंखला, उपन्यासों और फिल्मों की तरह यह बांड चतुर-चालाक और निर्मम नहीं है। उस पर अतीत का बोझ है और सामने भविष्य की चुनौतियां हैं। “तुम्हें क्या किसी धमाके के साथ फटने वाले पेन की उम्मीद थी?” फिल्म में क्यू का व्यंगात्मक प्रश्न बांड से टकराता है, “अब यह सब बीते जमाने की बातें हो गईं।” यह वैसा ही बदलाव है जैसे सुपरमैन की गुप्त पहचान वाले क्लार्क केंट अखबार की नौकरी छोड़नी पड़ी। पिछले दिनों डीसी कॉमिक्स के नए अंक में केंट ने दशकों से चली आ रही रिपोर्टर की पहचान को बदलने का फैसला लिया। पॉपुलर कल्चर में यह एक ऐसा मोड़ था, जिसने अचानक मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। खास तौर पर जब पॉपुलर कल्चर का यह आइकन पारंपरिक मीडिया की आलोचना कर रहा हो।
क्लार्क का ‘डेली प्लैनेट’ के दफ्तर में अपने बॉस के साथ बहस होना कोई नई बात नहीं है। मगर इस बार प्रसंग कुछ अलग है। कॉमिक्स के इस अंक में एक जगह खचाखच भरे न्यूज़रूम में तीखी बहस के दौरान केंट कहता है, “मुझे सिखाया गया है कि तुम अपने शब्दों से नदी की धारा बदल सकते हो और वो कितना भी गहरा राज़ हो, सूरज की तेज़ रोशनी में वह टिक नहीं सकता।” आगे उसके शब्दों में निराशा है, “…तथ्यों की जगह निजी विचारों ने ले ली है, और सूचना का स्थान मनोरंजन ने ले लिया है। रिपोर्टर तो सिर्फ़ स्टेनोग्राफ़र होकर रह गए हैं। और मैं अकेला नहीं हूँ जो इस स्थिति से निराश हैं।” माना जा रहा है कि अब शायद क्लार्क केंट ब्लॉग लेखन करे या हफ़िंग्टन पोस्ट जैसी कोई वेबसाइट शुरु कर दे।
यह सारे बदलाव एक बदलती हुई विश्व व्यवस्था के संकेत हैं। जहां वास्तविक जीवन में जूलियन असांज जैसा दिलचस्प शख्स किसी नायक की तरह उभरता है। जो एक यायावर जीवन जीता है। करीब चालीस बरस के असांज एक बैग में उनके कपड़े होते हैं और दूसरे में लैपटॉप। और दुनिया में जहां भी उन्हें युद्ध संबंधी सूचना मिलने की संभावना रहती है, वे चल पड़ते हैं।
शायद यही वजह है कि हर बार ये महानायक बदलती विश्व व्यवस्था के प्रति अनुकूल रुख नहीं अपनाते। क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म ‘द डार्क नाइट राइजेज’ में कुछ बड़े ही स्पष्ट राजनीतिक संदेश छिपे हैं। फिल्म का खलनायक बेन गोथम सिटी पर कब्जा जमाने और अमीरों को निकाल बाहर करने के लिए आम लोगों का नेतृत्व करता है। उसने अपना साम्राज्य शहर के नीचे सीवर लाइन की तलछट में फैला रखा है। फिल्म में बेन एक कानून के तहत जेल में बंद कैदियों को भी छुड़ाता है। यह 11 सितंबर की घटना के बाद अमेरिका में लागू पेट्रियट कानून से मिलता-जुलता है। इसका विरोध होता रहा है कि क्योंकि पुलिस को अत्यधिक अधिकार सौंपने से लोगों की निजी जिंदगी में उनका दखल होने लगा है।फिल्म का सेकेंड हाफ सर्दियों के अवसाद भरे दिनों जैसा है। इस दौरान कभी पावर और सत्ता का केंद्र रहे लोगों की जनता दरबार में पेशी होती है और उन्हें मौत की सजा भी सुनाई जाती है। फिल्म के इस रुख ने तत्काल पश्चिमी मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा और इसे ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन की आलोचना माना गया। हालांकि ‘रॉलिंग स्टोन’ मैगजीन को दिए इंटरव्यू में नोलन ने आंदोलन की आलोचना से इनकार किया। उन्होंने कहा, ‘यह फिल्म ऐसा कुछ नहीं कहना चाहती।’ जाहिर है कि ये महानायक बदलाव को नकार नहीं सकते मगर उसे जस का तस स्वीकारना भी नहीं चाहेंगे। उस बदलाव को स्वीकारने से एक महास्वप्न चटखने लगता है।मगर कुछ सुपरहीरो ऐसे भी हैं जो इस तेजी बदलती दुनिया में जगह बना रहे हैं। एलन मूर के ग्राफिक नावेल पर आधारित फिल्म ‘वी फॉर वेंडेटा’ का नायक सोलहवीं सदी के विद्रोही गाइ फॉक्स का व्यंगात्मक मुस्कान वाला मुखौटा लगाए रखता है। इस ग्राफिक नावेल में 1980 के दशकों में युनाइटेड किंगडम के मनहूस भविष्य की कल्पना की गई है। उस दौर का एक रहस्यमय क्रांतिकारी जो अपने आपको “वी” कहता है, अधिनायकवादी सरकार को तबाह कर देने के लिए काम करता है। वह एक मुखौटा लगाता है। सन 2005 में आई इस फिल्म के जरिए यह मुखौटा इतना पॉपुलर हो गया कि आज यह सारी दुनिया में विरोध का प्रतीक बना हुआ है। चाहे वह भारत में नई दिल्ली और बंगलुरु की सड़कों पर इंटरनेट सेंसरशिप के खिलाफ चल रहा आंदोलन हो या फिर आक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन।एक और महत्वपूर्ण और दिलचस्प बदलाव सामने आ रहा है। कॉमिक्स की दुनिया पर अब पश्चिम का वर्चस्व भी खत्म हो रहा है। मिडिल ईस्ट के साइकोलॉजिस्ट डा.नैफ अल मुतावा की 99 नाम से शुरु कॉमिक्स श्रंखला के महानायक चरित्र इसलामिक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। बराक ओबामा तक ने इसलाम की शिक्षा और सहिष्णुता की ओर युवाओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए इसकी सराहना की है। पिछले दो साल से दिल्ली में लगने वाले कॉमिक कान में सूफी कॉमिक्स का स्टाल भी सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। सन् 2012 में भारतीय एनीमेशन और कॉमिक्स कंपनी रोवोल्ट ने ‘मेटाफ्रैक्ज’ नाम से एक कॉमिक्स शुरु की। इसमें कुछ टीनएजर्स और बच्चे हैं। हर बच्चा दुनिया के किसी खास कोने का है और यह एक मल्टीएथिकल ग्रुप की तरह काम करता है। इसमें एक मुंबई का रहने वाला है तो दूसरा यूरोप का। एक इजिप्ट से आया है तो एक रूस से। कई साल पहले शेखर कपूर और दीपक चोपड़ा के प्रयास अब मजबूत होते दिख रहे हैं। उनकी लिक्विड कॉमिक्स के जरिए भारतीय मिथक का मार्डन रूपांतरण धीरे-धीरे पश्चिम में लोकप्रियता हासिल कर रहा है।वापस चलते हैं फिल्म ‘स्काईफाल’ के शुरुआती दृश्यों की तरफ। जब लोमहर्षक एक्शन सीक्वेंस के दौरान- यह खतरा होते हुए भी बांड को गोली लग जाएगी, एम गोली चलाने का आदेश देती है। गोली बांड को ही लगती है और स्क्रीन पर क्रेडिट्स उभरने लगते हैं। पार्श्व में उदासी भरा गीत गूंजता है, “दिस इज़ द एंड। होल्ड योर ब्रेथ एंड काउंट टु टेन।”पश्चिम के नायक खत्म नहीं हुए हैं पर अपनी सांस थामकर उल्टी गिनती जरूर गिन रहे हैं।