ग्राफिक नॉवेलः नए ज़माने की नई किताबें

Garbage Binनोएडा में गेमिंग स्टूडियो चलाने वाले फैजल ने खुद को टेंशन फ्री रखने के लिए एक कैरेक्टर रचा गुड्डू- जो उनके अपने बचपन की तस्वीर थी। फैजल कार्टून बनाते और फेसबुक पर दोस्तों के बीच शेयर करते। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि फैजल ने इसका एक फेसबुक पेज बनाया ‘गारबेज बिन’। पहले महीने दो लाइक्स हुए। इसके बाद जो हुआ वह कम से कम भारतीय फेसबुक के लिए तो इतिहास है।

आज ‘गारबेज बिन’ के छह लाख से ज्यादा लाइक्स हैं और हर पोस्ट को हजारों लाइक्स और सैकड़ों शेयर व कमेंट्स मिलते हैं। इसके बाद फैजल की पहली किताब आई ‘गारबेज बिन (वाल्यूम वन)’ जो जबरदस्त बिकी।

अब न सिर्फ अगली किताब की तैयारी है बल्कि इस कैरेक्टर पर आधारित ऐप्लीकेशन और मर्चेंडाइज भी बाजार में आ रहे हैं। फैजल की कहानी बताती है कि किताबें लोग (खासकर नई पीढ़ी) आज भी पढ़ रहे हैं बस उनका स्वरूप बदल गया है।

Comic Con India 2014फरवरी में दिल्ली में हुए कॉमिक कॉन में इस बदलाव की झलक साफ देखी जा सकती है। वक्त की कमी के कारण अब चित्रकथाएं बच्चों के बीच से निकलकर बड़ों की दुनिया में जगह बना रही हैं। ग्राफिक नॉवेल एक नया ट्रेंड है।

आक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट और इंटरनेट सेंसरशिप के खिलाफ आंदोलनों में नजर आने मुखौटे तो आपको याद ही होंगे। कॉमिक कॉन इंडिया में ‘वी फॉर वेंडेटा’ ग्राफिक नॉवेल से पॉपुलर इस चरित्र के रचयिता डेविड लॉयड से ऑटोग्राफ लेने वालों की लंबी लाइन लगी थी। सारनाथ बैनर्जी ने सन 2004 में पहला गंभीर ग्राफिक नावेल लिखकर भारत में एक नई परंपरा की शुरुआत की थी।

इसके बाद मानता रॉय, विश्वज्योति घोष और शमिक दासगुप्ता जैसे नाम सामने आए। भारतीय मिथकों को इंटरनेशनल बाजार में बेचने की एक गंभीर कोशिश फिल्म निर्देशक शेखर कपूर और दीपक चोपड़ा ने भी जानेमाने व्यावसायी रिचर्ड ब्रानसन के साथ की थी।

कुछ असहमतियों के चलते वे अलग हो गए और लिक्विड कॉमिक्स के नाम से अलग प्रकाशन शुरु किया जो रामायण व पंचतंत्र की कहानियों के अलावा साधु और स्नेक वुमेन जैसी भारतीय कहानियों के लिए विदेशी बाजार में जगह तलाश रहा है।

Comic Con India 2014ऊपरी तौर पर हल्के-फुल्के दिखने वाले ग्राफिक नावेलों में गहरे राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। ईरान की मारिजेन सत्रापी ने जब ‘परसेपोलिस’ नाम से अपनी ग्राफिक आत्मकथा लिखी तो ईरानी शासन की त्योरियां चढ़ गईं। लेबनान युद्ध की स्मृतियों में रची-बसी ‘वाल्ट्ज विथ बशीर’ अपने में एक दस्तावेज है। ‘वी फॉर वेंडेटा’ के बारे में सभी जानते हैं कि यह फासीवाद और तानाशाही के खिलाफ एक सशक्त रचना है।

फिल्मों पर भी इन नए दौर की किताबों का असर पड़ा है। सैफ अली खान ने जब अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म ‘एजेंट विनोद’ रिलीज की तो एक ग्राफिक नॉवेल भी बाजार में उतारा, जिसकी भूमिका श्रीराम राघवन ने लिखी। वहीं ‘तेरे बिन लादेन’ के निर्देशक अभिषेक शर्मा ने बीते साल ‘मंकीमैन’ के नाम से एक ग्राफिक नावेल लिखा, जिस पर वे फिल्म बनाना चाहते हैं।

कॉमिक कॉन के आयोजक जतिन वर्मा करते हैं कि पब्लिकेशन के काम में धैर्य चाहिए। कैंपफायर ने ग्राफिक नावेल छापने शुरु किए और पांच साल बाद वे अपने मुकाम तक पहुंच सके हैं। पाठकों तक पहुंचना आसान नहीं है। यही वजह है कि कॉमिक कॉन जैसे आयोजनों की जरूरत पढ़ती है, जहां लोग आएं, लेखकों से मिलें, उनसे चर्चा करें।

Comic Con India 2014जतिन का मानना है कि फ्लिपकॉर्ट जैसे प्लेटफार्म के कारण पाठकों तक पहुंचना आसान हुआ है। इस जॅनर में अब हिन्दी के लेखक भी दिलचस्पी दिखा रहे हैं। इंटनरेट पर छिटपुट प्रयास नजर आते हैं। उम्मीद है जल्दी ही हम एक ऐसे दौर से रू-ब-रू होंगे जब किताबें नए रंग-ढंग में पाठकों से बात करेंगी।

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एक नायक के साथ 75 साल

यह महज एक संयोग रहा होगा कि जिस महीने सुपरमैन को 75 साल पूरे हुए उसी दौरान एक अमेरिकी बिल्डिंग कान्ट्रैक्टर डेविड को मिनेसोटा में एक घर की दीवार के पीछे बरसों से अंधेरे में दबी सुपरमैन पहली कामिक हाथ लग गई। जून 1938 में छपी ने इस सुपरमैन की इस पहली कॉमिक बुक की पिछले दिनों नीलामी हुई तो उस शख्स को 1,75,000 डॉलर मिले।

जून 1938 में प्रकाशित रंगीन कवर वाली इस कॉमिक पर कहीं सुपरमैन नहीं लिखा था। हां, लाल-नीले कपड़ों में एक शख्स हरे रंग की कार को उठाए नजर आता है। यह महज एक शुरुआत थी- किसी ने भी नहीं सोचा था कि सर्कस के खिलाड़ियों जैसे चुस्त कपड़े पहनने वाला यह चरित्र एक पॉपुलर कल्चरल आइकन बनकर खड़ा हो जाएगा। यही वह 1934 के बाद का दौर था जब सारी दुनिया पर दूसरे विश्व युद्ध का संकट मँडरा रहा था। जर्मनी में नाज़ियों की ताकत बढ़ रही थी। अमेरिका ने जबरदस्त आर्थिक मंदी देखी और उसके असर से उबरने की कोशिश में लगा था।

superman-dominates-popular-cultureइस विश्वव्यापी उथल-पुथल की पृष्ठभूमि में लेखक जेरी सीगल और आर्टिस्ट जो शुस्टर क्लीवलैंड में एक दूसरे से मिले और सुपरमैन की रचना हुई थी। सुपरमैन सुदूर अंतरिक्ष में नष्ट हो चुके एक ग्रह से धरती पर आया था। धरती का कम गुरुत्वाकर्षण और सूर्य की किरणें सुपरमैन के असाधारण शक्तियों का स्वामी बना देती हैं। सुपरमैन के लिए कपड़ों का चयन इस तरह किया गया कि उसके शारीरिक सौष्ठव का अंदाजा लगाया जा सके। सुपरमैन के सीने पर एस लेटर लिखा गया। सुपरमैन के कंधे पर झूलता एक लाल कपड़ा लगाने के पीछे यह विचार था कि वह जब हवा में उड़े तो ऐक्शन का एहसास हो।

अमेरिका की आर्थिक मंदी के दौरान सीगल और शुस्टर के वामपंथ के प्रति झुकाव को सुपरमैन की शुरुआती कहानियों में साफ देखा जा सकता है। जहां सुपरमैन खुद से समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को स्वीकार करता है और भ्रष्ट उद्योगपतियों से लड़ता है। सुपरमैन के रचयिताओं की यहूदी पृष्ठभूमि का भी सुपरमैन के चरित्र निर्माण पर गहरा असर है। दूसरे ग्रह से आया सुपरमैन किसी यहूदी शरणार्थी की तरह अमेरिकन संस्कृति में घुलमिल जाने की आकांक्षा रखता है।

मगर वक्त के साथ सुपरमैन बदलता गया। शुरुआती सुपरमैन सिर्फ लंबी छलांग मारकर ऊंची इमारतों को लांघते दिखता था, मगर जैसे-जैसे हवाई यात्राएं लोकप्रिय हुईं सुपरमैन भी उड़ता हुआ दिखने लगा। बाद के दिनों में जब अमेरिका एक सुपरपॉवर और विश्व की अहम सैन्य ताकत के रूप में सामने आया तो सुपरमैन भी ईश्वर के समकक्ष एक ऐसे ताकतवर किरदार के रूप में दिखा जो पूरी दुनिया या मानव सभ्यता का संरक्षक है। सुपरमैन के असली नाम कॉल-एल में बाइबिल से जुड़ी साम्यताएं दिखती हैं, जहां प्रत्यय ‘एल’ का अर्थ ईश्वर द्वारा अथवा ईश्वर प्रदत्त माना जाता है।

सुपरमैन की इस बदलती शख्सियत का एक व्यावसायिक पहलू भी है। सन् 1981 में सीगल और शुस्टर ने सुपरमैन के कॉपीराइट्स डिटेक्टिव कॉमिक्स को बेच दिए, जो बाद में डीसी कॉमिक्स के नाम से पॉपुलर हुआ। इस प्रकाशन को बाद में वॉर्नर ब्रदर्स की एक कंपनी ने टेकओवर कर लिया और बड़े पैमाने पर दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नए बिज़नेस मॉडल पर काम करना शुरू किया। सुपरमैन के किरदार ने वॉर्नर ब्रदर्स के लिए पाँच फिल्मों में अमरीकी बॉक्स ऑफ़िस से 500 मिलियन डॉलर या 29 अरब रुपए से भी ज़्यादा का कारोबार किया है। इतना ही नहीं इस किरदार ने हज़ारों करोड़ रुपए टेलीविजन, खिलौने, गेम्स और कॉमिक्स के ज़रिए पिछले 75 सालों में कमाए हैं।

यह अचरज का विषय है कि इतने सालों में सोसाइटी और पॉपुलर कल्चर के न जाने कितने ट्रेंड्स बदल गए मगर सुपरमैन की लोकप्रियता घटी नहीं बल्कि बढ़ी है। शायद इसका जवाब चर्चित लेखक उम्बर्तो इको के पास है जो सुपरमैन को पॉपुलर कल्चर के बीच एक आधुनिक मिथकीय नायक के रूप में परिभाषित करते हैं। पहचान छिपाने के लिए सुपरमैन एक आम इनसान क्लार्क कैंट के रूप में लोगों के बीच रहता है। इस दोहरी पहचान का पश्चिमी आधुनिक सभ्यता की साइकी से गहरा रिश्ता है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में दोहरी पहचान के जरिए सुपरमैन आप्रवासी नागरिकता को वैधता प्रदान करता है और दो भिन्न संस्कृतियों को एक साथ लेकर चलने का एक आसान रास्ता प्रस्तुत करता है। किसी पुराने मकान के अंधेरे में दबी उस कॉमिक्स के पहले अंक की तरह शायद यह चरित्र भी वैश्विक समाज के अचेतन में कहीं गहरे तक डूबा हुआ है।

बदलती दुनिया में महानायक

I’m not questioning your powers of observation; I’m merely remarking upon the paradox of asking a masked man who he is.

फिल्म ‘वी फॉर वेंडेटा’ से

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जेम्स बांड की फिल्म ‘स्काईफाल’ में एक दिलचस्प दृश्य है। बांड पहली बार अपने नए क्वार्टरमास्टर यानी क्यू से मिलता है। रिसर्च और डेवलपमेंट डिवीजन का पिछला हेड बुजुर्ग होकर रिटायर हो चुका है। उसकी जगह एक गीक से दिखने वाले युवा ने ले ली है। उसके और बांड के बीच बड़े अहम संवाद हैं। दोनों ही सागर की ऊंची लहरों के बीच पालों वाले एक पुराने शानदार जहाज को एक पेंटिंग में देखते हैं। दोनों के पास उस तस्वीर की अलग व्याख्या है। क्यू कहता है, “अनुभवी होना कुशल होने की गारंटी नहीं है।” तो बांड का जवाब आता है, “हां, जैसे युवा होना मौलिकता की गारंटी नहीं है।”

बांड की नई फिल्म ‘स्काईफाल’ इन्हीं दो विचारधाराओं के बीच एक बहस है। फिल्म इस बात पर काफी जोर देती है कि तेजी से बदलती दुनिया में पुराने मूल्यों पर यकीन बनाए रखना होगा। तभी सीक्रेट सर्विस की हेड एम खुद पर लगे आरोपों के जवाब में टेनीसन की कविता ‘यूलीसिस’ की कुछ पंक्तियां पढ़ती है, जिसमें पुराने ब्रिटिश दौर का नास्टेल्जिया झलकता है। उस वक्त जब पृष्ठभूमि में फिल्म का खलनायक सीधा प्रहार करने जा रहा होता है, एम उस कविता की आखिरी पंक्तियां बोल रही होती है-

वी ऑर नाट नाऊ दैट स्ट्रेंथ व्हिच इन ओल्ड डेज़
मूव्ड अर्थ एंड हैवेन, दैट व्हिच वी आर, वी आर–
वन इक्वेल टेंपर आफ हेरोइक हार्ट्स
मेड वीक बाइ टाइम एंड फेट, बट स्ट्रांड इन विल
टु स्ट्राइक, टु सीक, टु फाइंड, एंड नाट टु यील्ड

मगर जेम्स बांड हो या ‘द डार्क नाइट राइजेज’ का बैटमैन, वे बदलते वक्त की चुनौतियों के सामने थक रहे हैं। कई साल पहले नाइन-इलेवन के हादसे के बाद मार्वल कॉमिक्स के एक स्पेशल इश्यू में स्पाइडरमैन ध्वस्त ट्विन टावर के मलबे के सामने असहाय खड़ा नजर आता है। अमेरिकी पॉपुलर कल्चर के इतिहास में ऐसा बहुत कम हुआ होगा कि उनके महानायक बेन, जोकर या लक्स लूथर जैसे अपने चिर-परिचित काल्पनिक खलनायकों से लड़ने की बजाय वास्तविक दुनिया की किसी चुनौती के सामने खड़े हों। वह महज एक शुरुआत थी। महानायकों के गुरूर तोड़ने के लिए सिर्फ आतंकी हमले काफी नहीं थे, बल्कि आर्थिक मंदी की मार और पश्चिमी दुनिया के बरक्स नई महाशक्तियों के उदय ने इन्हें और बौना बना दिया।

सुपरहीरो कमजोर पड़ रहे थे।

सन् 2008 के झटकों के बाद 2011 से विश्व में फिर से आर्थिक मंदी सिर उठाने लगी। अब तो यह बाकायदा माना जा रहा है कि अगर यूरोप में आर्थिक विकास की गति रफ्तार नहीं पकड़ती है तो एक नया संकट फिर से पश्चिमी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेगा। ‘द डार्क नाइट राइजेज’ में पश्चिमी अर्थव्यवस्था का यह संकट साफ तौर पर नजर आता है। बैटमैन की गुप्त पहचान वाले ब्रुस वेन को इसी सिरीज की पहले आई फिल्मों की तरह प्रभावशाली बिजनेसमैन नहीं दिखाया गया है। उसका कारोबार डांवाडोल है। इतना ही नहीं जब खलनायक बेन गोथम सिटी स्टॉक एक्सचेंज पर कब्जा जमा लेता है तो बैटमैन के हाथ से बची-खुची संपत्ति भी चली जाती है और वेन एंटरप्राइजेज का शेयर गिर जाता है। यह ऐसे कारोबारी की कहानी है जो अपने बुरे दौर से गुजर रहा है।
पश्चिम में बढ़ती बेरोजगारी ने युवाओं में निराशा भर दी है। ब्रिटिश यूनिवर्सिटियों से पढ़ने वाले 51 फीसदी छात्र एशिया जा रहे हैं, जो वहां नहीं जा रहे वे ऑस्ट्रेलिया का रुख कर रहे हैं। यही वजह है कि इस साल हमें ‘द अमेजिंग स्पाइडरमैन’ में सुपरहीरो का एक नया अवतार दिखा। मुखौटे के पीछे यह नायक ज्यादा मानवीय है। आम युवा की तरह वह थोड़ा उतावलापन दिखाता है और गलतियां भी करता है। यह स्पाइडरमैन का जेन-नेक्स्ट अवतार है। हॉलीवुड की भाषा में इसे ‘री-बूट’ कहा जाने लगा है और क्रिस्टोफर नोलन इसके उस्ताद बन गए हैं,  जिन्होंने पहले बैटमैन को अपनी तीन फिल्मों की श्रृंखला में री-बूट किया और अब ‘मैन आफ स्टील’ में सुपरमैन के कैरेक्टर को नई जेनरेशन के लिए री-बूट कर रहे हैं। जिन्होंने इस फिल्म का प्रोमो देखा है, उन्हें यह सुपरमैन श्रृंखला की पिछली फिल्मों से अलग, गहरे इमोशंस से भरा और एक त्रासद आधारभूमि लिए आता है। यहां सुपरमैन अपने अस्तित्व और ‘एलिएनेशन’ के सवालों से जूझ रहा है।

लेकिन असल पेचीदगियां उन मूल्यों की हैं, जिन्हें आधार बनाकर इन नायकों ने खुद को गढ़ा था। जब क्यू कहता है, “मैं अपने पाजामे में लैपटॉप के सामने बैठकर चाय की चुस्की लगाते हुए दुश्मन के लिए इतनी तबाही मचा सकता हूं, जितनी तबाही फैलाने में आपको एक बरस लग जाएंगे।” तो यह वाकई बांड के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आता है। नई टेक्नोलॉजी, नया मीडिया और नई विश्व व्यवस्था- इन सबके बीच महानायकों के लिए कहां जगह है?

एलन मूर के ग्राफिक नावेल ‘वाचमेन’ की तरह ये सुपरहीरो मानो अपने रिटायरमेंट की तरफ बढ़ रहे हैं।  मूर ‘वॉचमेन’ के जरिए अपने पाठकों को एक वैकल्पिक इतिहास में ले जाते हैं, जहां वियतनाम युद्ध जीतने में अमेरिका की मदद करने के लिए 1940 और 1960 के दशक में सुपरहीरो उभरते हैं। देश सोवियत संघ के साथ एक परमाणु युद्ध के करीब पहुंच रहा है और पोशाकधारी सुपरहीरो या तो सेवानिवृत्त हो चुके हैं या सरकार के लिए काम कर रहे हैं। इसी नाम से बनी फिल्म भी काफी पॉपुलर हुई, जहां नायकों को पहचान के संकट और निजी उलझनों से जूझते हुए देखा गया।
कुछ-कुछ इसी तरह गैजेट्स की मदद से दुश्मनों के छक्के छुड़ाने वाले बांड को भी ‘स्काईफाल’ में सिर्फ साहस का सहारा लेना पड़ता है। पिछली कॉमिक्स श्रृंखला, उपन्यासों और फिल्मों की तरह यह बांड चतुर-चालाक और निर्मम नहीं है। उस पर अतीत का बोझ है और सामने भविष्य की चुनौतियां हैं। “तुम्हें क्या किसी धमाके के साथ फटने वाले पेन की उम्मीद थी?” फिल्म में क्यू का व्यंगात्मक प्रश्न बांड से टकराता है, “अब यह सब बीते जमाने की बातें हो गईं।” यह वैसा ही बदलाव है जैसे सुपरमैन की गुप्त पहचान वाले क्लार्क केंट अखबार की नौकरी छोड़नी पड़ी। पिछले दिनों डीसी कॉमिक्स के नए अंक में केंट ने दशकों से चली आ रही रिपोर्टर की पहचान को बदलने का फैसला लिया। पॉपुलर कल्चर में यह एक ऐसा मोड़ था, जिसने अचानक मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। खास तौर पर जब पॉपुलर कल्चर का यह आइकन पारंपरिक मीडिया की आलोचना कर रहा हो।
क्लार्क का ‘डेली प्लैनेट’ के दफ्तर में अपने बॉस के साथ बहस होना कोई नई बात नहीं है। मगर इस बार प्रसंग कुछ अलग है। कॉमिक्स के इस अंक में एक जगह खचाखच भरे न्यूज़रूम में तीखी बहस के दौरान केंट कहता है, “मुझे सिखाया गया है कि तुम अपने शब्दों से नदी की धारा बदल सकते हो और वो कितना भी गहरा राज़ हो, सूरज की तेज़ रोशनी में वह टिक नहीं सकता।”  आगे उसके शब्दों में निराशा है, “…तथ्यों की जगह निजी विचारों ने ले ली है, और सूचना का स्थान मनोरंजन ने ले लिया है। रिपोर्टर तो सिर्फ़ स्टेनोग्राफ़र होकर रह गए हैं। और मैं अकेला नहीं हूँ जो इस स्थिति से निराश हैं।” माना जा रहा है कि अब शायद क्लार्क केंट ब्लॉग लेखन करे या हफ़िंग्टन पोस्ट जैसी कोई वेबसाइट शुरु कर दे।

यह सारे बदलाव एक बदलती हुई विश्व व्यवस्था के संकेत हैं। जहां वास्तविक जीवन में जूलियन असांज जैसा दिलचस्प शख्स किसी नायक की तरह उभरता है। जो एक यायावर जीवन जीता है। करीब चालीस बरस के असांज एक बैग में उनके कपड़े होते हैं और दूसरे में लैपटॉप। और दुनिया में जहां भी उन्हें युद्ध संबंधी सूचना मिलने की संभावना रहती है, वे चल पड़ते हैं।

शायद यही वजह है कि हर बार ये महानायक बदलती विश्व व्यवस्था के प्रति अनुकूल रुख नहीं अपनाते। क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म ‘द डार्क नाइट राइजेज’ में कुछ बड़े ही स्पष्ट राजनीतिक संदेश छिपे हैं। फिल्म का खलनायक बेन गोथम सिटी पर कब्जा जमाने और अमीरों को निकाल बाहर करने के लिए आम लोगों का नेतृत्व करता है। उसने अपना साम्राज्य शहर के नीचे सीवर लाइन की तलछट में फैला रखा है। फिल्म में बेन एक कानून के तहत जेल में बंद कैदियों को भी छुड़ाता है। यह 11 सितंबर की घटना के बाद अमेरिका में लागू पेट्रियट कानून से मिलता-जुलता है। इसका विरोध होता रहा है कि क्योंकि पुलिस को अत्यधिक अधिकार सौंपने से लोगों की निजी जिंदगी में उनका दखल होने लगा है।फिल्म का सेकेंड हाफ सर्दियों के अवसाद भरे दिनों जैसा है। इस दौरान कभी पावर और सत्ता का केंद्र रहे लोगों की जनता दरबार में पेशी होती है और उन्हें मौत की सजा भी सुनाई जाती है। फिल्म के इस रुख ने तत्काल पश्चिमी मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा और इसे ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन की आलोचना माना गया। हालांकि ‘रॉलिंग स्टोन’ मैगजीन को दिए इंटरव्यू में नोलन ने आंदोलन की आलोचना से इनकार किया। उन्होंने कहा, ‘यह फिल्म ऐसा कुछ नहीं कहना चाहती।’  जाहिर है कि ये महानायक बदलाव को नकार नहीं सकते मगर उसे जस का तस स्वीकारना भी नहीं चाहेंगे। उस बदलाव को स्वीकारने से एक महास्वप्न चटखने लगता है।मगर कुछ सुपरहीरो ऐसे भी हैं जो इस तेजी बदलती दुनिया में जगह बना रहे हैं। एलन मूर के ग्राफिक नावेल पर आधारित फिल्म ‘वी फॉर वेंडेटा’ का नायक सोलहवीं सदी के विद्रोही गाइ फॉक्स का व्यंगात्मक मुस्कान वाला मुखौटा लगाए रखता है। इस ग्राफिक नावेल में 1980 के दशकों में युनाइटेड किंगडम के मनहूस भविष्य की कल्पना की गई है। उस दौर का एक रहस्यमय क्रांतिकारी जो अपने आपको “वी” कहता है, अधिनायकवादी सरकार को तबाह कर देने के लिए काम करता है। वह एक मुखौटा लगाता है। सन 2005 में आई इस फिल्म के जरिए यह मुखौटा इतना पॉपुलर हो गया कि आज यह सारी दुनिया में विरोध का प्रतीक बना हुआ है। चाहे वह भारत में नई दिल्ली और बंगलुरु की सड़कों पर इंटरनेट सेंसरशिप के खिलाफ चल रहा आंदोलन हो या फिर आक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन।एक और महत्वपूर्ण और दिलचस्प बदलाव सामने आ रहा है। कॉमिक्स की दुनिया पर अब पश्चिम का वर्चस्व भी खत्म हो रहा है। मिडिल ईस्ट के साइकोलॉजिस्ट डा.नैफ अल मुतावा की 99 नाम से शुरु कॉमिक्स श्रंखला के महानायक चरित्र इसलामिक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। बराक ओबामा तक ने इसलाम की शिक्षा और सहिष्णुता की ओर युवाओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए इसकी सराहना की है। पिछले दो साल से दिल्ली में लगने वाले कॉमिक कान में सूफी कॉमिक्स का स्टाल भी सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। सन् 2012 में भारतीय एनीमेशन और कॉमिक्स कंपनी रोवोल्ट ने ‘मेटाफ्रैक्ज’ नाम से एक कॉमिक्स शुरु की। इसमें कुछ टीनएजर्स और बच्चे हैं। हर बच्चा दुनिया के किसी खास कोने का है और यह एक मल्टीएथिकल ग्रुप की तरह काम करता है। इसमें एक मुंबई का रहने वाला है तो दूसरा यूरोप का। एक इजिप्ट से आया है तो एक रूस से। कई साल पहले शेखर कपूर और दीपक चोपड़ा के प्रयास अब मजबूत होते दिख रहे हैं। उनकी लिक्विड कॉमिक्स के जरिए भारतीय मिथक का मार्डन रूपांतरण धीरे-धीरे पश्चिम में लोकप्रियता हासिल कर रहा है।वापस चलते हैं फिल्म ‘स्काईफाल’ के शुरुआती दृश्यों की तरफ। जब लोमहर्षक एक्शन सीक्वेंस के दौरान- यह खतरा होते हुए भी बांड को गोली लग जाएगी, एम गोली चलाने का आदेश देती है। गोली बांड को ही लगती है और स्क्रीन पर क्रेडिट्स उभरने लगते हैं। पार्श्व में उदासी भरा गीत गूंजता है, “दिस इज़ द एंड। होल्ड योर ब्रेथ एंड काउंट टु टेन।”पश्चिम के नायक खत्म नहीं हुए हैं पर अपनी सांस थामकर उल्टी गिनती जरूर गिन रहे हैं।
‘उद्भावना’ में प्रकाशित

बंबई रात की बाहों में


राजकपूर के लिए सदाबहार हिट फिल्में देने वाले ख्वाजा अहमद अब्बास ने खुद के निर्देशन में भी बहुत सी फिल्में बनाई हैं और आम तौर पर उनकी फिल्में तत्कालीन आलोचकों द्वारा खारिज कर दी जाती थीं। यह माना जाता था कि जब अब्बास खुद के निर्देशक में फिल्म बनाते थे तो वे संतुलित नहीं रह पाते थे और उनकी फिल्म भाषणबाजी में खो जाती थी। इसके बावजूद मेरा मानना है कि भारत में इंडिपेंडेंट सिनेमा जैसी अवधारणा पर उस वक्त अब्बास ही काम कर रहे थे। यह अलग बात थी कि उस वक्त का सेटअप ऐसा नहीं था। ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन वाली एक ही फिल्म मैंने देखी है और वह है परदेसी। यह शायद भारत की पहली फिल्म थी जो रूस के सहयोग से बनी थी। इस फिल्म में उनका और रूस के निर्देशक वसीली प्रोनिन का संयुक्त निर्देशन था। तकनीकी रूप से यह उस दौर की उत्कृष्ट फिल्मों मे एक थी।ख्वाजा अहमद अब्बास की दो फिल्में मैंने पढ़ी हैं। फिल्म पत्रिका माधुरी ने शहर और सपना का पुनरावलोकन प्रकाशित किया था। यह अपने आप में एक अनूठा प्रयोग था। ऐसा मुझे आज तक दोबारा देखने को नहीं मिला। दूसरी फिल्म थी बंबई रात की बाहों में, जिसका मैं यहां जिक्र करना चाहूंगा। 1968 में रिलीज इस फिल्म में उस दौर के ज्यादातर नए चेहरे ही रहे होंगे, जलाल आगा, परिसिस खंबाटा आदि। यह उपन्यास के रूप में इसी नाम से हिन्द पाकेट बुक्स से छपा था। वह भी काफी पुराना संस्करण था और मेरी मां की किताबों के कलेक्शन में मौजूद था इसलिए मुझे पढ़ने को मिल गया। जाहिर तौर पर यह फिल्म की पटकथा को आधार बनाकर लिखा गया होगा मगर इसमें कोई शक नहीं कि यह एक बेहतर उपन्यास भी है।बंबई रात की बाहों में शायद अपने समय से आगे की फिल्म रही होगी। यह इस कदर प्रासंगिक है कि आज भी अनुराग कश्यप, निशिकांत कामत (डोबिवली फास्ट, मुंबई मेरी जान) या राजकुमार गुप्ता (आमिर) जैसा निर्देशक इस उपन्यास को आधार बनाकर एक शानदार फिल्म बना सकता है। यह दरअसल मुंबई के एक दिन या कहें तो मुंबई की एक रात की कहानी है। सिर्फ एक रात कई लोगों की जिंदगी बदल देती है। यह उपन्यास पढ़े अरसा गुजर गया इसलिए मुझे अफसोस है कि मैं इस पर बहुत अधिकार के साथ नहीं लिख पाऊंगा मगर यह एक ईमानदार पत्रकार की कहानी है। अपनी पत्नी से उसके संबंध टूटने के कगार पर हैं। फिल्म में एक खल चरित्र भी है और वह एक यादगार चरित्र है।

पूरा उपन्यास एक थ्रिलर की शक्ल में लिखा गया है मगर थ्रिलर के फारमैट में वह एक महानगर के अंधेरे हिस्से को उजागर करता चलता है। कहानी कहीं भी अपने चरित्रों से नहीं भटकती मगर दिलचस्प बात यह है कि उससे सामाजिक सारोकार बहुत गहरे हैं। इसे सीन और शॉट कंपोजिशन की तकनीकी को आधार बनाते हुए लिखा गया है। इसलिए इस उपन्यास में दृश्यात्मकता और बांधने वाले तत्व बहुत मजबूत हैं। इस कुछ दृश्य मुझे आज भी नहीं भूलते। मुंबई की बारिश का चित्रण। देर रात चलने वाली पार्टियां और उनकी जलती-बुझती रोशनी में चेहरे, सूनी सड़कों पर तेज भागती गाड़ियां और लैंप पोस्ट पर चिपके हॉलीवुड के पोस्टर।

बंबई रात की बाहों में का हर चरित्र गहराई से एक दूसरे से जुडा़ हुआ है। यह एक तेज रफ्तार से भागती कहानी है। एक रात मे ही उनके बीच की कड़वाहट, उनके सामाजिक अंतर्विरोध और उनकी छटपटाहट सामने आ जाती है। यह दूसरी ऐसी किताब है जिसे मैंने फिल्म की तरह देखा। यह उपन्यास बताता है का पॉपुलर फारमैट इस्तेमाल गंभीर बातों को कहने के लिए किस तरह किया जा सकता है। जैसा कि आज बहुत से निर्देशक और लेखक कर रहे हैं।

ऊपर दी गई तस्वीर मे ख्वाजा अहमद अब्बास राजकपूर के साथ एकदम बाईं तरफ दिख रहे हैं। तस्वीर http://www.rajkapoorworld.com से साभार

अनजान टापू पर नफरत और प्रेम


किताबों और फिल्मों का गहरा रिश्ता है। गौर करें तो भारतीय समांतर सिनेमा या जिसे हम कला सिनेमा कहते हैं उसकी बुनियाद में ही आधुनिक हिन्दी साहित्य है। इस पर मैं कभी अलग से लिखना चाहूंगा। इसे छोड़ भी दें तो दुनिया भर में स्तरीय सिनेमा का निर्माण किताबों को आधार बनाकर हुआ है। गॉन विथ द विंड, बेनहर, ए फेयर टू आर्म्स, डाक्टर जिवागो, ग्रैफ्स आफ रैथ, पाथेर पांचाली, गाइड जैसी तमाम फिल्में हैं, जिनका नाम लिया जा सकता है। यहां तक कि मदर इंडिया भी पर्ल एस बक के उपन्यास को आधार बनाकर लिखी गई थी।मगर मैं यहां कुछ उन उपन्यासों का जिक्र करना चाहता हूं जो अपने विन्यास में सिनेमा के बहुत करीब हैं। बड़े फलक पर देखें तो इसमें कृश्न चंदर के कई उपन्यास, विभूतिभूषण बंधोपाध्याय की पाथेर पांचाली और आरके नारायण की गाइड को भी समेटा जा सकता है। इन उपन्यासों को पढ़ना दरअसल एक किस्म के गहन सिनेमाई अनुभव से गुजरना है। मगर इनके बारे में भी फिर कभी बात होगी।

इस पोस्ट में मैं सिर्फ उन दो उपन्यासों का जिक्र करना चाहूंगा जो अपने-आप में पूरे उपन्यास हैं मगर उनकी संरचना सिनेमा को आधार बनाकर की गई है। इन्हें पढ़ना सचमुच उपन्यास पढ़ने से ज्यादा एक ‘फिल्म देखना’ है। जब मैं ‘फिल्म देखना’ शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं तो इस काफी गंभीर और कलात्मक मायनों में समझने की कोशिश कर रहा हं। किसी भी उपन्यास की भाषा को एक स्तरीय सिनेमा देखने के अनुभव के करीब ला सकने के लिए बड़े भाषाई कौशल की जरूरत होती है। इसके लिए जरूरी है कि कथानक में सिनेमा की पटकथा जैसी चुस्ती तो हो मगर वह किसी घटिया जासूसी उपन्यास में न बदलने पाए। भाषा में ऐसी बिंबात्मकता हो कि आप एक बेहतरीन सिनेमा देखने के अनुभव से गुजर सकें। इस सबके बाद भी वह एक स्तरीय साहित्यिक रचना की कसौटियों पर भी खरा उतरे।

मैंने दरअसल बचपन से किशोरावस्था के बीच दो ऐसे ही ‘उपन्यास देखे’ या ‘फिल्में पढ़ीं’। इन दोनों उपन्यासों से मैंने कहानी कहने के तरीके और नैरेशन के बारे में काफी कुछ सीखा। इतना ही नहीं सिनेमा के नैरेशन को शायद मैं आज इतना बेहतर नहीं समझ सकता था अगर मैंने ये दो किताबें न पढ़ी होतीं। पहली किताब थी मनोहर मलगांवकर की ‘शालीमार’ और दूसरी थी ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘बंबई रात की बाहों में’।

पहली किताब के बारे में पहले।

पटकथा लेखन के उस्ताद कृष्णा शाह ने ‘शालीमार’ की पटकथा खुद स्टैनफर्ड शेरमॅन के साथ मिलकर लिखी थी। चूंकि शालीमार अपने दौर की एक महत्वाकांक्षी फिल्म थी और कृष्णा शाह खुद हॉलीवुड और ब्रॉड-वे में काफी हाथ आजमा चुके थे, लिहाजा उन्होंने इस पर किताब लिखने का जिम्मा सौंपा अंग्रेजी के लेखक मनोहर मलगांवकर को, जो अपनी किताब ‘द मैन हू किल्ड गांधी’ की वजह से ज्यादा जाने जाते हैं। मैंने इसका हिन्दी अनुवाद पढ़ा, जो वाकई बहुत अच्छा था। इसे हिन्दी-उर्दू मिश्रित खालिस हिन्दुस्तानी जुबान में लिखा गया था। तो इस तरह से चार दिग्गजों की मेहनत से जो किताब तैयार हुई थी वह वाकई लाजवाब थी।

किताब की सबसे बड़ी खूबी थी चरित्र चित्रण, खूब-खूब बारीक डिटेल्स और दिलचस्प ब्योरे। शालीमार, जो एक फ्लाप और अपने समय से आगे की फिल्म मानी जाती है, हूबहू इस उपन्यास को आधार बनाकर लिखी गई थी। यदि आप उपन्यास पढ़कर फिल्म देखें तो हैरान रह जाएंगे कि हीरे की चोरी जैसे घिसे हुए सब्जेक्ट पर क्या वाकई इतने शोध के साथ लिखा जा सकता है। हैरानी की बात यह है कि उपन्यास के विपरीत फिल्म मुंबइया लटकों-झटकों और गानों में फंसकर रह गई।

वापस लौटते हैं किताब पर। किताब दो भागों में है। पहला भाग बहुत छोटा है छह सात पृष्ठों का। इसे नायिका की आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है। पूणे में एक आर्मी के जवान से प्यार होना और धोखा खाना। बस इतना ही। अगला भाग दरअसल एक थ्रिलर जैसा है। हीरों की चोरी के लिए जुटे दुनिया के दिग्गज चोर, कानून की पहुंच से दूर एक टापू और साजिश। इस उपन्यास की खूबी है इसके बारीक तथ्यों से सजाए गए ब्योरे।


शुरुआत एक हत्या से होती है। जिस गन से गोली चलती है आप उसकी तकनीकी खूबियों से भी वाकिफ हो जाते हैं। आगे आने वाले हर किरदार का अपना इतिहास है। वह काल्पनिक नहीं है। एंटर द ड्रैगन के अभिनेता जॉन सैक्सन के निभाए किरदार के बारे में आप जानना शुरु करते हैं तो उनका फौजी इतिहास, वास्तविक युद्ध के डिटेल सामने आते हैं। वे बोल नहीं सकते- इसकी बाइलोजिकल डिटेल भी आपको पता चलती है। उनकी छड़ी आवाज नहीं करती क्योंकि उसके नीचे एक रबर का टुकड़ा लगा है।

फिल्म के विलेन रेक्स हैरीसन एक नफासत पसंद खलनायक है। किताब में उसके खाने की मेज पर लगे लजीज पकवानों का भी जिक्र है। खुले में पकाई जा रही समुद्री मछलियों से लेकर महल में सजी नाजुक और खूबसूरत सजावटी चीजों तक में आप रमने लगते हैं। इसमें खूबसूरत सोने की परत वाले सिगरेट केस, चाइनीज क्राकरी, पर्दे से लेकर बाथरूम मे लगे कीमती टाइल्स तक के बारे में इतनी बारीकी से लिखा गया है कि पढ़ते-पढ़ते आपको लगता है आप सचमुच किसी टापू में बने आलीशान महल के मेहमान हैं। और जब आप हिफाजत में रखे गए हीरे की तरफ बढ़ते हैं तो उन तकनीकी बारीकियों से दो-चार होते हैं जो उस हीरे की हिफाजत के लिए जुटाई गई हैं। जमीन में बिछाए विस्फोटक, लेजर बीम, अलार्म, क्लोज सर्किट कैमरों के बारे में बहुत प्रमाणिकता से लिखा गया है।

इस सबके बाद भी अगर सिर्फ इतना होता तो यह एक दिलचस्प उपन्यास नहीं होता। यहां चरित्रों के बीच दिलचस्प टकराव है, उनका सेंस आफ ह्यूमर, उनके बदलते रंग हैं जो आपको हैरत में डाल देते हैं। सिनेमा मे मोंताज विधा का व्याकरण रचने वाले आइजेंस्टाइन ने लिखा था कि कैसे सपाट चरित्र होने पर आप अपनी दिलचस्पी खो देते हैं और चरित्र की अनिश्चितता आपको उसमें उलझाए रखती है।

‘शालीमार’ का हर चरित्र बहुआयामी है। जीनत एक सांवली नर्स है। नायक की पूर्व प्रेमिका। उससे नफरत करती है मगर कई प्रसंगों में पुराना आकर्षण जोर मारने लगता है। प्रेम आवेग के साथ उमड़ता है तो फरेब की कड़वाहट भी आ जाती है। उपन्यास के कई हिस्से नायक-नायिका के बीच दिलचस्प नोकझोंक से भरे हैं। रेक्स हैरिसन एक तहजीब और नफासत पसंद खलनायक है। उसकी इस नफासत में छिपी क्रूरता का एहसास हमें एक ही दृश्य में हो जाता है, जहां एक व्यक्ति को गोली से मौत के बाद वह नौकरों से कहता है कि यहां की गंदगी साफ करो।

कुल मिलाकर सभ्यता से दूर एक अपराधी की मिल्कियत वाला अनजान टापू, दुनिया भर को चोरों का जमावड़ा, करोड़ों की कीमत का सुर्ख खूबसूरत हीरा, इस पृष्ठभूमि में पनपती नफरत और मुहब्बत… ‘शालीमार’ आपको किसी और ही दुनिया मे ले जाता है। उपन्यास का अंत थोड़ा कमजोर है और उतना भव्य नहीं है, जैसा कि पूरे उपन्यास का कैनवस है, मगर आप अलग तरह के अनुभव से गजरने की संतुष्टि के साथ उपन्यास रखते हैं।

‘बंबई रात की बाहों में’ के बारे में अगली बार।

डॉयलॉग, डॉयलॉग और डॉयलॉग..

“माँ, मै फर्स्ट क्लास फर्स्ट पास हो गया हूँ”
“माँ तुम कितनी अच्छी हो”
“भैया!”
“आज पिंकी का जन्म-दिन है””मैने इस ज़मीन को अपने खून से सींचा है… ”
“वो एक गन्दी नाली का कीडा है”
“कुत्ते! कमीने! …..”
“इसे धक्के मारके बाहर निकाल दो ”
“ज़बान को लगाम दो ..”
“तुने मेरे पीठ पे छुरा भोंका है””मै कहती हूँ, दूर हो जा मेरी नज़रों से” ” मैंने तुम्हे क्या समझा, और तुम क्या निकले!”
“तुम मुझे ग़लत समझ रही हो….काश मैं सच्चाई बता सकता”

“घर में दो-दो जवान बेटियाँ हैं” “बेटी, तू तो पराया धन है”
“भगवान मैने तुमसे आज तक कुछ नहीं माँगा…..”

“मै तुम्हारे बिना नहीं जी सकती ”
“मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ.”

“अब हम किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहे…” ” क्या इसी दिन के लिए तुझे पाल-पोस के बड़ा किया था?”
“इस घर के दरवाज़े, तुम्हारे लिए हमेशा के लिए बंद हैं”

“तुम्हारे ख्याल कितने नीच है”
“खबरदार जो मुझे हाथ भी लगाया ..”
“छोड़ दो मुझे, भगवान के लिए छोड़ दो”

“अब सब ऊपर वाले के हाथ में है”
“I’m sorry, हम कुछ नहीं कर सके”
“24 घंटे तक होश नहीं आया तो ….. ”
“मैं कहाँ हूँ?”

“बोल! बोल हीरे कहाँ छुप्पा रखे है”


“वो कुत्ते की मौत मरेगा”
“इंसपेक्टर! गिरफ्तार कर-लो इसे ”
“कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं”

“मैं इस गीता पर हाथ रखकर यह सौगंध लेता हूँ की जो भी कहूँगा सच कहूँगा, और सच के सिवा कुछ नहीं कहूँगा.”
“कानून जज़्बात नही, सबूत देखता है”
“गवाहों के बयानात और सबूत को मद्दे-नज़र रखते ताज-ऐ-रात-ऐ-हिंद, दफा 302 के तहेत, मुजरिम को सजाए मौत दी जाती है”

“भगवान पे भरोसा रखो. सब ठीक हो जाएगा”
“भैया!”

“पुलिस मेरे पीछे लगी हुई है ..”
“अपने आप को पुलिस के हवाले कर दो. पुलिस ने चारों तरफ़ से तुम्हे घेर लिया है”
“ड्राईवर, गाड़ी रोको”
“मै यह तुम्हारा एहसान ज़िन्दगी भर नहीं भूलूंगा”

“बॉस! माल पकड़ा गया”
“अब तुम्हारी माँ हमारे कब्जे में है”
“गोली से उड़ा दो उससे”
“अगर माँ का दूध पिया है तो सामने आ.”
“ज्यादा होशियारी करने की कोशिश म़त करना ”
“भैया!”

“नहीं छोडूंगा तुझे. जान से मार डालूँगा.”
“रुक जाओ! कानून को अपने हाथ में मत लो”
“अपने हथियार फ़ेंक दो”
“भैया!”

“यह खून मैंने किया है, माय लोर्ड!”
“मै तुम्हारा एहसान ज़िन्दगी भर नहीं भूलूंगा”
“मुजरिम को बा-इज्ज़त बरी किया जाता है”

“पुलिस को तुम जैसे नौजवानों पर नाज़ है”

“ठहरो! यह शादी नहीं हो सकती!”
“तुम मेरे लिए मर चुके हो.. ”
“एक बार मुझे माँ कहकर पुकारो बेटा”
“माँ तुम कितनी अच्छी हो”
“भैया!”

तो ये हैं वो तमाम स्टीरियोटाइप डॉयलॉग जो हम कई दशकों से हिन्दी फिल्मों में सुनते चले आए हैं। इसका एक दिलचस्प संकलन राजीव पंत की वेबसाइट पर देखने को मिला। मैंने उनमें से कुछ को सिर्फ एक सीक्वेंस में रख दिया है। शायद आपको यह किसी फिल्म के साउंडट्रैक और कहानी (?) जैसा मजा दे।

हॉरर फिल्में: भीतर छिपे भय की खोज

कभी लगातार प्रयोगों से बॉलीवुड सिनेमा को एक नया रास्ता दिखाने वाले राम गोपाल वर्मा ने शायद अब अपने लिए दो सुरक्षित जोन तलाश लिए हैं, अंडरवर्ल्ड और हॉरर। लंबे समय से इन्हीं दो विषयों को बदल-बदल कर प्रस्तुत करने वाले रामू इस बार फूंक लेकर आए हैं।

वैसे यह बाकी हॉरर फिल्मों से अलग सी दिखती है। यह रामू की खूबी है कि वे तकनीकी कारीगरी से एक ही विषय को दो बार प्रस्तुत कर देते हैं। खास तौर पर भूत में रात की कहानी को रिपीट करने का उन्होंने बड़े ही गर्व के साथ दावा किया था। इस दावे के साथ ही वे कहानी पर अपनी निर्भरता को कम करते जाते हैं। रात फ्लाप थी और भूत एक हिट फिल्म। उनका मानना है कि सिर्फ कहानी कहने का तरीका अहम होता है, कहानी नहीं…

शायद बाद में रामू को हिन्दी सिनेमा के एक बेहतरीन कॉपीकैट के रूप में ही याद किया जाएगा। रामू मौलिक होने का भ्रम रचते हैं। मौजूदा हॉरर फिल्मों के बीच फूंक को एक मौलिक प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। यह फिल्म काला जादू, टोने और टोटके जैसी भारतीय मानस में रचे-बसे भय को अपना आधार बनाती है। इस लिहाज से निःसंदेह रामू ने एक दिलचस्प हॉरर फिल्म तैयार की है। इसे ज्यादा विश्वसनीय बनाने के लिए उन्होंने इस फिल्म में किसी जाने-माने चेहरे को नहीं लिया है जबकि भूत में सितारों का जमावड़ा लगा दिया था।

अगर राज खोसला के काम को छोड़ दिया जाए तो भारत में अच्छी हॉरर फिल्में नहीं के बराबर बनी हैं। आम तौर पर हॉरर फिल्में हॉलीवुड की घटिया नकल होती हैं। रामू भी इसके अपवाद नहीं हैं। वहीं पश्चिम में रोमान पोलांस्की जैसे गंभीर निर्देशक ने निर्देशक ने रोजमेरीज बेबी जैसी हॉरर फिल्म बनाई और उसमें ईसाई मिथकों का इस्तेमाल किया। पश्चिम में हॉरर को हमेशा लोगों को मन में छिपे भय, मिथक तथा किंवंदंतियों से जोड़ कर देखा गया है। तभी द एक्जोरसिस्ट, फ्राइडे द थर्टींथ और द ओमेन जैसी फिल्मों की परिकल्पना संभव हुई। द ओमेन में तो पटकथा की बुनावट इतनी सघन है कि दर्शक खुद उन मिथकों में खोते जाते हैं। शायद फूंक में द एक्जोरसिस्ट की छाया देखी जा सकेगी। वे इसे भारतीय परिवेश और जादू-टोने की किंवदंतियों के साथ प्रस्तुत करेंगे। लेकिन अगर गौर करें तो सन 1980 में रिलीज कस्तूरी और उसी साल आई निर्देशक द्वय अरुणा राजे और विकास देसाई (जो पति-पत्नी थे) की गहराई भी इसी थीम को गंभीर तरीके से उठाती है।

ये दोनों फिल्में सत्तर के दशक में चले समानांतर सिनेमा आंदोलन की शैली मे इस विषय का निर्वाह करती हैं। गहराई दरअसल अनंत नाग के अभिनय और पद्मिनी कोल्हापुरे के न्यूड सीन के कारण याद की जाएगी। हालांकि निर्देशक द्वय की गंभीरता और ईमानदारी पर कोई शक नहीं किया जा सकता। यह अपने समय की खासी चर्चित फिल्म थी, जिसे आलोचकों की सरहाना और व्यावसायिक सफलता दोनों ही मिली। गहराई जैसी फिल्म का निर्माण 26-27 साल बाद भी एक साहसिक कार्य माना जाएगा। वहीं कस्तूरी एक भय का वातावरण रचती है। धीरे-धीरे आप खुद जंगल के पास बसे एक गांव में आदिवासियों के वहम का शिकार होते जाते हैं। फूंक इन दोनों फिल्मों की विषय वस्तु को छू भी पाएगी इसमें संदेह है। दोनों ही फिल्में वैज्ञानिक चिंतन और आस्था के बीच सवाल खड़े करती हैं। यह फिल्में दरअसल नागर सभ्यता में जी रहे इनसान की उस सामूहिक अवचेतना को टटोलती हैं जिसके जेहन में आज भी भय और दुश्चिंताएं घर किए हुए हैं।


हॉलीवुड में सालों पहले द एंटिटी नाम की फिल्म भी सभ्य इनसान की इस दुविधा को बेहद सशक्त तरीके से उठाती है। इन दोनों फिल्मों के एक साल बाद सन् 1981रिलीज यह फिल्म एक सच्ची कहानी पर आधारित है जिसमें एक औरत को कोई अदृश्य ताकत प्रताड़ित करती है और उससे बलात्कार करती है। निर्देशक की खूबी है कि उसने हमारे तार्किक मन और भय को एक तार्किक बहस में तब्दील कर दिया। मध्य तक पहुंचते हुए यह फिल्म सिर्फ एक डरावनी कहानी नहीं बल्कि अनजानी शक्तियों के अस्तित्व पर छिड़ी एक बड़ी बहस से जुड़ जाती है। हालांकि फिल्म बिना किसी समाधान के खत्म हो जाती है,मगर हमारे मन में बहुत से सवालों को छोड़ती हुई।

भारत में हॉरर या भय कभी सिनेमा में गंभीरता से लिया जाने वाला विषय नहीं रहा। अगर यादगार हॉरर-सस्पेंस फिल्मों की बात करें तो श्याम-श्वेत फिल्मों के दौर की महल, वो कौन थी और संगदिल जैसी फिल्मों को याद किया जा सकता है। कमाल अमरोही की फिल्म महल को शायद इस फिल्मों के बीच एक मील के पत्थर की तरह खड़ी है। इस फिल्म को विश्व सिनेमा की द कैबिनेट आफ डाक्टर कैलीगरी जैसी फिल्मों के बीच खड़ा करना मुनासिब होगा। गहरे मनोवैज्ञानिक संदर्भ, शाट्स लेने की सर्वथा नई शैली, अवसाद से भरे मधुर गीत-संगीत ने इसे उच्च कोटि की फिल्मों में लाकर खड़ा कर दिया।
यहां संगदिल को भी याद करना दिलचस्प होगा, जिसे लगभग भुला ही दिया गया है, सिवाय इसके कि कभी आकाशवाणी से तलत महमूद की रेशमी आवाज में इसके खूबसूरत गीत सुनाई दे जाते हैं। संगदिल दरअसल शार्लट ब्रांटी के उपन्यास जेन आयर पर आधारित थी। सन 1952 में रिलीज इस फिल्म के निर्देशक आरसी तलवार ने ज्यादा समझौते भी नहीं किए थे। फिल्म का अंत अवसाद भरा और हिन्दी सिनेमा के परंपरागत नियमों के अनुकूल नहीं था। फिल्म में गहरे डार्क एनवायरमेंट का इस्तेमाल किया गया था,जो इतना प्रभावशाली था कि अब कंप्यूटर के जरिए पूरी फिल्म को कलर स्कीम देने वाली फिल्में भी प्रभाव के मामले में उसके आगे पानी भरती दिखेंगी।

यही बात 1964 में आई राज खोसला की फिल्म वो कौन थी के बारे में भी कहा जा सकता है। मगर शायद उस परंपरा को ये निर्देशक खुद भी आगे नहीं बढ़ा सके। बाद में उन्होंने इसी थीम को मेरा साया (1966) और अनीता (1967) में दुहराने की कोशिश की।

फूंक जैसी फिल्म हॉरर सिनेमा में कुछ नया जोड़ सकेगी इसमें संदेह है। शायद अभी हमें साइको, रेबेका और 39 स्टेप्स जैसी फिल्मों के लिए लंबा इंतजार करना होगा।

कॉमिक्स और सिनेमाः फ्रेम-दर-फ्रेम

बीते दिनों चैनल जूम पर डायरेक्टर्स कट में शेखर कपूर का इंटरव्यू देखा. इंटरव्यू लेने वाले कबीर बेदी थे. जितने उत्साह से मैं देखने बैठा था, उस लिहाज से निराशा हुई. बहुत सतही से सवाल पूछे गए. जहां कहीं भी शेखर किसी मुद्दे पर खुलने को होते, सवालों का रुख बदल जाता.


बहरहाल शेखर ने इस बीच दो दिलचस्प बातें कहीं. पहली न्यू मीडिया (जो कि दरअसल इंडिपेंडेंट सिनेमा के बारे में ही था) और दूसरा कहानी सुनाने की अपनी सनक के बारे में… उन्होंने अपने कॉमिक बुक प्रोजेक्ट के बारे में भी विस्तार से बताने की कोशिश की. शेखर जो अपने ब्लाग में अक्सर दार्शनिक किस्म के सवालों से जूझते नजर आते हैं, हल्की-फुल्की कॉमिक विधा के प्रति उनकी दिलचस्पी मुझे अच्छी लगी. मुझे पिछले दिनों यह भी जानकर बहुत अच्छा लगा कि वाचोव्स्की ब्रदर्स (जिन्होंने मैट्रिक्स सिरीज की फिल्में निर्देशित कीं और बतौर लेखक-निर्माता वी फार वेंडेटा जैसी उम्दा फिल्म दी) ने अपने कैरियर की शुरुआत बढ़ईगिरी और बाद में कॉमिक बुक्स लिखने से की.

कॉमिक्स और सिनेमा के बीच प्रारंभ से ही मुझे गहरा नाता महसूस होता है. फ्रेम-दर-फ्रेम कहानी कहने की विधा कई बार सिनेमाई अवधारणाओं के बहुत करीब जाती है. खास तौर पर नैरेशन के बहुत से दिलचस्प तरीके मुझे कॉमिक्स से ही सीखने को मिले. यह मुझे फिल्म विधा के काफी करीब ले जाता है. हाल की कॉमिक्स पर अगर आप नजर डालें तो वहां तस्वीरों और उनके सीक्वेंस पर बहुत ध्यान दिया जाता है मगर उनमें वह बात नजर नहीं आती जो ली फॉक जैसे क्लासिक कॉमिक रचयिताओं ने अपनी कहानियों में बुना था.

बचपन में टाइम्स आफ इंडिया के सौजन्य से यानी कि होश संभालने से लेकर किशोर वय तक हमें इंद्रजाल कॉमिक्स पढ़ने को मिली. यह कहानियों का एक अंतहीन खजाना था. अफसोस कि मैं उस खजाने को लंबे समय तक सहेज कर नहीं रख पाया. मगर बीते दिनों मुझे एक ब्लाग देखने को मिला, जिसमें इंद्रजाल कॉमिक्स के तमाम पुराने अंकों को स्कैन करके प्रकाशित किया जा रहा है तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. शायद यह जानकर अजीब लगे मगर अपने अब तक के जीवन की सबसे पहली और सबसे गहरी स्मृतियों को याद करने की कोशिश करता हूं तो मुझे अपने जेहन में कॉमिक्सों की कुछ तस्वीरें कौंधती हैं.


मुझे याद है इंद्रजाल कॉमिक्स ने फैंटम, मैंड्रेक और फ्लैश गार्डेन के अलावा कुछ और किरदार भी प्रकाशित किए. ये ज्यादातर अमेरिकन और यूरोपियन कॉमिक्स कैरेक्टर थे. इन्हें किंग फीचर्स सिंडीकेट के सौजन्य से प्रकाशित किया जाता था. आम तौर पर ये चरित्र एक आम आदमी से होते थे. अमेरिका के सार्वजनिक और निजी जीवन की झलक उनमें खूब देखने को मिलती थी. किसी बेहतर पटकथा की तरह इनकी स्टोरी लाइन काफी अहम होती थी.

धीरे-धीरे मुझे यह महसूस हुआ कि अगर कॉमिक्स की शैली का गहरा अध्ययन किया जाए तो सिनेमाई नैरेशन बुनने में काफी मदद मिल सकती है. इतना ही नहीं कॉमिक्स का हर फ्रेम कैमरे की तरह एक खास एंगल लिए होता है और उस एंगल से बहुत सी बातें निर्धारित होती हैं. मुझे ऐसे हजारों स्केचेज याद हैं जिनके खास एंगल कॉमिक्स की कहानी मे एक अंडरकरेंट पैदा करते थे. उदाहरण के तौर पर अक्सर कोई खूबसूरत लड़की अगर हमारे नायक को सेड्यूस करने का प्रयास करती थी तो पूरे फ्रेम पर हम उसके खूसबसूरत पांवों को (अक्सर मोजे पहनते या अपनी सैंडिल ठीक करते) देखते थे और पार्श्व में नायक नजर आता. ली फॉक स्थितियों के दुहराव से एक अजीब किस्म की नाटकीयता रचते थे.


मैंने अपने बचपन में कभी भारतीय कॉमिक्स नहीं पढ़ी. मुझे याद है कि उसी दौरान शुरु होने वाले कैरेक्टर्स चाचा चौधरी, फौलादी सिंह और राजन-इकबाल का हम लोग मजाक बनाया करते थे. हालांकि अमर चित्र कथा के साथ ऐसा नहीं था मगर मुझे अमर चित्र कथा में पंचतंत्र की कहानियां छोड़कर उससे कभी ज्यादा लगाव नहीं हो सका. जो विदेशी कॉमिक्स पढ़ी (शायद वह हिन्दी में विदेशी कॉमिक्स के प्रकाशन का सबसे सुनहरा दौर था) उनमें विश्व के करीब सभी प्रमुख कॉमिक ट्रेंड्स से हम परिचित हो गए थे. इनमें प्रमुख थे द्वितीय विश्व युद्द की पृष्ठभूमि पर बनी कमांडो, वाल्ट डिज्नी के कैरेक्टर मिकी माउस, डोनाल्ड, डीसी कॉमिक्स के सारे सुपर हीरो, स्पाइडर मैन, स्टार वार्स और स्टार ट्रैक जैसी फिल्मों पर आधारित कॉमिक्स, लगभग उपन्यास की शक्ल लिए एस्ट्रिक्स, लकी ल्यूक और टिनटिन के कॉमिक, विदेशों से आयातित कॉमिक्स और सदाबहार इंद्रजाल कॉमिक्स के कैरेक्टर…
हालांकि जब भी मैंने कॉमिक्स पर आधारित फिल्में देखीं, मुझे निराशा ही हाथ लगी. मैंने सबसे पहले इस तरह की फिल्म स्पाइडर मैन स्ट्राइक्स बैक देखी थी. इसके बाद हल्क (पुरानी, हाल ही में नई देखी) देखी. दोनों ही फिल्में बहुत साधारण थीं. सिवाय इसके कि स्पाइडर मैन में बिकनी मे सजी एक लड़की पूरी फिल्म में नजर आती है और हल्क की नायिका जंगल में नहाते वक्त खुद को टॉपलेस दिखा जाती है. बाद में सुपरमैन सिरीज की फिल्में देखीं और सुपरगर्ल से खासा इंप्रेस रहे. मगर इसके पीछे तकनीकी जादू और स्पेशल इफेक्ट से पैदा होने वाला चमत्कार ज्यादा था. कॉमिक्स अपने नैरेशन में जिस गहराई तक मुझे ले जाते थे उसके मुकाबले में ये फिल्में मुझे बहुत सतही जान पड़ती थीं. मुझे लगता है कि अगर मैं उनकी तकनीकी बारीकियों पर लिखने लगूं तो एक ब्लाग कम पड़ जाएगा…

तो इस बारे में फिर कभी…

किस्सा-ए-हॉलीवुडः गतांक से आगे


एंपायर स्ट्राइक्स बैक जैसे साइंस फिक्शन और फ्लैश गार्डेन और स्पाइडर मैन स्ट्राइक्स बैक जैसी कॉमिक चरित्रों पर आधारित फिल्मों के बाद उम्र का वह दौर आया जब हम- यानी मैं और मेरे साथी वयस्कों की दुनिया में कदम रख रहे थे. हमारी उम्र थी करीब 16-17 बरस… उस दौर में ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी पर पुरानी फिल्में देखने, जून की तपती दोपहर में साइकिल दौड़ाने तथा शाम को हल्की उमस के बीच कुछ दोस्तों के साथ अंग्रेजों के जमाने में बने सीनियर इंस्टीट्यूट के हॉल में बैडमिंटन खेलने के अलावा टाइम पास का कोई साधन नहीं था.

ब्रुक शील्ड्स हॉलीवुड की वह पहली अभिनेत्री थी जिसे मैं पहचानता था. एंडलेस लव वह पहली फिल्म थी जिसके वयस्क संसार में हमने पसीने से भीगी मुट्ठी में टिकट भींचे धड़कते दिल के साथ कदम रखा था. सहारा और द ब्लू लैगून ने हमें ब्रुक शील्ड्स का फैन बना दिया. उन दिनों शहर के छोर पर एक पुराने से सिनेमाहाल में सुबह के शो में अंग्रेजी फिल्में लगा करती थीं. खास बात यह थी वहां फिल्मों का सेलेक्शन बहुत अच्छा था. वहां पर मुझे बेन हर, मैड मैक्स, एलियंस, ब्लेड रनर से लेकर जैकी चान तक की फिल्में देखने का मौका मिला.

अक्सर गिनती के 15-20 आदमी फिल्में देखने जाया करते थे. साइकिल स्टैंड वाले से हम नफरत करते थे क्योंकि उसे कोई बीमारी हो गई थी उसकी उंगलियां और नाक गलती जा रही थी और वह उन पर पट्टियां बांधे रहता था. भीतर हाल बहुत पुराना सा था और बहुत सी कुर्सियां टूटी हुई थीं. हम एक खास जगह चुनकर बैठते थे. वहीं पर मैंने डाइ हार्ड और एस्केप फ्राम न्यूयार्क भी देखी. एक फिल्म जिसे अब बहुत कम याद किया जाता है सुपरगर्ल– का जादू हम पर लंबे समय तक छाया रहा. उसकी नायिका हेलेन स्लाटर के तो हम फैन बन गए थे.

वहीं पर हमने काऊब्वायज़ के एक्शन देखे और चाइना और हांगकांग की धरती पर नृत्य कला जैसे मार्शल आर्ट वाली फिल्में भी. कई बार कुछ कम प्रचलित फिल्में सुबह नौ बजे के शो में भी लग जाया करती थीं. उसके ठीक बाद एक और अंग्रेजी फिल्म उसके बाद से पौने एक बजे हिन्दी फिल्म शुरू होती थी. कई बार हम दोनों अंग्रेजी फिल्मों का टिकट खरीद लेते थे और पहली फिल्म खत्म होने के बाद हॉल में बैठे रहते थे. बेन हर फिल्म देखने के लिए हमें सुबह साढ़े आठ बजे सिनेमाहाल पहुंचना पड़ा था.

भाषा अक्सर आड़े आती थी. परिवेश भी अनजाना था और उंगली पर गिने जाने लायक अभिनेताओं को हम पहचानते थे. इसके बावजूद कई छवियां आंखों से होती मन में और मन से होती अतीत होती किसी अंधेरी गुफा में भीत्ति चित्र की तरह कैद हो गई हैं….