गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है

पिछले दिनों लंबी रेल यात्राओं के दौरान बहुत सी फिल्मी छवियां मन में कौंध गईं। भारतीय फिल्मों का तो रेलगाड़ी से गहरा रिश्ता रहा है। जरा सुपरहिट फिल्म ‘शोले’ का पहला सीन याद करिए। एक खाली से सूनसान प्लेटफार्म पर धुंआ उगलती ट्रेन रुकती है। एक शख्स उतरता है। इसके बाद से फिल्म के टाइटिल स्क्रीन पर उभरने शुरु होते हैं। निर्देशक बड़ी सहजता से हमें एक दूसरी दुनिया के भीतर लेकर जाता है। फिल्म खत्म होती है तो उसी सूनसान प्लेटफार्म से हम धर्मेंद्र को रामगढ़ से लौटते देखते हैं। घटनाओं की लंबी श्रृंखला के बाद दोबारा ट्रेन देखकर हमें अहसास होता है कि इस बीच कितना कुछ घटित हो गया। कितने नए रिश्ते बने, कितने बिछुड़े, किसी का प्रतिशोध पूरा हुआ, कोई अकेला रह गया।

‘पाकीज़ा’ फिल्म की ट्रेन को कोई भूल सकता है। मीना कुमारी और राजकुमार की पहली मुलाकात ट्रेन में होना, राजकुमार का नोट लिखकर जाना – “आपके पांव बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे”। मीना कुमारी के लिए वह पूरी जिंदगी का हासिल बन जाता है क्योंकि ये पांव तो कोठों पर नाचने वाली एक तवायफ के थे। ट्रेन की दूर से रुक-रुककर आती सीटी की आवाज़ मानों मीना कुमारी के लिए जीवन में एक नई उम्मीद की किरण बन जाती है।

ट्रेन में दो अजनबियों का मिलना हमारे बॉलीवुड के लिए एक आइडियल सिचुएशन है। पहली नजर के प्यार से लेकर मीठी नोकझोंक तक के लिए यहां खूब स्पेस होता है। कई खूबसूरत रोमांटिक गीत ट्रेन में ही फिल्माए गए हैं। चाहें देव आनंद की “है अपना दिल तो आवारा…” हो या राजेश खन्ना की “मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू”। ‘डीडीएलजे’ में सिमरन का राज का हाथ थामने के लिए ट्रेन के साथ-साथ दौड़ना तो बॉलीवुड का एक आइकॅनिक सीन बन चुका है। धर्मेद्र की एक पुरानी फिल्म ‘दोस्त’ का एक गीत “गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है…” तो एक नैरेटर की तरह काम करता है।

बॉलीवुड की यह ट्रेन ड्रामा भी क्रिएट करती है। घर से भागे हुए डरे-सहमे कोमल हृदय बालकों, लड़कियों या मजबूर स्त्रियों के लिए को कभी मालगाड़ी के डब्बों में शरण मिलती है तो कभी सवारी गाड़ी में। कभी ये परिवार को जोड़ती हैं तो कभी इन्हीं रेलगाड़ियों में परिवार बिछुड़ भी जाते हैं। फिल्म ‘शक्ति’ में अमिताभ और स्मिता पाटिल छेड़छाड़ के एक हादसे के बाद एक-दूसरे से मुखातिब होते हैं। मुज़रिमों के फरार होने के लिए रेलवे क्रासिंग से बेहतर कोई जगह नहीं होती और किसी ज़माने में खलनायक को मारने का एक आसान तरीका होता था कि उसका पैर पटरियों में फंस जाता था और सामने से ट्रेन आ रही होती थी।

‘द इकोनामिस्ट’ ने बीती सदी का लेखाजोखा करते हुए रेल के बारे में कहा था कि इनकी मदद से न सिर्फ लोग एक एक जगह से दूसरी जगह पहुँचे बल्कि इसने विचारों के आदान-प्रदान में भी बड़ी भूमिका निभाई। सिर्फ बॉलीवुड नहीं लीक से हटकर बने सिनेमा में भी ट्रेन का बहुत अहम रोल रहा है। हवा में लहराते कास के फूलों में बीच टहलते बच्चे, दूर से आती धुंआ उगलती ट्रेन और फिर पूरे स्क्रीन पर छा जाने वाली उसकी धक-धक। ‘पाथेर पांचाली’ का यह सीन विश्व सिनेमा के महानतम दृश्यों में से एक है। उन्हीं सत्यजीत रे की पूरी फिल्म ‘नायक’ ट्रेन में फिल्माई गई है। अवतार कौल की फिल्म ’27 डाउन’ ने मुंबई की लोकल ट्रेन को जैसे एक किरदार में बदल दिया था। हैंड-हेल्ड कैमरे की मदद से इसमें मुंबई के तत्कालीन जीवन के सबसे जीवंत दृश्य फिल्माए गए थे। ‘गांधी’ फिल्म की चर्चा तो ट्रेन के बगैर नहीं की जा सकती है। गांधी के जीवन में आए हर नए मोड़, उनके हर फैसले और हर नए कदम पर कहीं न कहीं ट्रेन मौजूद है।

रेलगाड़ियां अभी भी फिल्मों में अक्सर दिख जाती हैं मगर उनका फिल्म की कहानी से और किरदारों से वह रिश्ता नज़र नहीं आता। “शनै: शनै: होती जाती है अब जीवन से दूर/ आशिक जैसी विकट उसासें वह सीटी भरपूर”। वीरेन डंगवाल की कविता ‘भाप इंजन’ की ये महज एक पंक्ति हमारे समाज से एक पूरे दौर के खत्म होने को बयान करती है।

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हमारा बॉलीवुड थर्ड जेंडर को कैसे देखता है?

शायद एक वक्त आएगा जब लोग आश्चर्य करेंगे कि किसी पुरुष के स्त्रियों जैसे व्यवहार को लंबे समय तक भारतीय सिनेमा में मजाक का विषय माना जाता रहा है। हिन्दी सिनेमा इस मामले में खासा निष्ठुर रहा और उसने उसी निर्ममता से उसने उभयलिंगी (Bisexual), ट्रांससेक्सुअल या ट्रांसजेंडर लोगों का मजाक उड़ाने वाला बर्ताव किया जैसा तत्तकालीन सोसाइटी करती थी। अर्से तक सिनेमा में इस तरह के किरदार (जिन्हें हम एलजीबीटी भी कह सकते हैं) हास्य पैदा करने का जरिया बने रहे।

राहुल रवेल की फिल्म ‘मस्त कलंदर’ को भी इसी कैटेगरी में रख सकते हैं मगर यह पहली बॉलीवुड फिल्म थी, जिसमें संकेतों में नहीं साफ तौर पर एक गे किरदार दिखाया गया। यह किरदार निभाया था अनुपम खेर ने, जो फिल्म में अमरीश पुरी के बेटे बने थे। इसके कई साल बाद महेश भट्ट निर्देशित पूजा भट्ट की फिल्म ‘तमन्ना’ में भले ही थोड़ा मेलोड्रामा हो मगर हिजड़ा बने परेश रावल के किरदार को संवेदनशीलता से दिखाने की कोशिश की गई थी। वैसे इस फिल्म की पृष्ठभूमि में कई सामाजिक बदलाव भी थे। ‘तमन्ना’ 1997 में रिलीज हुई थी और यही वो वक्त था जब मध्य प्रदेश में पहले ट्रांसजेंडर राजनीतिक शख्सियत शबनम मौसी का उभार देखने को मिला।

दरअसल यह भारतीय समाज का वह दौर था जब यह छोटा सा तबका हमारे समाज में अपने लिए सम्मानजनक जगह बनाने की जद्दोजेहद में दिखने लगा था। वास्तविक जीवन के चरित्रों और आसपास की खबरों में दिलचस्पी रखने वाले महेश भट्ट ने यह स्वीकार किया था कि ‘तमन्ना’ की प्रेरणा के पीछे कहीं न कहीं शबनम मौसी ही था। हालांकि बाद में आशुतोष राणा ने ‘शबनम मौसी’ में रीयल लाइफ का यही रोल निभाया मगर यह फिल्म औसत दर्जे की होने के कारण न तो चली न इसकी ज्यादा चर्चा हुई।

हालांकि मेनस्ट्रीम सिनेमा में ट्रांसजेंडर्स का मजाक उड़ाना खत्म नहीं हुआ था। शाहरुख खान की फिल्म ‘कल हो न हो’ में होमोसेक्सुअल रिश्तों को लेकर इस तरह से मजाक रचे गए कि एक ए क्लास और फैमिली फिल्म होने के बावजूद लोग बिना हिचक उन पर हंसे। इसने मुख्यधारा के सिनेमा के लिए एक नया रास्ता खोल दिया और ‘दोस्ताना’ जैसी फिल्म सामने आई, जिसने समलैंगिक संबंधों को कहानी में एक ट्विस्ट की तरह प्रस्तुत किया। इसके बाद आई सेक्स कॉमेडी की बाढ़ में यह लोगों को हंसाने की सबसे आसान सिचुएशन बन गई। बाद में मेनस्ट्रीम सिनेमा में होमोसेक्सुअल रिलेशन पर कुछ चालू किस्म की फिल्में भी बनीं जिनमें ‘गर्लफ्रैंड’ और ‘डोन्नोवाई’ शामिल हैं।

इस दौरान गंभीर कोशिशें भी होती रहीं। इस सिलसिले में 1996 में आई अमोल पालेकर की एक अपेक्षाकृत कम चर्चित मगर अहम फिल्म ‘दायरा’ का उल्लेख जरूरी है। इस फिल्म में निर्मल पांडे ने एक ट्रांसजेंडर चरित्र को बेहद वास्तविक तरीके से पर्दे पर उतारा था। इसी साल दीपा मेहता की सबसे चर्चित फिल्म ‘फायर’ आई, जो शबाना आजमी और नंदिता दास के समलैंगिक संबंधों को दर्शाती थी। लेस्बियन रिश्तों पर बनी इस फिल्म ने काफी विवाद खड़ा कर दिया।

1997 में कल्पना लाजमी की भी एक फिल्म ‘दरमियां’ आई। किरण खेर मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री की एक खत्म होती अभिनेत्री के रूप में आईं जो अपने बेटे आरिफ जकारिया के ट्रांसजेंडर होने को स्वीकार नहीं रही है। मेलोड्रामा होने के बावजूद यह एक डार्क फिल्म थी और विषय को तफसील से छूती थी। सन 2003 में इसी विषय को विस्तार देती फिल्म आई ‘गुलाबी आइना’ (द पिंक मिरर), इस फिल्म में सभी नए कलाकार थे। सेंसर बोर्ड को इस फिल्म से काफी ऐतराज था, लिहाजा इसे भारत में बैन कर दिया गया। सन् 2008 में लिसा रे और शीलत सेठ अभिनीत भारतीय अंग्रेजी फिल्म ‘आइ कांट थिंक स्ट्रेट’ की कहानी भी लेस्बियन संबंधों के इर्दगिर्द घूमती है। बीते साल लेस्बियन रिश्तों पर आधारित फिल्म ‘अनफ्रीडम’ को तो न्यूडिटी के कारण भारत में बैन कर दिया गया।

सुखद यह है कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री उत्तरोत्तर इस विषय के प्रति संवेदनशील होती गई है। इसका एक बेहतरीन उदाहरण 2013 में आई ‘बांबे टॉकीज’ है। भारतीय सिनेमा के 100 सालों को सेलेब्रेट करती इस फिल्म की चार शार्ट फिल्मों में से दो फिल्में काफी संवेदनशील तरीके से इस विषय को छूती हैं। पहली शार्ट फिल्म ‘अजीब दास्तां है ये’ का निर्देशन किया था करन जौहर ने। करन ने इस फिल्म में दांपत्य जीवन, दोस्ती और होमोसेक्सुअलटी को लेकर जटिल रिश्तों का तानाबाना बुना। करन की चिरपरिचित शैली के विपरीत इस फिल्म में एक किस्म उदासी और आइरनी है। यह फिल्म इस तरह के सेक्सुअल रुझान को एक अस्तित्ववादी टच देती है। वहीं जोया अख्तर की शॉर्ट फिल्म ‘शीला की जवानी’ भाई-बहन के रिश्तों पर है जहां छोटा भाई लड़कियों की तरह रहना पसंद करता है और बहन ही इस बात को समझती है।

निर्देशक शोनाली बोस और निलेश मनियार की फिल्म ‘मार्गरीटा विद अ स्ट्रॉ’ में समलैंगिक रूझान को निर्देशक ने पूरी संवेदनशीलता से रखा है, यह एक केंद्रिय विषय की तरह फिल्म में मौजूद है। व्हीलचेयर पर जीवन बिताने वाली अक्षम लड़की लैला अपने माता-पिता के संशय और भय के बीच उस साधारण जिंदगी की सीमाओं का अतिक्रमण करती है। वह अपने मन और सेक्सुअलिटी को एक्सप्लोर करती है और उसे अपने बाइसेक्सुअल होने का अहसास होता है। पाकिस्तान से आई एक अंधी लड़की खानम (सयानी गुप्ता) से वह शारीरिक और भावनात्मक रुप से जुड़ जाती है। यह पहली फिल्म है जो एलजीबीटी चरित्र को बतौर आउटसाइडर नहीं इनसाइडर देखती है। यह एक शुरुआत है, अभी शायद एक बिल्कुल सहज एलजीबीटी प्रोटेगॉनिस्ट का पर्दे पर आना बाकी है।

जब नायक से बड़ा बन जाता है किसी फिल्म का सपोर्टिंग एक्टर

जब आप ‘जय गंगाजल’ देखकर निकलते हैं तो देर तक आपके जेहन में डीसीपी बीएन सिंह घूमता रहेगा। इस किरदार के जरिए प्रकाश झा पहली बार स्क्रीन पर आए हैं और अन्य निर्देशकों के मुकाबले उन्होंने अपने लिए एक लंबा रोल चुना है और उसे बेहद सधे तरीके से निभाया भी है।

कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है एसपी आभा माथुर (प्रियंका चोपड़ा) का चरित्र इकहरा होता जाता है और प्रकाश झा ज्यादा मजबूती से उभरते हैं। यह पहली बार नहीं हुआ है। ऐसी बहुत सी फिल्में हैं जिनमें सपोर्टिंग एक्टर मुख्य किरदार पर भारी पड़ जाता है। नमक हराम में अमिताभ बच्चन का नाम अक्सर लिया जाता है। इसके अलावा ‘सत्या’ के मनोज बाजपेई, ‘नाम’ के संजय दत्त और ‘दीवाना’ में शाहरुख खान का नाम तुरंत याद आ जाता है।

मगर ‘जय गंगाजल’ में अंत तक पहुंचते-पहुंचते लगता है कि यदि प्रकाश झा थोड़ी और हिम्मत जुटाते और इस फिल्म में आभा माथुर की कहानी कहने की बजाय बीएन सिंह की कहानी कहते, तो शायद वे ज्यादा अहम फिल्म बना पाते। यह एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी के सामाजिक और मानवीय तौर पर जागरुक होने और भ्रष्ट सिस्टम के खिलाफ खड़े होने की कहानी है।

एक संवेदनशील निर्देशक के लिए न सिर्फ इस कहानी में बल्कि इस किरदार में बहुत संभावनाएं हैं। प्रकाश झा इन संभावनाओं का दुहरे स्तर पर निर्वाह करते हैं- बतौर निर्देशक और साथ ही साथ बतौर अभिनेता। दिलचस्प यह है कि इस किरदार को बेहतर बनाने में उनके निर्देशक से ज्यादा उनके अभिनेता का योगदान है, जो पहली बार सामने आया है।

उन्होंने इस चरित्र को बहुत कम संवाद दिए हैं और उसकी कमी अपनी आंखों व चेहरे के भाव और शारीरिक भाव-भंगिमाओं से पूरी करते हैं। वे एक घाघ किस्म के पुलिस अधिकारी के रूप में सामने आते हैं, जो सिस्टम में मौजूद हर गड़बड़ी को पहचानता है। शुरु के कुछ दृश्यों में उनका संवाद “आपको किसी ने गलत मिसगाइड किया है…” ध्यान खींचता है।

कहानी हमारी ईमानदार आइपीएस प्रियंका चोपड़ा को दोहरे संघर्ष में ले जाती है। पहला संघर्ष भ्रष्ट राजनेता बब्लू पांडे से है और दूसरा संघर्ष बीएन सिंह जैसे लोगों लोगों से है, जिनके हाथ में पूरा तंत्र है और जो जानते हैं कि कोई लाख सिर पटक ले उनकी मर्जी के बिना कुछ नहीं कर सकता। प्रियंका इस फिल्म में इस तरह से ईमानदार हैं जैसे मिनरल वाटर 100 प्रतिशत स्वच्छ होता है। उनके किसी निजी जीवन, उलझन, काम्प्लेक्स, कुंठा की झलक भी नहीं मिलती।

जबकि बीएन सिंह का स्याह चरित्र धीरे-धीरे बदलता है। प्रकाश झा की अदायगी में एक किस्म का ठहराव है। उन्होंने इतनी लाउड फिल्म में चरित्र को अंडरप्ले किया है और इसके बाद भी उसे गुम नहीं होने दिया। शायद प्रकाश झा के ये ‘शेड्स ऑफ ग्रे’ न देखने को मिलते तो फिल्म बहुत ही सपाट और उबाऊ हो जाती। इस फिल्म की मजबूरी थी कि वह प्रकाश झा को नायक नहीं बना सकती थी। लिहाजा कहानी लौटकर उसी पुराने ट्रैक पर पहुंच जाती है…

मगर ‘जय गंगाजल’ में आप फिल्म के भीतर एक फिल्म को संभावित होते और फिर उस संभावना को धुमिल होते हुए देख सकते हैं।

सोशल मीडिया पर ‘अनायकों’ की महागाथाएं

काफ्का की कहानी ‘मेटामार्फोसिस’ का बेहद मामूली जिंदगी जीने वाला नायक एक सुबह जागता है और खुद को तिलचट्टे में बदला हुआ पाता है। मगर 2011 की एक सुबह इलाहाबाद के गोविंद तिवारी की नींद खुलती है तो पता चलता है कि वे रातों-रात एक ऑनलाइन सेलेब्रिटी में बदल चुके हैं। उनका नाम विश्वव्यापी ट्विटर ट्रेंड में शामिल हो चुका है। ट्विटर ट्रेंड में गोविंद तिवारी का नाम भारत में पहले और विश्व में पांचवें स्थान पर चमक रहा था।

हर कोई हैरान था और यह जानना चाहता था कि गोविंद तिवारी आखिर है कौन? शायद उतना ही मामूली इंसान जितना कि लगभग सौ साल पूर्व प्रकाशित उस कहानी का नायक। इलाहाबाद में फाफामऊ का यह लड़का सिर्फ पलक झपकाती तस्वीरों वाले अपने रंगबिरंगे एनीमेशन से भरे ‘सबसे बुरे डिजाइन वाले’ ब्लाग के कारण इंटरनेट पर छा गया और उस पर बने चुटकुले ‘रजनीकांत जोक्स’ को टक्कर देने लगे।

गोविंद तिवारी को मिली यह लोकप्रियता 14 साल की रेबेका ब्लैक की याद दिलाती है, जिसके ‘फ्राइडे’ गीत को यू-ट्यूब पर करीब 20 लाख बार देखा जा चुका है और 50 हजार से ज्यादा लोगों ने उसे नापसंद किया है। लगभग हर किसी ने इस गीत और उसके वीडियो की आलोचना की। उनके गीत को दुनिया का सबसे घटिया गीत बताया गया। यहां तक कि रेबेका को गुमनाम धमकियां भी मिलीं कि अगर उसने अपना वीडियो यू-ट्यूब से नहीं हटाया तो उसे जान से हाथ धोना पड़ेगा। हालांकि बाद में लेडी गागा जैसी पॉप सिंगर्स ने रेबेका को सराहा और उसकी प्रतिभा को मौलिक बताया। यह कुछ-कुछ एक सामूहिक मज़ाक जैसा लगता है, जैसे शेरिडॅन सिमोव की किताब ‘व्हाट एवरी मैन थिंक अबाउट अपार्ट फ्राम सेक्स’ के साथ हुआ। दो सौ पृष्ठ की इस किताब के भीतरी पृष्ठ बिल्कुल कोरे थे। जाहिर तौर पर यह एक मज़ाक था मगर अमाजोन में इसकी बिक्री का ग्राफ डैन ब्राउन और जेके रोलिंग से भी ऊपर चला गया।

यह तो बात हुई मज़ाक की, लौटते हैं कुछ गंभीर मसलों पर। अभी कुछ ही दिन बीते ‘ब्रोकेन मार्निंग’ नाम से ब्लागिंग करने वाली एक गुमनाम सी दक्षिण भारतीय युवती ने ‘ओपन लेटर टु ए डेल्ही ब्वाय’ नाम की पोस्ट से उत्तर भारतीयों की दिखावे की संस्कृति पर तंज किया तो उसके ब्लाग और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर प्रतिक्रियाओं की भरमार लग गई। वह ट्विटर पर सबसे हॉट ट्रेंड बन गई न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व के ट्विटर ट्रेंड्स में भी उस पर चल रही बहस का असर दिखा। उसकी इस पोस्ट पर ढाई हजार से उपर कमेंट्स देखे जा सकते हैं। हालांकि इस बहस के मिज़ाज का हल्कापन बरकरार रहता है। इंटरनेट पर इन्हीं दिनों एक जोक प्रचलित हुआ, “पहले बम-ब्लास्ट, फिर भूकंप और अब मद्रासन का ब्लाग… दिल्लीवासी आखिर कितने झटके सहेंगें?”

अगर आप गौर करें तो एक बात इन सबमें कॉमन है, ये सारे गुमनाम से चेहरे हैं। ‘अ फेस इन द क्राउड’, मामूली इंसान, भीड़ में कहीं धक्का भी लगे तो आप पलटकर न देखें। दूसरी दिलचस्प बात यह है कि इन्होंने कुछ भी असाधारण नहीं किया। न ही वे ऐसा कुछ करने का दावा करते हैं। गोविंद तिवारी और रेबेका ब्लैक की उकता देने वाली अति-साधारणता ही इंटरनेट पर मज़ाक बनकर छा गई। मगर इसके बाद यह घटना साधारण नहीं रह जाती। एक मद्रासी लड़की अपनी रोजमर्रा के अनुभवों को अपने पर्सनल ब्लाग में लिखती है और वह एक तीखी बहस में बदल जाता है। जो उस वक्त चल रही तमाम राजनीतिक-सामयिक घटनाओं पर भारी पड़ता है। इन परिघटनाओं को हम कैसे समझ सकते हैं? क्या यह सिर्फ किसी का मज़ाक उड़ाने की हमारी आदत का नतीजा भर है, जैसा कि सतही तौर पर देखने में महसूस भी होता है, या बात कहीं आगे जाती है।

आइए सन 2007 में आई फिल्म ‘भेजा फ्राई’ को याद करते हैं। यह मल्टीप्लेक्स की शुरुआती सफल ऑफबीट फिल्मों में भी गिनी जाती है। फिल्म में दर्शक भारत भूषण बने विनय पाठक पर खूब हंसे, मगर उस हंसी के पीछे कहीं-न-कहीं एक बेहद मामूली इंसान की सफलता भी थी। उसकी बेवकूफियां सभ्य समझी जाने वाली सोसाइटी का हास्यास्पद पहलू दिखाती हैं। ‘मैं आज़ाद हूं’ के नायक को रास्ता दिखाने के लिए एक मामूली से इंसान से जबरन महापुरूष में बदलना पड़ता है, मगर ‘पीपली लाइव’ का नायक अंत तक लाचार बना रहता है, वह महान बनाए जाने के प्रति विद्रोह कर देता है और वहां से भाग खड़ा होता है क्योंकि उसकी सहज बुद्धि उसे इसके पीछे चल रही साजिशों के प्रति सचेत करती रहती है। यानी चीजों को देखने की निगाह बदल गई है। एलीट क्लास की निगाह से सोसाइटी को देखने की बजाय आम लोगों की निगाह से देखना।

यह दरअसल एक सामूहिक तोड़फोड़ है। परंपरागत प्रतिमानों को बदलने की एक जिद है। मगर दिलचस्प बात यह है कि इन प्रयासों के कोई मुखिया, अगुआ या नेता नहीं हैं। जैसे बहती हवाओं का कोई स्रोत नहीं होता और वो आंधी बन जाती हैं। यह नया मीडिया है, जो सब कुछ तेजी से बदल रहा है। इसका सबसे बेहतर उदाहरण शायद आक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट आंदोलन है। विश्व के इतिहास में शायद यह पहला आंदोलन है जिसका कोई नेता नहीं है। इसके पीछे वही आम लोग हैं तो जापान में आई सुनामी के कुछ ही क्षणों बाद सूचना और खबरों का सबसे विश्वसनीय स्रोत बन जाते हैं, ये वही हैं जो मुंबई ब्लास्ट में मदद के लिए हाथ बढ़ाते हैं। धमाकों की अफरा-तफरी के बाद जब वहां का मोबाइल नेटवर्क जाम हो गया तो ट्विटर पर मदद देने के लिए हाथ बढ़े। लोगों ने ठहरने के लिए अपने घर का पता, घर पहुंचाने के लिए अपनी कार और जरूरत पड़ने पर रक्तदान तक का प्रस्ताव दिया। अगर इंटरनेट पर मीडिया एक सामूहिक सामाजिक परिघटना में बदल चुका है तो फिर सौंदर्यशास्त्र से लेकर गुणवत्ता के मानदंड पुराने क्यों रहें?

कारनेल यूनीवर्सिटी ने एक खास प्रोग्राम की मदद से ट्विटर पर अपने नवीनतम शोध में यह साबित कर दिया कि सारी दुनिया में लोगों के मूड और मिजाज का एक खास पैटर्न होता है, जिसे पहचाना जा सकता है। यह लगभग तय है कि धीरे-धीरे सोशल मीडिया ही लोगों की सोच का पैमाना बनता जाएगा। यह किसी भी समाज की एक विराट धक-धक में बदल जाएगा या किसी हद तक बदल चुका है। शायद समाज विज्ञानियों को इसे नए सिरे से समझने की जरूरत पड़ेगी। इस धड़कन ने तमाम रास्ता दिखाने वाले मसीहाओं, इंटैलेक्चुअल समझे जाने वाले दंभी लोगों, गुरूर से भरे लेखकों और कलाकारों को उनकी सीमाओं का अहसास करा दिया है। गोविंद तिवारी और रेबेका ब्लैक खुद सारी जिंदगी अपनी लोकप्रियता की वजह नहीं समझ सकते। वे सिर्फ एक प्रतीक हैं, खास समझे जाने के प्रति विद्रोह का। एक आम आदमी की ताकत का एहसास कराता इसलिए नहीं कि वह खास है, इसलिए कि उसे ‘आम’ ही होना चाहिए।