Waiting : तीन स्त्रियों का सिनेमाई जादू

‘वेटिंग’ तीन स्त्रियों का सिनेमाई जादू है। अनु मेनन का सधा हुआ, सहज निर्देशन… जिसके कारण फिल्म धीरे-धीरे आपके भीतर उतरती है। कल्कि का खुद को चरित्र के भीतर समाहित कर लेना और सुहासिनी मणिरत्नम का प्रभावशाली तरीके से हिन्दी सिनेमा में कदम रखना। बाकी नसीरुद्दीन शाह के अभिनय पर कुछ अलग से कहने की जरूरत नहीं, वे तो जैसे इन तीन स्त्रियों के जादू को बैलेंस करने के लिए फिल्म में मजबूती के साथ खड़े हैं।

मृत्यु की प्रतीक्षा पर बहुत सी फिल्में बनीं हैं। हिन्दी सिनेमा में एक आइकॅनिक किरदार को जन्म दे चुकी ‘आनंद’ हो या उन्हीं राजेश खन्ना की ‘सफर’, मणि रत्नम की फिल्म ‘अंजलि’ हो या महेश भट्ट की तमाम शुरुआती फिल्में। मगर ये फिल्में मौत की प्रतीक्षा और अपने किसी प्रिय के बिछुड़ने के कष्टप्रद इंतजार को रूमानियन और मेलोड्रामा में डायल्यूट कर देती हैं। ‘वेटिंग’ इन फिल्मों से एक कदम आगे है। वह इस तकलीफदेह इंतजार के बीच प्रेम, धैर्य, उम्मीद जैसे शब्दों के मायने फिर से टटोलती है। बिना किसी बहस में गए… चुपके से।

कहानी बस इतनी सी है कि दो-तीन लाइनों में समाप्त हो जाए। एक हॉस्पिटल में पिछले आठ महीनों से अपनी पत्नी के कोमा से बाहर आने का इंतजार कर रहे प्रोफेसर शिव कुमार (नसीर) की मुलाकात तारा देशपांडे (कल्कि) से होती है, जिसका पति एक भीषण सड़क हादसे में घायल आइसीयू में भर्ती है। दोनों को नियति हर रोज इंतजार करना है- किसी बुरी खबर या फिर उम्मीद की एक किरण का। कल्कि एक आम नौजवान लड़की है, जो अचानक अपने जीवन में आए इस बदलाव से हैरान है। उसे हैरत है कि उसके 1400 से ज्यादा फेसबुक फ्रैंड्स और हजारों फॉलोअर्स होने के बावजूद वह अपने दुख में बिल्कुल अकेली है। उसे उम्मीद, धैर्य और पॉजीटिव थिंकिंग की बातें बेतुकी लगती हैं।

मगर प्रोफेसर के पास जीवन के देखने का एक नजरिया है। वह उनके शब्दों में नहीं उनके रोजमर्रा के जीवन और अपनी तकलीफ से हर रोज लड़ने के उनके जज्बे में नजर आता है। टूटे हुए वे भी हैं भीतर से… उन्हें इसका अहसास तब होता है जब अपनी तकलीफ से जूझ रही कल्कि उनके करीब आती जाती है। उम्र, अनुभव, सोच और पारिवारिक पृष्ठभूमि के फासलों के बावजूद दोनों एक-दूसरे की बात समझने लगते हैं क्योंकि उनका दुख एक है। दोनों चरित्रों के बीच दोस्ती या ऐसे ही किसी अनकहे रिश्ते को फिल्म बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत करती है। नसीर प्रोफेसर शिव के किरदार में अपने चरित्र को एक काव्यात्मक विस्तार देते हैं। कल्कि की बेचैनी और नसीर का धैर्य दोनों फिल्म में एक अनोखा सा संतुलन बनाते हैं और कहानी अपनी गति से आगे बढ़ती रहती है।

सुहासिनी की यह पहली हिन्दी फिल्म है। वे दक्षिण की एक बेहतरीन अभिनेत्री और निर्देशक होने के साथ-साथ जाने-माने निर्देशक मणि रत्नम की पत्नी भी हैं। ज्यादातर वक्त बिस्तर पर आंखें बंद किए नजर आती हैं। मगर कोमा के अलावा कुछेक दृश्यों के जरिए ही उन्होंने अपने चरित्र को कह दिया है। उनके छोटे-छोटे दृश्यों से नसीर का चरित्र और ज्यादा समझ में आता है। हालांकि इसे फिल्म की पटकथा की खूबी माननी चाहिए। छोटे-छोटे दृश्यों और संवादों के जरिए फिल्म अपनी बात को कहती आगे बढ़ती चलती है। कुछ लोगों को फिल्म धीमी लग सकती है। मगर यह उन फिल्मों में से है जहां कहानी सुनाने या कहने की हड़बड़ी नहीं है। ठीक वैसे जैसे जिंदगी की रफ्तार होती है, फिल्म भी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ती है। मिकी मैक्लेरी का संगीत सुखद है और फिल्म की टोन से मेल खाता है। खास तौर पर कविता सेठ की सुफियाना ‘ज़रा-ज़रा’ बेहतर खूबसूरत है।

‘वेटिंग’ किसी नतीजे की तरफ नहीं ले जाती। वह अपने दर्शकों को जिंदगी की एक सिचुएशन से रू-ब-रू कराती है। वह बारी-बारी से उन सब सवालों के पास जाती है, जो जिंदगी में हम सबके लिए अहम हैं। किसी को प्रेम करना क्या है? उसे हर स्थिति में स्वीकार करना? उम्मीद क्या है? खुद को हमेशा एक झूठे दिलासे में रखना या जिंदगी की तपती धूप में एक छांव… अनु मेनन इस फिल्म में किसी सवाल का जवाब नहीं देतीं, क्योंकि सवाल के जवाब हमारे भीतर ही मौजूद हैं। क्योंकि हमारा दुख और हमारा प्रेम हमारे भीतर ही मौजूद है। तो हमसे बेहतर जवाब किसके पास हो सकते हैं?

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कहानी हमारी हकीकत न होती… बॉलीवुड की ऐतिहासिक प्रेम कहानियां

‘मुगल-ए-आजम’, ‘हीर-रांझा’, ‘सोहनी-महीवाल’ और ‘बाजीराव-मस्तानी’… बॉलीवुड को प्रेम के किस्से लुभाते रहे हैं और शायद हर लार्जर दैन लाइफ फिल्म बनाने वाले निर्देशक का सपना होता है कि वह अतीत की किसी ऐसी ही कहानी को भव्य तरीके से प्रस्तुत करें। अपनी हर फिल्म में उत्तरोत्तर भव्य होते गए संजय लीला भंसाली की कुछ ऐसी महत्वाकांक्षा ‘बाजीराव मस्तानी’ के प्रोमो में झलकती है।

थोड़ा पलट के देखें तो बॉलीवुड की ये ऐतिहासिक प्रेम कहानियां भी दो तरह की हैं। एक वो किस्से जिन्हें हम इतिहास की प्रामाणिक मानते हैं और इतिहास की वो घटनाएं जिनमें हकीकत के अंश से ज्यादा लोगों की कल्पनाओं का रंग है, जैसे सलीम-अनारकली की कहानी या फिर बाजीराव-मस्तानी। इन सब कहानियों में बस एक ही समानता है, वो है प्रेम का उत्कट आवेग जो अक्सर मौत को छु जाता है।

पंजाब इन प्रेम कहानियों का गढ़ रहा है। पंजाब की इन प्रचलित कहानियों में मिर्ज़ा-साहिबा, सस्सी-पुन्नुँ और सोहनी-माहीवाल तो सुने-सुनाए जाते हैं, हीर रांझा की कहानी सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुई। वैसे तो पंजाबी साहित्य में लगभग 30 किस्से हीर या हीर राँझा नाम से मौजूद हैं मगर बाबा वारिस शाह की रचना को जो मकबूलियत मिली वह किसी और को नहीं।

वारिस शाह की इसी रचना पर सन 1970 में चेतन आनंद ‘हीर रांझा’ फिल्म लेकर आए। कैफी आजमी के बिना इस क्लासिक फिल्म की चर्चा अधूरी रह जाएगी। ‘हीर-रांझा’ कैफी की सिनेमाई कविता कही जा सकती है। इस फिल्म के सारे डॉयलॉग पद्य में थे। ठीक उसी तरह जैसे 1996 में आई ‘रोमियो+जुलिएट’ फिल्म में शेक्सपियर के नाटक को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत किया गया मगर उसके सारे संवाद मूल नाटक के रखे गए। ‘हीर-रांझा’ फिल्म की दूसरी खासियत थी हीर यानी प्रिया राजवंश। लंदन की रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट से पढ़ी और अंगरेजी नाटकों की पृष्ठभूमि वाली प्रिया इस फिल्म में पंजाब के गांव की एक लड़की बनी थीं।

पंजाब की एक और दुखांत प्रेम कहानी सोहनी-महीवाल पर भी कई बार फिल्म बनी, न सिर्फ भारत में बल्कि पाकिस्तान में भी। हमारे यहां सबसे लोकप्रिय दो ही फिल्में रहीं। पहली आई 1958 में जिसमें भारत भूषण और निम्मी थे। इसके गीत बहुत लोकप्रिय हैं और आज भी यूट्यूब पर देखे जा सकते हैं। दूसरी 1984 में उमेश मेहरा और रशियन निर्देशक लतीफ फैजीएव की ‘सोहनी महीवाल’ आई। सनी देओल और पूनम ढिल्लो की यह फिल्म अपने वक्त में ठीक-ठाक चली।

लैला-मजनूं की कहानी जब बनी तब सुपरहिट रही। सत्तर के दशक में आई सुपरहिट फिल्म ‘लैला-मजनूं’ में ऋषि कपूर थे। इसकी लैला को याद करना चाहिए। लैला बनी रंजीता की यह पहली फिल्म थी, मगर इस फिल्म ने रातों-रात उन्हें सुपरस्टार बना दिया। फिल्म के गीत सुपरहिट थे। “इस रेशमी पाजेब की झंकार के सदके” या “कोई पत्थर से ना मारो” जैसे कई गीत आज भी बजते हैं और लोग पसंद करते हैं।

‘मुगल-ए-आजम’ के बाद के.आसिफ इसी कहानी पर एक भव्य फिल्म बनाना चाहते थे। उन्होंने ‘लव एंड गॉड’ बनानी चाही मगर इसको बनाने की कोशिश अपने आप में एक कहानी बन गई और 1963 में शुरु की गई इस फिल्म को आखिरकार कई मौतों और उतार-चढ़ाव के बाद 1986 में अधूरा ही रिलीज करना पड़ा। बहुत कम लोगों को पता होगा कि इसे बॉलीवुड का सबसे लंबा प्रोडक्शन माना जाता है और यह गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है।

इन्हीं के.आसिफ ने इससे पहले ‘मुगल-ए-आजम’ बनाई और एक ऐतिहासिक मिथक को इतनी खूबसूरती से प्रस्तुत किया वह फिल्म एक विश्व क्लासिक बन गई। इसके संवाद, अभिनय, दृश्य और गीत सब कुछ आज भी हमें बांध लेता है।

फिल्मों फेहरिस्त तो और भी लंबी हो सकती है मगर हर बार यह सवाल जरूर उठता है कि आखिर ऐसा क्या है जो इन कहानियों को हर दौर में प्रासंगिक बनाए रखता है? शायद हर प्रेम कहानी दरअसल एक विद्रोह की कहानी भी होती है। पहले यह विद्रोह आत्मपीड़ा में छिपा हुआ था। यानी प्रेम करने की आजादी को कुचलने की तकलीफ सोहनी-महीवाल और लैला-मजनूं की दुखांत कहानियों में बदलकर रह जाते थे।मगर इनके किरदारों की खुद को खत्म करने की हद तक जिद हमें दिवाना बना देती है। ‘मुगल-ए-आजम’ के “प्यार किया तो डरना क्या” गीत में मधुबाला की बेबाकी तो उस दौर के युवाओं को इस कदर भाई कि वह उनके सामाजिक विद्रोह की अभिव्यक्ति बन गया।

‘मुगल-ए-आजम’ के एक और गीत की लाइनें हैं- “हमें काश तुमसे मोहब्बत न होती… कहानी हमारी हकीकत न होती”। शायद कहानियों की खूबसूरती यही होती है कि वह हमारी एक ऐसी हकीकत से जुड़ी होती हैं जिन्हें उनके सिवा कोई और बयान नहीं कर सकता।

आने वाली पीढ़ी जब इन्हें देखेगी तो बोलेगी- ये छिछोरे लोग हैंः कमल स्वरूप

भारतीय सिनेमा में अपने किस्म के अनूठे फिल्मकार कमल स्वरूप ने लोकसभा चुनाव के दौरान बनारस जाकर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाई- ‘बैटल ऑफ बनारस’। उनके शब्दों में वे ‘भारतीय जीवन में चुनाव की उत्सवधर्मिता’ और ‘भीड़ के मनोविज्ञान’ का फिल्मांकन करना चाहते थे। मगर उनकी फिल्म सेंसर बोर्ड को आपत्तिजनक लगी और इसे मंजूरी देने इनकार कर दिया गया। वे ट्रिब्यूनल के पास गए उन्होंने भी मंजूरी नहीं दी। अब फिल्म के निर्माता इसे लेकर हाईकोर्ट जा रहे हैं।

ट्रिब्यूनल का तर्क था कि यह डॉक्यूमेंट्री नेताओं के भड़काऊ संवादों से भरी हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह फिल्म पीएम मोदी के खिलाफ जाती है इसलिए इसे प्रतिबंधित किया जा रहा है। हमने कमल स्वरूप से इस पर एक लंबी बात की और जानना चाहा कि आखिर फिल्म में ऐसा क्या है जिससे इतने विवाद खड़े हो गए।

कमल स्वरूप ने सन 1974 में पूना फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट से डिप्लोमा किया है। उसके बाद से वे लगातार सिनेमा अध्ययन, डाक्यूमेट्री फिल्म मेकिंग और फीचर फिल्म के निर्माण से जुड़े रह हैं। सन् 1980 में बनी उनकी फिल्म ‘ओम-दर-ब-दर’ को उनकी सबसे बेहतरीन फिल्म माना जाता है। फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म ने जमकर तारीफ बटोरी मगर इसका कभी सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं हो सका।  स्वरूप को लिए दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है।  प्रस्तुत है कमल स्वरूप से दिनेश श्रीनेत की बातचीत।

सेंसर बोर्ड- ने किस आधार पर इस फिल्म को सर्टीफिकेट देने से मना किया?

बस सीधे-सीधे यह कहकर रिजेक्ट हो गई कि यह फिल्म सेंसर बोर्ड के लायक नहीं है। जब दिल्ली में ट्रिब्यूनल के पास पहुंचे तो उन्होंने भी यही बोला कि सेंसर बोर्ड का फैसला सही है। इसमें जाति और संप्रदाय के खिलाफ भड़काऊ स्पीच है। जबकि फिल्म में कोई कमेंट्री नहीं है। हमने सिर्फ स्पीच को रिकार्ड किया है। ये वही भाषण हैं जो मोदी, केदरीवाल, सपा नेता और इंडिपेंडेंट कैंडीडेट बोल रहे थे। भाषण भी आम थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा क्या बोलेंगे? कभी किसी को अंबानी का प्यादा कहा जाएगा तो कभी कांग्रेस के भ्रष्टाचार की चर्चा होगी।

तो आपके मुताबिक ऐसी क्या वजह है कि फिल्म पर रोक लगाने की कोशिश हो रही है?

मैं बताता हूं कि यह फिल्म लोगों को क्यों इतनी भड़काऊ लग रही है! दरअसल इसमें दिखने वाले सारे लोग अब बड़े लोग हो गए हैं। टीवी पर चीजें आती हैं और चली जाती हैं मगर यहां यह एक भारी डाक्यूमेंट, एक दस्तावेज बन जाता है। हमारी आने वाली पीढ़ी जब इन्हें देखेगी तो बोलेगी- ये छिछोरे लोग हैं।

आपको यह डाक्यूमेंट्री बनाने का ख्याल कैसे आया?

मैंने तो इसलिए शुरु किया था कि मुझे भीड़ के व्यवहार और उसे डाक्यूमेंट करने में काफी दिलचस्पी है। बनारस एक बहुत अच्छा बैकड्राप था। एक ड्रामा था कि कैसे इलेक्शन के दौरान राजनीतिक पार्टियां एक शहर को जीतने की कोशिश करती हैं। नोबेल विजेता एलियस कैनेटी की किताब ‘क्राउड्स एंड पॉवर’ मुझे बहुत पसंद है- इसमें भीड़ के प्रकार, संगठन की बनावट, प्राचीन समाज आदान-प्रदान और त्योहार की चर्चा है। कुल मिलाकर यह एक एंथ्रोपॉलोजिकल किताब है। मुझे लगा कि अपनी डाक्यूमेट्री के लिए मुझे उस किताब को ही अपना आधार बनाना चाहिए। मेरा लेंस वही किताब थी। बाकी मेरा राजनीतिक दिलचस्प खास नहीं थी।

जब आप इस फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तो राजनीतिक दलों की क्या प्रतिक्रिया थी?

बीजेपी वालों से मेरा ज्यादा कांटेक्ट नहीं बन पाया। उनकी गुप्त मीटिंग को शूट करने में मेरी दिलचस्पी नहीं थी। संघ के भवन में उनका बहुत बड़ा सा कार्यालय था। वहां गुजरात के टॉप आइटी प्रोफेशनल्स भी बैठते थे। वे शक की निगाह से हमें देखते थे। वे देखते थे कि हम तो हर राजनीतिक पार्टी के साथ बैठते थे। धीरे धीरे हुआ यह कि हर राजनीतक पार्टी हमें शक की निगाह से देखने लगी।

आपको बनारस में शूटिंग के दौरान भी कोई दिक्कत आई?

कम्युनिकेशन की दिक्कत तो बहुत थी। जब रैली निकलती है तो मोबाइल जाम हो जाते हैं। तंग गलियां हैं तो गाड़ियों मे ट्रैवेल नहीं कर सकते। हमे भागकर या मोटरसाइकिल से एक से दूसरी जगह जाना होता था। एक साथ पांच-पांच पार्टियों का प्रोग्राम की शीट बनानी होती थी। मुझे बहुत मजा आया। हम रात को उनके प्रोग्राम देख लेते थे। फिर तय करते थे कि अगले दिन कौन कहां जाकर शूट करेगा। मैं रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ फिल्म में असिस्टेंट था और क्राउड हैंडल करता था, तो वो दिन ताजा हो गए।

अगर भारत में फिल्म पर प्रतिबंध लग गया तो इसका भविष्य क्या होगा?

हमारे प्रोड्यूसर लंदन के रहने वाले भारतीय हैं। वे कोशिश में लगे हैं। वैसे ये फेस्टिवल में जा रही है। फ्रांस में दिखाई जाएगी मगर न्यूयार्क में नहीं जा पाएगी। वहां के फेस्टिवल इंडियन एनआरआई चलाते हैं। वे पंगा नहीं लेना चाहते। मामी फेस्टिवल वाले भी डर गए थे कि कहीं कोई पंगा हो न जाए। जो पंगा नहीं लेना चाहते वे घबराएंगे। नेट-फ्लिक्स भी घबराएगा। वह इसे एंटी बीजेपी मानता है तो भय होगा कि कहीं उसका लाइसेंस न रद हो जाए। बाहर जब हम विदेशों में दिखाएंगे तो बहुत से लोग इंडियन पॉलीटिक्स को समझ नहीं पाएंगे। हमारी पालिटिक्स बड़ी काम्प्लेक्स है। चुनाव एक महोत्सव की तरह है। स्टेज सजते हैं। रैलियां निकलती हैं। लोग नारे लगाते हैं। यह बिल्कुल रामलीला की तरह है। हमें इसमें मजा आता है। इस फिल्म में बनारस बहुत ही भव्य लगा है। इतनी सारी पब्लिक जिंदगी में देखी नहीं है।

इस प्रतिबंध को आप कितना जायज मानते हैं, या दूसरे शब्दों में मैं पूछूं कि सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आप क्या कहना चाहेंगे?

देखिए, हम कोर्टे में जा रहे हैं! हमारा प्रोड्यूसर जा रहा है। वहां वकील आते हैं। आपको मौका दिया जाता है अपनी बात रखने का। ट्रिब्लयून में प्रोड्यूसर को अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं दिया। यहां तो सेंसर वाले आंख बंदकर फिल्म देखते हैं। जरा सा शक होगा तो बोलेंगे रहने दो। मेरा मानना है कि वे कट सजेस्ट कर सकते हैं पर पूरी पिक्चर बैन करने का कोई मतलब नहीं होता है। मेरी फिल्म ओम दर-ब-दर को एक साल तक सेंसर सर्टीफिकेट नहीं दिया। बोलते थे पिक्चर समझ मे नहीं आ रही है। वे खोजते रहते कि उसमें दिखाई बातों का मतलब क्या हो सकता। उस समय कांग्रेस की सरकार थी। फिर एऩएफडीसी ने इस फिल्म को दबाकर रखा। सेंसर में ये लोग डांटते थे जैसे कि जजमेंट कर रहे हों। वे ज्ञान देने लगते हैं। वहां के बाबू तक हमें डांटते थे।


बैटल फॉर बनारसका विवाद

सन् 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान अचानक बनारस महत्वपूर्ण हो गया। यहां पर नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की चुनावी लड़ाई ने न सिर्फ भारत बल्कि सारी दुनिया की मीडिया का ध्यान खींचा था। कमल स्वरूप ने इस चुनाव के दौरान बनारस में डेरा डाल दिया और इस ऐतिहासिक चुनाव को शूट किया। मगर अब जब डाक्यूमेंट्री बनकर तैयार हो गई तो इसके प्रदर्शन को फिल्म सर्टिफिकेशन अपीलेट ट्रिब्यूनल (एफसीएटी) ने मंजूरी देने से मनाकर दिया।

ट्रिब्यूनल ने तर्क दिया है कि इस डॉक्यूमेंट्री से सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ सकता है। इससे पहले सेंसर बोर्ड ने ‘बैट्ल ऑफ बनारस’ को सर्टीफिकेट देने से मना कर दिया था। बोर्ड ने कहा, ‘फिल्म को देखने और पक्षों को सुनने के बाद हमारा नजरिया है कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का प्रदर्शन के लिए प्रमाणपत्र देने से इनकार करना तर्कसंगत है। इसका कारण है कि फिल्म की थीम राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के नफरत और भड़काउ संवादों से भरे हैं। और यह लोगों को जाति और सांप्रदायिक आधार पर बांटने का प्रयास करता है। यह फिल्म स्पष्ट रूप से सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए प्रमाणन के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करती है…इस आधार पर अपील खारिज की जाती है।’

आखिर बॉलीवुड को मिल गया एक सच्चा और रीयल फैमिली ड्रामा

आखिर किसी ने तो ऐसी फिल्म बनाई, जहां हम एक भारतीय परिवार को बिल्कुल उस तरह से देख सकते हैं जैसे कि वे सचमुच में हैं। अपनी तमाम लाचारियों, तकलीफों, कमजोरियों और खुशी के लम्हों के साथ। फिल्म का प्रोमो देखकर लगता है कि यह फर्जी खुशियों को दर्शाने वाली एक बनावटी सी फिल्म है मगर इसके उलट यह डार्क और खुरदरी है।

मगर ठहरिए, बस इतना कहने से मैं इस फिल्म पर सतही बातचीत कर पाऊंगा। बात इससे कहीं आगे जाती है। कपूर एंड सन्स में हम जो देखते हैं वो देश के लाखों मध्यवर्गीय परिवारों का मानों एक प्रतिबिंब है। आर्थिक पृष्ठभूमि बहुत मायने नहीं रखती… क्योंकि कमोवेश सपने तो सभी एक जैसे देखते हैं। सभी के मन में ईर्ष्या उठती है, सभी दुखी होते हैं और सभी जीवन में किसी न किसी मोड़ पर धोखा खाते हैं।

यह फिल्म मुझे एक बिल्कुल दूसरे सवाल की तरफ ले जाती है। हमारे यहां फिल्मों और किताबों में दिखाए गए परिवार इतने अवास्तविक और यूटोपियन से क्यों होते हैं? मुझे याद है जब मैं छोटा था तो ‘पारिवारिक फिल्म’ हिन्दी सिनेमा का एक टाइप था, जिसमें एक सुखी परिवार और उससे ईर्ष्या करने वाले और उसमें आग लगाने वाले कुछ लोग होते थे और अंत में सब कुछ सही हो जाता था। मगर वे परिवार में अपने आस-पास कहीं नहीं नजर आते थे।

हमें सिनेमा और साहित्य में वैसे परिवार क्यों नहीं दिखे जैसे रूसी उपन्यासों में दिखते हैं… खुरदुरी वास्तविकता और प्रेम के सोंधेपन के साथ। तो कपूर एंड सन्स एक ऐसी ही फिल्म है जो भारतीय पारिवारिक फिल्मों के सारे मानदंड तोड़ती हुई, उन्हें खारिज करती हुई चलती है।

यह करन जौहर की फिल्म है, एक पॉपुलर फिल्म है। मगर अच्छी बात यह है कि यह पॉपुलर होने के लिए समझौते नहीं करती। कपूर एंड सन्स का परिवार उतना ही अटपटा है जितना अक्सर एक परिवार होता है।

एक दादा जी (ऋषि कपूर) यानी अमरजीत कपूर, उनका बेटा (रजत कपूर) जो नौकरी छोड़कर बिजनेस करने की कोशिश में आर्थिक तंगी से जूझ रहा है। उनकी बहू सुनीता (रत्ना पाठक) जो परिवार के हर सदस्य की इमोशन की डोर से बंधी हुई है। फिर कपूर साहब के पोते यानी अर्जुन (सिद्धार्थ मलहोत्रा) और राहुल (फ़वाद खान)। बड़े अटपटे ढंग से दोनों ही लेखक हैं, एक सफल मगर दूसरा असफल।

कहानी किसी वेस्टर्न प्ले जैसी है। जहां ड्राइंग रूम ड्रामा है, सब कुछ एक ही लोकेशन और परिवार के सदस्यों के बीच घट रहा है। धीरे-धीरे हम कपूर फैमिली के अंधेरे कोनों से परिचित होने लगते हैं। हमें हैरत होती है कि किस तरह चटकने की हद तक पहुंच जाने के बाद भी वे सदस्य मजबूती से परिवार नाम की संस्था को अपने कंधों पर उठाए हुए हैं।

फिल्म सवालों के जवाब नहीं देती, फिल्म की एक और खूबी है कि वह अपने पात्रों का दुख हल्का नहीं करती। चाहे वह टिया (आलिया भट्ट) के साथ हुई त्रासदी हो या अर्जुन के मन के किसी कोने में छिपी तकलीफ या राहुल की उलझन।

शायद यही वह बिंदु है जब यह फिल्म रूसी उपन्यासों की याद दिलाती है। खास तौर पर फिल्म देखते हुए मैक्सिम गोर्की और तोलस्तोय के परिवार याद आने लगते हैं। दुख जस का तस रहता है, दुख कम नहीं होता मगर जिंदगी आगे बढ़ती है तो सुकून के पल भी आते हैं।

दादा जी परिवार को एक कड़ी में बांधने वाले शख्स का काम करते हैं। फिल्म का एक दृश्य जहां परिवार मिलकर एक गीत गा रहा है- अद्भुत है। सबका मिलकर खुश होना उनके निजी दुख को और गहरा कर देता है।

फैमिली फोटो खींचना और दादा जी की बर्थडे पार्टी… इन्हीं दो बिंदुओं के इर्द-गिर्द फिल्म की पटकथा बुनी गई है और जिस तरह बुनी गई है वो अद्भुत है। पात्रों के आपसी संवाद उसी तरह चलते हैं, जैसे कि वास्तविक जिंदगी में। इसकी पटकथा का तानाबाना इस तरह है कि वह ऊपरी स्तर पर भले सहज लगे मगर सतह के नीचे की जटिलताओं का भी लगातार एहसास होता रहता है।

कहानी में कोई पेंचोखम नहीं, कोई उतार-चढ़ाव नहीं, मगर कुछ देर बाद हमें लगता है कि हम किसी आर्केस्ट्रा में बैठे हैं। जहां हर वाद्य (या चरित्र) अपने मूल अस्तित्व के साथ किसी संगीत रचना (मूल कथा) का निर्माण कर रहा है। बस जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती जाती है, हमें धुन ज्यादा स्पष्ट होकर समझ में आने लगती है… शायद यही हमारे भारतीय परिवारों की हारमोनी है।

जब नायक से बड़ा बन जाता है किसी फिल्म का सपोर्टिंग एक्टर

जब आप ‘जय गंगाजल’ देखकर निकलते हैं तो देर तक आपके जेहन में डीसीपी बीएन सिंह घूमता रहेगा। इस किरदार के जरिए प्रकाश झा पहली बार स्क्रीन पर आए हैं और अन्य निर्देशकों के मुकाबले उन्होंने अपने लिए एक लंबा रोल चुना है और उसे बेहद सधे तरीके से निभाया भी है।

कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है एसपी आभा माथुर (प्रियंका चोपड़ा) का चरित्र इकहरा होता जाता है और प्रकाश झा ज्यादा मजबूती से उभरते हैं। यह पहली बार नहीं हुआ है। ऐसी बहुत सी फिल्में हैं जिनमें सपोर्टिंग एक्टर मुख्य किरदार पर भारी पड़ जाता है। नमक हराम में अमिताभ बच्चन का नाम अक्सर लिया जाता है। इसके अलावा ‘सत्या’ के मनोज बाजपेई, ‘नाम’ के संजय दत्त और ‘दीवाना’ में शाहरुख खान का नाम तुरंत याद आ जाता है।

मगर ‘जय गंगाजल’ में अंत तक पहुंचते-पहुंचते लगता है कि यदि प्रकाश झा थोड़ी और हिम्मत जुटाते और इस फिल्म में आभा माथुर की कहानी कहने की बजाय बीएन सिंह की कहानी कहते, तो शायद वे ज्यादा अहम फिल्म बना पाते। यह एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी के सामाजिक और मानवीय तौर पर जागरुक होने और भ्रष्ट सिस्टम के खिलाफ खड़े होने की कहानी है।

एक संवेदनशील निर्देशक के लिए न सिर्फ इस कहानी में बल्कि इस किरदार में बहुत संभावनाएं हैं। प्रकाश झा इन संभावनाओं का दुहरे स्तर पर निर्वाह करते हैं- बतौर निर्देशक और साथ ही साथ बतौर अभिनेता। दिलचस्प यह है कि इस किरदार को बेहतर बनाने में उनके निर्देशक से ज्यादा उनके अभिनेता का योगदान है, जो पहली बार सामने आया है।

उन्होंने इस चरित्र को बहुत कम संवाद दिए हैं और उसकी कमी अपनी आंखों व चेहरे के भाव और शारीरिक भाव-भंगिमाओं से पूरी करते हैं। वे एक घाघ किस्म के पुलिस अधिकारी के रूप में सामने आते हैं, जो सिस्टम में मौजूद हर गड़बड़ी को पहचानता है। शुरु के कुछ दृश्यों में उनका संवाद “आपको किसी ने गलत मिसगाइड किया है…” ध्यान खींचता है।

कहानी हमारी ईमानदार आइपीएस प्रियंका चोपड़ा को दोहरे संघर्ष में ले जाती है। पहला संघर्ष भ्रष्ट राजनेता बब्लू पांडे से है और दूसरा संघर्ष बीएन सिंह जैसे लोगों लोगों से है, जिनके हाथ में पूरा तंत्र है और जो जानते हैं कि कोई लाख सिर पटक ले उनकी मर्जी के बिना कुछ नहीं कर सकता। प्रियंका इस फिल्म में इस तरह से ईमानदार हैं जैसे मिनरल वाटर 100 प्रतिशत स्वच्छ होता है। उनके किसी निजी जीवन, उलझन, काम्प्लेक्स, कुंठा की झलक भी नहीं मिलती।

जबकि बीएन सिंह का स्याह चरित्र धीरे-धीरे बदलता है। प्रकाश झा की अदायगी में एक किस्म का ठहराव है। उन्होंने इतनी लाउड फिल्म में चरित्र को अंडरप्ले किया है और इसके बाद भी उसे गुम नहीं होने दिया। शायद प्रकाश झा के ये ‘शेड्स ऑफ ग्रे’ न देखने को मिलते तो फिल्म बहुत ही सपाट और उबाऊ हो जाती। इस फिल्म की मजबूरी थी कि वह प्रकाश झा को नायक नहीं बना सकती थी। लिहाजा कहानी लौटकर उसी पुराने ट्रैक पर पहुंच जाती है…

मगर ‘जय गंगाजल’ में आप फिल्म के भीतर एक फिल्म को संभावित होते और फिर उस संभावना को धुमिल होते हुए देख सकते हैं।

तमाशाः दिल और दुनिया के बीच एक फिल्म

“पापा मैं एक कहानी सुनाऊं?”
“हां !”
“बहुत पहले की बात है/ एक आदमी हुआ करता था/ उसका नाम था हीरो… “उसने बहुत मेहनत की/ इंजीनियरिंग, नौकरी, ऑफिस, हां बोलो, नीचे देखो, हंसो, रोने लगो… “एक दिन यहां से बहुत कोस दूर/ दिल और दुनिया के बीच अपने हीरो को एक साथी मिला…”

‘तमाशा’ देखकर आपको विक्रमादित्य मोटवानी की फिल्म ‘उड़ान’ की याद आ सकती है। शायद यह फिल्म ‘उड़ान’ के उस किशोर का वैकल्पिक भविष्य है। एक विस्तार। उसके युवा होने की कथा…

अगर उसके जीवन में कुछ भी न बदलता।

बाकी सबकुछ वही है। कहानियां सुनने और जीने की ललक। जीवन में कुछ चुनने की अनिवार्यता से पैदा होने वाली उलझन। एक ही जीवन में कई जीवन जी लेने की आकांक्षा।

‘तमाशा’ देखकर आपको और भी बहुत कुछ याद आ सकता है। कोई क्लासिक उपन्यास, कोई ग़जल, कोई कविता… मगर जो याद आएगा वह इसी फिल्म की तरह किसी बेचैनी को अभिव्यक्त कर रहा होगा।

सतही और सपाट किस्म की कहानियों और फिल्मों के साथ जीने वालों को यह फिल्म उबाऊ लग सकती है, मगर फिल्म अपने विषय के हिसाब से अपना खुद का व्याकरण रचती है। या दूसरे शब्दों में कहें तो व्याकरण तोड़ती है।

ठीक उसी तरह है जैसे कविता व्याकरण को तोड़कर अर्थ की रचना करती है। इसीलिए इम्तियाज अली की फिल्में कविता के ज्यादा करीब हैं। वे फिल्म के केंद्रीय भाव को ज्यादा महत्व देते हैं।

इसी फिल्म के संवाद लंबे हो सकते हैं मगर वे उस थीम को, उस केंद्रीय भाव को टटोलते हैं। जरा देखें-

दीपिकाः “ये तुम नहीं हो वेद, ये सब नकली है।”
रनबीरः “मैं वो डॉन थोड़ी ना हूं तारा, वो तो एक्टिंग थी ना, वो मैं एक रोल प्ले कर रहा था और ये मैं रीयल में हूं।”
दीपिकाः “फिर तो मैं किसी और के साथ हूं वेद, मैं कुछ और ढूंढ़ रही हूँ।”

खुद को पहचानने और खुद के करीब जाने की ललक ही तमाशा का वह केंद्रीय भाव है, जिसके चारो तरफ फिल्म को बुना गया है। इम्तियाज अली की फिल्मों में इंडीविजुअलिटी का भाव बहुत गहरा है। उतना ही गहरा जितना कि कभी गुरुदत्त की फिल्मों दिखता था।

बस फर्क इतना है कि गुरुदत्त की ‘प्यासा’ और ‘कागज के फूल’ जैसी फिल्मों के नायकों की आत्मकेंद्रियता में दरअसल सामाजिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश काफी साफ था, वो यहां तक आते-आते धुंधला पड़ता गया है। इसके अपने सामाजिक, राजनीतिक कारण होंगे फिलहाल अभी हम उन पर चर्चा नहीं करते हैं।

पर हम यह देख सकते हैं कि ‘तमाशा’ पॉपुलर कल्चर के अपने रूट्स को भी तलाशती है। खास तौर पर राजकपूर की पिल्मों के। फिल्म के दो दृश्य इस कांटेक्स्ट में खास तौर पर याद रखना चाहिए। फिल्म के शुरु और अंत में स्टेज के सीन में एक जोकर है, जो ‘मेरा नाम जोकर’ के प्रतीक की याद दिलाता है और उस फिल्म की थीम में भी क्या प्रेम और अभव्यक्ति की छटपटाहट नहीं थी?

एक और सीन याद करें-

रनबीरः (कटाक्ष के साथ) “तुझे तो प्यार हो गया है पगली!”
दीपिकाः “हां… हां वेद।”
रनबीरः “पर किसी और से…”

प्रेम की इतनी उत्कटता अब बहुत कम दिखती है। इस सीन में आपको राजकपुर और नरगिस की फिल्म ‘आवारा’ के शैडोज़ दिखेंगे। एक-दूसरे की आंखों में झांकते किरदार, बैकलाइट, दीपिका के चेहरे पर झुका हुआ रनबीर।

बहरहाल ‘तमाशा’ सफल हो या न हो, यह इस दौर की एक ऐसी फिल्म है जिससे बहुत से संवेदनशील युवा खुद को जोड़ पाएंगे। इसलिए नहीं कि वे दीपिका और रनबीर की ड्रेसेज और स्टाइल को फॉलो कर सकें बल्कि इसलिए कि यह फिल्म हमें एक बार अपने भीतर झांकने को कहती है।

रनबीरः “वही कहानी फिर एक बार, मज़नू ने लिए कपड़े फाड़, और तमाशा बीच बाज़ार…”

कहानी वही है। कई बार सुनी, कई बार कही गई। मगर वह फिर उसी हौसले से बीच-बाजार फिर से हमारा गिरेबां थामकर हमारे कानों में कुछ फुसफुसाकर चली जाती है।

मसानः प्रेम और मृत्यु के बीच एक कविता

‘‘मसान’’ विशुद्ध सिनेमाई भाषा में रची गई कविता है। एक आधुनिक मिजाज़ वाली कविता जो अपने होने में ही अर्थ को आहिस्ता-आहिस्ता खोलती है। नीरज घेवन ने अविनाश अरूण के कैमरे की मदद से अद्भुत बिंब रचे हैं। अतिशियोक्ति न लगे तो उनके बिंब सत्यजीत रे के सिनेमा की याद दिलाते हैं। ऐसी छवियां जो जीवन भर के लिए आपके मन में घर कर जाती हैं।

ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं होता कि ये छवियां फिल्म की कथा संरचना में बड़ी खूबसूरती से रची-बसी हैं, बल्कि इसलिए कि ये प्रतिछायाएं जीवन की गहरी संवेदनाओं की लहरों पर हिलती नजर आती हैं। बनारस में रात को नदी के किनारे जगर-मगर करते घाट हों, या शमशान में चिताओं से उठती लपटें और चिंगारियां या नदी के तट से दूर पुल पर गुजरती ट्रेन… ‘‘मसान’’ देखते वक्त आप भूल जाते हैं कि यह कोई फिल्म है। आप इस फिल्म में नदी किनारे चलती बयार और चारो तरफ फैले आसमान के नीचे के निचाट खालीपन को भी स्क्रीन पर महसूस कर सकते है। फिल्म निर्देशक ने न सिर्फ कैमरे के फ्रेम में बल्कि पटकथा में भी स्पेस के महत्व को समझा है और उसका बेहतर इस्तेमाल किया है। इस तरह बिना लाउड हुए फिल्म दिल में कहीं गहरे तक उतरती चली जाती है।

मसान का निर्माण इंडो-फ्रैंच को-प्रोडक्शन के तौर पर हुआ है। नीरज ने इससे पहले बनारस से मुंबई आए एक दंपति की कहानी पर एक 17 मिनट लंबी फिल्म ‘शोर’ बनाई थी जो अनुराग कश्यप की फिल्म ‘शॉर्ट्स’ का एक हिस्सा थी। बतौर निर्देशक यह नीरज की दूसरी और पूरी लंबाई की पहली फिल्म है। कहानी मृत्यु और प्रेम के बीच आकार लेती है। फिल्म की पटकथा इन दो ध्रुवों के बीच के तनाव पर सधे कदमों से बढ़ती जाती है।

फिल्म की शुरुआत ही प्रेम और मृत्यु के इस कंट्रास्ट से होती है। एक होटल में दो उत्सुक प्रेमियों का करीब आना, अचानक पुलिस का हस्तक्षेप और पुलिस का वहां मौजूद लड़की देवी (रिचा चड्ढा) का जबरन वीडियो बनाना और लडक़े का आत्महत्या कर लेना- इस कहानी की बुनियाद को तैयार करते हैं। असली फिल्म कुछ मिनटों के इस घटनाक्रम के बाद अपना आकार लेती है। जब हम देखते हैं कि किस तरह पुलिस लगातार देवी और उनके पिता को ब्लैकमैल करती रहती है, कैसे देवी के पिता तीन लाख रुपये जुटाने के लिए परेशान होकर भटकते हैं, किस तरह झिझका हुआ प्रेम परवान चढ़ता है, कैसे लोगों के उदास जीवन में हल्की बयार जैसी खुशियां दाखिल होती हैं।

देवी का पूरा जीवन निरुद्देश्य हो जाता है मगर वह अपनी दृढ़ता छोड़ती नहीं है। वह धीमे मगर मजबूत कदमों से आगे बढ़ती जाती है। पिता और बेटी दोनों ही एक-दूसरे के प्रति भावुक नहीं हैं, मगर वे संवेदनहीन भी नहीं हो पाते। इसके समानांतर एक और कथा चलती है। यह शमशान में मृत शरीर को जताने वाले क्रिया क्रम करने वाले एक अछूत परिवार की कहानी है। घाट पर लाशों के बीच जीवन गुजारने वाला दीपक (विक्की कौशल) इस काम से छुटकारा पाना चाहता है। वह पढ़ रहा है और एक ठीक-ठाक नौकरी पाने के लिए प्रयासरत है। उसकी मुलाकात शालू (श्वेता त्रिपाठी) से होती है और दोनों के बीच दोस्ती और फिर प्रेम हो जाता है। वक्त गुजरने के साथ जैसे ही प्रेम का रंग गहराता है, उसका एक दुखद अंत होता है जो दीपक को संवेदना के स्तर पर बुरी तरह से झकझोर देता है।

समानांतर चलती दोनों कहानियां प्रत्याशित तौर पर फिल्म में एक जगह जाकर जुड़ती हैं, या दूसरे शब्दों में कहें तो जुड़ने का आभास सा देती हैं और फिल्म एक संभावना की तरफ इशारा करती हुई खत्म हो जाती है। इन समानांतर चलती कहानियों को नीरज ने कुछ इस तरह से निर्देशित किया है कि मुख्य कथानक लगभग विलीन हो जाता है। हमें जो याद रह जाता है वह होते हैं इसके किरदार, उनकी छोटी-छोटी खुशियां और न खत्म होने वाले दुःख। आसमान, सड़क और नदी जहां ये किरदार सांस लेते हैं।

छोटे शहरों को इससे पहले भी कई निर्देशकों ने फिल्माया है मगर वे प्रचलित ‘पैनॉप्टिकल व्यूप्वाइंट’ से बाहर न आ सके, जहां रचनाकार खुद को किसी ऊंची या विशिष्ट जगह पर रखकर सब्जेक्ट को देखता है। वह विषय-वस्तु से परे और विशिष्टता बोध के साथ उन्हें प्रस्तुत करता चलता है। यहां तक कि अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ भी इस ‘पैनॉप्टिकल विज़न’ से परे नहीं हो पाई थी, जिसकी टीम में नीरज भी मौजूद थे।

यह फिल्म आपको इसके किरदारों के बीच ले जाकर बिठा देती है आप उनकी खुशियों और दुःख में शामिल हो जाते हैं। विक्की कौशल के चरित्र में एक किस्म की उदासी है, प्रेम के रंग उसकी उदासी को और गहरा कर देते हैं। यह प्रेम हिन्दी की कुछ पॉपुलर कवियों और शायरों की पंक्तियों के बीच परवान चढ़ता है। धीरे-धीरे फिल्म पर मृत्यु और उदासी का रंग और गहरा होता जाता है। मगर निरंतर बहती नदी की तरह जीवन खत्म नहीं होता वह आगे बढ़ता जाता है।

फिल्म का नैरेटिव यथार्थ के इतने करीब है कि निर्देशक, कलाकारों और कैमरामैन की तरफ से उसका निर्वाह कर पाना भी अपने में एक चमत्कार सा लगता है। खास बात यह है कि फिल्म यथार्थ को भी ग्लोरीफाई करने का प्रयास न करके उसे जस का तस लेती है। वह जीवन की विडंबनाओं के बीच हास्य और क्रूरता के बीच अति कोमल पलों को भी तलाश लेती है- जैसा कि जीवन में अक्सर होता है। बहुत महीन संवेदनाओं का जाल भी बुनता चलता जाता है और कठोर हकीकत का धरातल भी मौजूद रहता है।

शालू त्रिपाठी ने एक छोटे शहर की लड़की के संकोच, उत्सुकता और साहस को बखूबी जिया (इन सभी के लिए अभिनय शब्द उपयुक्त नहीं लगता) है। फिल्म का एक और अहम किरदार है- देवी के पिता विद्याधर पाठक (संजय मिश्रा)- वे तीसरी समानांतर कथा के नायक हैं। वे पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक प्रतिनिधि चरित्र हैं- परंपराओं और संस्कारों में जकड़ा घिसट-घिसटकर छोटी-छोटी चालाकियों और तिकड़मों से अपना आत्मसम्मान बचाता एक शख्स। एक छोटे से बच्चे झोंटा के साथ उनकी जुगलबंदी में सहज हास्य के साथ उतनी ही मार्मिक भी है। कई दूसरे चरित्र भी याद रह जाते हैं चाहे इंस्पेक्टर मिश्रा बने भगवान तिवारी हों या फिर

फिल्म का एक और बहुत ही महत्वपूर्ण चरित्र है- नदी। इसकी हलचलों को और विभिन्न रंगों को अविनाश अरुण के कैमरे ने बड़ी खूबसूरती से पकड़ा है। उन्होंने नदी  को उसके तमाम रंगों के साथ बतौर एक किरदार खड़ा किया है। चाहे वह नदी के रूमानी रंग हों या उदासी में डूबे हुए या अद्भुत कौतुक की संरचना करते पानी के भीतर से सिक्के निकालने का दृश्य हो- सब कुछ एक-दूसरे से जुड़ता चला जाता है। शमशान बार-बार नहीं आता है मगर वह नेपथ्य में है। फिल्म के किरदारों और कहानी पर छाया हुआ है। जब-जब चलती चिताओं के बीच शमशान का फिल्मांकन हुआ- शानदार बन पड़ा है।

‘‘मसान’’ की खूबी यह है कि यह बिना बड़े बोल बोलने का प्रयास किए एक बड़ी फिल्म बन जाती है। हमारे यहां आर्टहाउस सिनेमा पर यूरोपियन सिनेमा और हॉलीवुड के इंडिपेंडेंट सिनेमा का गहरा असर है। मगर यह फिल्म अपने मूल में, अपनी शैली में और अपनी आत्मा में यूरोपियन सिनेमा की बजाय ज्यादा एशियाई है या दूसरे शब्दों में कहें तो ईरानी सिनेमा के ज्यादा करीब- सादगी लिए मगर गहरे तक असर कर जाने वाली।

खुद को जानने की छटपटाहट, मार्गरीटा विद अ स्ट्रा

शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम नायकों पर हिन्दी में कई फिल्में बनीं हैं। अक्सर ये फिल्में अक्षम नायकों की सामाजिक रूप से स्वीकारोक्ति को अपना विषय बनाती हैं। अक्सर इन फिल्मों में अधूरे नायकों की अपनी शारीरिक सीमाओं से परे निकलकर खुद को साबित करने छटपटाहट को अभिव्यक्ति दी जाती है। इस तरह की फिल्मों में सबसे पहले सई पराजंपे की ‘स्पर्श’ का सहज ही ख्याल आ जाता है। जहां एक नेत्रहीन शिक्षक सामाजिक रूप से अपने आत्मगौरव को बनाए रखने के लिए संघर्ष करता है। उसका यह संघर्ष  सामाजिक नहीं बल्कि भावनात्मक है और सई ने इसे बखूबी प्रस्तुत भी किया है।

संजय लीला भंसाली ने आश्चयर्यजनक रूप से अपनी बहुरंगी शैली के बीच ऐसे विषय में भी महारत हासिल कर रखी है। उनकी पहली फिल्म ‘ख़ामोशी द म्यूज़िकल’ ही एक मूक-बधिर दंपति की करुण कथा सामने लेकर आती है। ‘ब्लैक’ अभिव्यक्ति की छटपटाहट लिए एक मानवीय संवेदना से भरी कथा है। इस कड़ी में ‘गुज़ारिश’ को भी रख सकते हैं जहां एक व्यक्ति अपनी अपाहिज जिंदगी से तंग आकर इच्छा मृत्यु को चुनना चाहता है।

पिछले दिनों आई ‘मार्गरीटा विद अ स्ट्रा’ इन फिल्मों से थोड़ा अलग हाशिए पर जाकर खड़ी होती है। अपने नाम की तरह फिल्म की सामान्य से हटकर है। मार्गरीटा फिल्म की नायिका का नाम नहीं है। यह व्हीलचेयर पर जीवन बिताने वाली अक्षम लड़की लैला (कल्कि कोएचलिन) की कथा है, जो एक वास्तविक जीवन के चरित्र से प्रेरित है। वह सेरेब्रल पल्सी की बीमारी से पीड़ित है। एक धीमा और निरंतर संघर्ष उसकी नियति है। चाहे किसी से अपनी बात कहनी हो या फिर छोटी-छोटी निजी जरूरतें हों। मगर लैला का संघर्ष अपने सरवाइवल के लिए नहीं है। उसके पास सब कुछ है। उसकी देखभाल करने वाले माता-पिता, भाई, एक अपने जैसा दोस्त और अपनी मर्जी से रचनात्मक काम करने की संतुष्टि। मगर कुछ तो ऐसा रहता है जहां जाकर लैला ठहर जाती है। उसे यह याद रखना पड़ता है कि वह आम लोगों से अलग है, बार-बार यह अहसास दिलाते जाने के बावजूद कि उसे भी आम लोगों की तरह ही जीने का हक है।

लैला अपने माता-पिता के संशय और भय के बीच उस साधारण जिंदगी की सीमाओं का अतिक्रमण करती है, जिनके बीच जीते रहना उसकी मजबूरी है। वह अपने भीतर के मन को (और सेक्सुअलिटी को) एक्सप्लोर करती है। इस क्रम में उसे अपनी बाइसेक्सुअलिटी के बारे में पता लगता है। क्रिएटिव राइटिंग की क्लासेज करते हुए एक विदेशी लड़के से पहली बार लैला के शारीरिक संबंध बनते हैं। बाद में पाकिस्तान से आई एक अंधी लड़की खानम (सयानी गुप्ता) से वह शारीरिक और भावनात्मक रुप से जुड़ जाती हैऊपरी तौर पर फिल्म बस इतनी ही है। बिना किसी उतार-चढ़ाव वाली इस कहानी में लैला के जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों को एक घंटे 40 मिनट की फिल्म में बदल दिया गया है। । हां, लैला की मनपसंद कॉकटेल ड्रिंक मार्गरीटा यहां एक प्रतीक की तरह है। जीने के लिए तमाम नियमों के बीच अपनी इच्छाओं के जरिए खुद के करीब जाने का।

फिल्म अपनी परिणति में अमूर्त है। वह एक खुले अंत की तरफ बढ़ती है, जहां हमें यह नहीं पता होता है कि फिल्म पटकथा में पिरोई गई घटनाओं की श्रंखला में किस निष्कर्ष की तरफ जा रही है मगर अंत में लैला को सेल्फ रियलाइजेशन की तरफ बढ़ता हुआ देखते हैं। बावजूद इसके निर्देशक शोनाली बोस और निलेश मनियार ने फिल्म को दार्शनिकता में नहीं उलझने दिया है। उन्होंने यथार्थवादी शैली में सीमित संवादों के जरिए कहानी को आगे बढ़ाया है। उनका जोर डिटेलिंग पर नहीं है। यही वजह है कि शुरु में मेटाडोर में चलती रेवती थोड़ी अटपटी सी दिखती है, मगर थोड़ी ही देर में हम पूरे परिवार के लिए उस गाड़ी के महत्व को बिना कहे समझ जाते हैं। यह परिवार भी अनोखा सा है। लैला सिख पिता और दक्षिण भारतीय मां की संतान है। निर्देशक द्वय का जोर चरित्रों के प्रस्तुतिकरण और उनके आपसी अंतर्संबंधों पर ज्यादा है। ये किरदार जब एक-दूसरे के करीब आते हैं तो उनके बीच एक आभासी सा ‘इमोशनली चार्ज्ड एनवायरमेंट’ विकसित होने लगता है। चाहे वह लैला और उसकी मां (रेवती) के बीच के रिश्ते हों या लैला और खानम के बीच अंकुरित होता हुआ प्रेम जो सिर्फ परिस्थितिजन्य शारीरिक नहीं है बल्कि अपने भावनात्मक अधूरेपन को एक-दूसरे में तलाशने की कोशिश है।

इस फिल्म को कल्कि कोएचलिन के सहज अभिनय के लिए देखा जाना चाहिए। कल्कि को देखते हुए क्षण भर को भी नहीं लगता है कि वह किसी पात्र को स्क्रीन पर ला रही है या उस किरदार में डूब जाने के लिए मेहनत कर रही हो। वह बस जैसे इस फिल्म को जी रही है। कल्कि की सबसे बड़ी चुनौती थी फिल्म के कई संवेदनशील हिस्सों में किरदार के इमोशंस को अभिव्यक्त करना जबकि खुद उसका किरदार ऐसा है जो खुद को अभिव्यक्त नहीं कर पाता, न शब्दों और भाषा के जरिए और न ही भावाभिव्यक्ति के जरिए। मगर कल्कि ने यह कर दिखाया है और अपनी सेक्सुअलिटी को भांपने जैसे जटिल मनोभावों को भी वह बेहद सहजता से निभा ले जाती हैं। फिल्म में दो और कभी न भूलने वाले चरित्र हैं।

पहली लैला की मां बनी रेवती, जो अब से 25 साल पहले मणि रत्नम की ‘अंजलि’ में भी मानसिक रूप से अविकसित छोटी बच्ची की मां बन चुकी हैं। उन्होंने एक अक्षम बेटी की मां की चिंताओं को बखूबी अभिव्यक्त किया है। एक मां की चिंताओं को बयान करने के लिए पटकथा में अलग से दृश्य या संवाद नहीं रचे गए हैं। ये चिंताएं उनकी साधारण रोजमर्रा की बातचीत में एक परछांई की तरह हर वक्त मौजूद रहती है। रेवती फिल्म में बराबर उन परछाइयों का अहसास दिलाती रही हैं। इस चिंतित और केयरिंग मां के चरित्र का एक दूसरा पहलू भी है। वह दूसरे लोगों के मुकाबले बदलावों के प्रति बहुत उदार है, अनजान राहों पर चलने का जोखिम उठाती लैला को सबसे पहला समर्थन उसकी अपनी मां से ही मिलता है। कैरेक्टर में यह आयाम लाना आसान नहीं था।

दूसरा अहम किरदार है सयानी गुप्ता का। उसका चरित्र ज्यादा खुलता नहीं मगर उसमें कई परतें हैं। सयानी एक ही वक्त में उदास और बिंदास दोनों ही है। लैला के प्रति उसके खिंचाव और आकर्षण को दिखा पाना निर्देशक और अभिनेता दोनों के स्तर पर एक मुश्किल काम था। सयानी ने सहज तरीके से इस चुनौतीपूर्ण भूमिका को अंजाम दिया है। समलैंगिक रूझान को निर्देशक ने पूरी संवेदनशीलता से रखा है, यह लगभग एक केंद्रिय विषय की तरह फिल्म में मौजूद है। नहीं तो हिन्दी फिल्मों में ऐसे रिश्तों को महज कॉमेडी तक सीमित कर दिया गया है।

अपनी तमाम अच्छाइयों के बावजूद ‘मार्गरीटा…’ एक फील गुड मूवी है। यह जिंदगी के बहुत से सवालों को हाशिए पर रखते हुए ही अपने विषय पर चर्चा कर पाती है। इसके साथ ही फिल्म का पेस बहुत धीमा है। यदि हम उन फिल्मों की बात करें जो अक्षम चरित्रों के इर्द-गिर्द हैं तो पाएंगे कि उन किरदारों में एक किस्म का आवेग था, चाहे वो सई परांजपे के नसीर हों या फिर भंसाली के नाना पाटकर व रानी मुखर्जी। शारीरिक अक्षमता भावनात्मक तीव्रताओं को जन्म देती है। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण स्टीफेन ज्विग का उपन्यास ‘बिवेयर ऑफ पिटी’  है। जिसका युवा नायक एंटोन जब पक्षाघात की शिकार एडिथ से मिलता है तो उसके साथ-साथ पाठकों को भी अनुमान भी नहीं होता है कि आने वाले समय में वे किन भावनात्मक झंझावातों से रूबरू होने जा रहे हैं।

‘मार्गरीटा…’ में खूबी यह है कि इसे मेलोड्रामा से दूर रखा गया है। न वेबजह आंसू बहे और न ही भावुकता भरे संवाद बोले गए। न ही नायिका के प्रति संवेदना दिखाने के लिए के एक भी दृश्य रचा गया है। इसका मेलोड्रामा कहानी की ऊपरी सहत से काफी नीचे हिलकोरे लेता रहता है… मगर ऊपरी तौर पर उस भावनात्मक तीव्रता की कमी खलती है, जिसके चलते किरदार और फिल्म अर्से तक याद रह जाते हैं।

एक एलियन, एक देहाती, एक कबीर

‘पीके’ का एलियन भोजपुरी बोलता है। उसके ग्रह पर कोई भाषा नहीं है। कहानी के संयोग उसके लिए जिस भाषा को चुनते हैं वह इस विशाल देश के बड़े भू-भाग में पिछड़ों और अशिक्षितों की भाषा मानी जाती है। “…तुम्हारे प्लैनेट की राष्ट्रभाषा भोजपुरी है?” अनुष्का सवाल करती है। ‘पीके’ की भोजपुरी (या भोजपुरी जैसी कोई भाषा) सरल हास्य पैदा करती है मगर राजकुमार हीरानी इस सहज हास्य से कहीं आगे तक जाते हैं। ‘पीके’ की भाषा फिल्म को डि-कोड करने की बुनियादी कुंजी है।

एक वाजिब सवाल मन में उठ सकता है, हीरानी की फिल्म को डी-कोड करने की क्या जरूरत है?  सब कुछ कितना सरलीकृत है यहां पर। न कोई जटिल यथार्थ, न परत-दर-परत डेवलप होती पटकथा, न मुश्किल किरदार। तो फिर डि-कोड किसे करना है?  दरअसल ‘पीके’ उतनी ही सरल है जितने कि कबीर। जो सहजता और खिलंदड़ेपन से जीवन का सत्य कह देते हैं- माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय। एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय। राजकुमार हीरानी की फिल्म बनाने की शैली में कबीर के इसी खिलंदड़ेपन के बीज हैं। जहां वो गंभीर कथन को एक विडंबनापूर्ण या अटपटी स्थितियों से उपजे परिहास में बदल देते हैं। परिहास मार्मिक होता है और मर्म में जीवन का सच छिपा होता है। बिल्कुल कबीर की उलटबांसियों की तरह।

तो लौटते हैं भाषा के जरिए इस फिल्म को डि-कोड करने के फार्मुले पर। दरअसल भोजपुरी की खूबी यह है कि इस भाषा की अनगढ़ संचरना में भी अद्भुत तंज़ है और अंडरस्टेटमेंट की तो ऐसी भरमार है कि अंग्रेजी सामने खड़ी हो तो शरमा जाए। इसलिए ‘पीके’ में सभ्य समाज या धर्म के पाखंडो पर हंसने के लिए इससे बेहतर बोली का चुनाव नहीं किया जा सकता था। एक उदाहरण देखिए, “एक बार तो ऐसा गजब का कपड़ा मिला जौन पहिने से इस फोटो (हमारे नोट, जिस पर गांधी की तस्वीर छपी रहती है) का जरूरत ही नहीं पड़ता था, खाना अपने-आप पास आ जाता था।” अब जरा गौर करें, अगर ‘पीके’ के तमाम संवाद इस बोली की बजाय सीधी-सादी हिन्दी में होते तो स्थिति क्या होती। ऐसे संवाद न सिर्फ सपाटबयानी में बदल जाते, न सिर्फ कड़वाहट पैदा करते बल्कि गलतफहमियां भी जन्म लेने लगतीं और आरोप-प्रत्यारोपों का एक अंतहीन सिलसिला शुरु हो जाता। पीके कहता है, “समझ में आया… कि इस फोटो का भैल्यू सिर्फ एक कागज पर है। दूसरे कागज पर इस फोटो का भैल्यू जीरो बटा लुल।” गांधी को हमने अपने सार्वजनिक जीवन में कितनी अहमियत दी है इसे इस संवाद में जितने बेहतर तरीके से सामने लाया गया है, परंपरागत भाषा में क्या यह संभव था। कई बार सत्य को सामने लाने के लिए भाषा में तोड़-फोड़ करनी पड़ती है। चाहे वह हमारे आपसी संप्रेषण की भाषा हो या सिनेमा की भाषा। ‘पीके’ दोनों स्तरों पर यह तोड़-फोड़ करती चलती है, वह कबीर की उलटबांसियों की तरह विरल और अटपटे संयोग रचती है।

दिल्ली की एक मेट्रो में पीला हैलमेट पहनकर परचे बांटता पीके जितना अजीब जग्गू (अनुष्का) को लगा होगा, हमें भी उतना ही अजीब लगता है। यह फिल्म ढेरों अटपटी स्थितियों से उपजने वाले हास्य की एक बानगी है। यहां भोजपुरी बोलने वाला एलियन है, एक खूबसूरत सी लड़की है, जिसे सब जग्गू (कभी जैकी श्राफ बना करते थे जग्गू दादा) कहकर बुलाते हैं। या फिर कुछ खांटी किस्म के लोग- जैसे भैरो सिंह (संजय दत्त) हैं जो जीवन को बस उतना ही समझना चाहते हैं जितना जीने के लिए जरूरी है। पीके इस धरती पर एक गलतफहमी का शिकार होता है। उसे लगता है कि भगवान उसकी दिक्कतों का हल निकालेंगे। जैसे-जैसे वह अपनी गलतफहमी के कारण जीवन-मृत्यु, पाप-पुण्य, सही-गलत में उलझता जाता है हमें यह समझ में आने लगता है कि पीके ज्यादा हम सब ‘कन्फ्यूजियाए हुए’ हैं। वह तो हमारे संसार में खाली जगह को बिल्कुल एक खाली जगह की तरह ही देख रहा है। वह सवाल पूछ रहा है मगर सवालों से वो लोग परेशान हो रहे हैं जो नहीं चाहते कि सवाल खड़े किए जाएं। जिस समाज में सवाल नहीं उठते वहां इत्मिनान से मुखौटे पहनकर धोखा देने का एक तंत्र चलता रहता है।

कला जब व्यवस्था पर सवाल करना चाहती है तो उसे कोई संत या उदात्त नायक नहीं एक एलियन या एक देहाती या एक मूर्ख चाहिए होता है। जो मूर्ख समझे जाने का जोखिम उठाते हुए सवाल पूछने का साहस कर सके। जिनके अहमकपने पर लोग कुपित हों, नाराजगी जताएं उसे भला-बुरा कहें, मगर उसका सामना करने से उसके सवालों से रु-ब-रू होने से बचें। उसकी निष्कलुष आंखों में झांककर अपना चेहरा देखने से कतराएं। दोस्तोएवस्की ने ‘अहमक’ (द ईडियट) में ऐसा ही किरदार रचा था तो बिमल मित्र के उपन्यास ‘मुजरिम हाजिर’ का किरदार भी अहमक न सही मगर परेशान करे वाले सवालों के साथ तो खड़ा ही था। कई बरस पहले राज कपूर की क्लासिक ‘जागते रहो’ का देहाती भी ‘पीके’ से अलग नहीं था। उसकी एक रात की मौजूदगी से शहरी जीवन का खोखलापन पूरे जोर के साथ बजने लगता है। वह इस भ्रष्ट ताने-बाने का एक मूक दर्शक भर होता है। पीके को अपना खोया हुआ ‘रिमोटवा’ चाहिए तो ‘जागते रहो’ के देहाती को अपना गला तर करने के लिए पानी। दोनों की एक ही जद्दोजहद है। अपने आप को बचाए रखने का संघर्ष। एक को जीने के लिए पानी चाहिए तो दूसरे को अपने घर जाने का साधन। दोनों की जिजीविषा को विस्तार दें तो वह आम आदमी के जीने के संघर्ष का ही विस्तार है। अपनी इस तलाश के चलते दोनों ही इस व्यवस्था के कुचक्र में फंस जाते हैं। बस, ‘जागते रहो’ का देहाती बोलता नहीं, वहीं पीके पूरी फिल्म में छोटी-छोटी चुटीली उलटबांसियों का इस्तेमाल करता है।

‘पीके’ की खूबी यही है। हीरानी के कथा कहने का यह अंदाज निराला है। गौर करें तो ये मूर्ख देहाती हमारी लोककथाओं में भी जगह-जगह मौजूद हैं। न जाने कितने किस्से हैं, जहां एक गंवार अपनी सहज बुद्धि से लोगों के पाखंड को उजागर कर देता है। पंचतंत्र की एक कथा में अपनी विद्या की शेखी बघारने वाले तीन ब्राह्मण एक मरे हुए शेर को जीवित कर देते हैं, जबकि उनके जिस साथी को गंवार समझा जाता था वह बराबर उन्हें आगाह करता रहता है कि शेर जीवित हो गया तो उन सबको खा जाएगा। जब शेर हमला करता है तो वही मूर्ख अपनी जान बचाने में सफल होता है क्योंकि वह पेड़ पर चढ़ जाता है जबकि उसके विद्वान साथियों ने कभी पेड़ पर चढ़ने जैसी मामूली विद्या सीखने की जहमत ही नहीं उठाई। ‘पीके’ में सहज बुद्धि और विद्वता के पाखंड के टकराव का बहुत ही सटीक चित्रण है। फिल्म में भले ही पीके दूसरे ग्रह से आया प्राणी हो, हमें इसलिए ग्राह्य है क्योंकि हमारी लोक परंपराओं में ऐसे नायक खूब रहे हैं। पीके उस बच्चे की तरह है जो राजा के दरबार में जाकर उसे नंगा कहने का साहस कर बैठता है।

हीरानी की फिल्में दरअसल आधुनिक लोककथाएं ही हैं। उनके किरदार भी लोकगाथाओं जैसे हैं। मुन्नाभाई, सर्किट, ‘पीके’ और जग्गू जैसे कैरेक्टर यहीं मिलेंगे। चाहे जैसे उन्हें उलट-पलट कर देख लें। लोकथाओं का टाइप दरअसल चरित्र की सामाजिक खूबियों को सामने लाता था। पिछले दिनों कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण नहीं रहे। इस  प्रसंग में उनका जिक्र करना जरूरी है। उन्होंने रेखाचित्रों के जरिए जो चरित्र रचे वे राजकुमार हीरानी की फिल्मों जैसे ही थे। मसलन आरके लक्ष्मण के ‘बिना गांधी टोपी वाले नेहरू…’ ऐसे रेखाचित्र जो सरल हास्य के बीच सत्य के करीब ले जाते हैं। लक्ष्मण अपने कार्टूनों के जरिए विद्रूप नहीं रचे। उनके सरकारी बाबू, नेता, गृहणियां, पुलिसवाला सब जैसे हमारे आसपास के किरदारों में घुलमिल जाते थे। हर चरित्र अपने में एक छोटी सी कहानी छिपाए रहता है। हीरानी के चरित्र भी कुछ ऐसी ही सरल रेखाओं से बने हैं। यही कारण है कि हर उम्र और वर्ग के लोग इन चरित्रों से आसानी से जुड़ जाते हैं। अनोखे चरित्र बनाना आसान है, क्योंकि आपके जीवन और आसपास ऐसे बहुत से चरित्र टकराते रहते हैं मगर ‘स्टीरियोटाइप’ की रचना करना बेहद मुश्किल है। अपने सकारात्मकता में स्टीरियोटाइप दरअसल समाज के एक खास वर्ग के ‘सारतत्व’ को प्रस्तुत करते हैं। यही वजह है कि स्टीरियोटाइप की थ्योरी पश्चिमी नाट्यशास्त्र में ‘स्टॉक कैरेक्टर्स’ में बदल जाती है। इस फॉर्म का इस्तेमाल बर्तोल्त ब्रेख़्त और दारियो फो जैसे नाटककारों ने भी सामाजिक विसंगतियों और खास सामाजिक चरित्रों को सामने लाने के लिए किया।

थिएटर की खूबियों और संरचनात्मक ताने-बाने से बुनी शंभू मित्र और अमित मैत्र की ‘जागते रहो’ भी कुछ ऐसी ही फिल्म थी, जहां एक बड़ी बिल्डिंग में रहने वाले लोग सांकेतिक रूप से जैसे पूरे देश और तत्कालीन भारतीय समाज के प्रतिनिधि बन गए। यह रूपक सिनेमा की भाषा में इसलिए संभव हो सकता क्योंकि शंभू मित्र के पास इप्टा के अनुभवों से हासिल थिएटर का अनुशासन था। ‘पीके’ की जड़ों में भी कहीं न कहीं थिएटर मौजूद है। चाहे इस फिल्म के लेखक अभिजीत जोशी का यूके के तमाशा थिएटर कंपनी से जुड़ाव ही क्यों न हो। शायद यह कारण है कि ‘जागते रहो’ का वह देहाती अब एक एलियन बन गया है। मगर दोनों कहीं न कहीं हमारे जनमानस में बसे कबीर का रूपक बन जाते हैं। वही ठसक, अंदाजे-बयां और सामाजिक विसंगतियों को भेदने वाली सहज मगर पैनी नजर। ‘जागते रहो’ राजकपूर की महान फिल्मों में से एक है। एक स्तर पर यह फिल्म मौलियर के किसी हास्य नाटक की तरह चलती हुई खत्म हो जाती है। मगर गौर करने पर हास्य से पिरोई इस कथा में बहुतस्तरीय अर्थ छायाएं हैं। ‘पीके’ भी अपनी सहजता में इस अर्थ छायाओं को साथ लेकर चलती है। फिल्म में “आसमां पे है खुदा, और जमीं पे हम” गीत का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है।

इस फिल्म में अनुष्का के कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी थी। आमिर जैसे अभिनेता के बरक्स उसे पूरी फिल्म के नैरेटर की भूमिका को निभाना था। कहानी तो जग्गू यानी अनुष्का कहती है और कहने वाला अगर ढीला-ढाला लगता तो शायद दर्शकों की सारी दिलचस्पी ही खत्म हो जाती। मगर अनुष्का गर्ल नेक्स्ट डोर बनी रहने के साथ ही पटकथा के संवेदनात्मक तंतुओं से जुड़ी रही हैं। वहीं आमिर ने विस्फारित नेत्रों से दुनिया को देखने वाले एलियन का न सिर्फ बेहद दिलचस्प किरदार जिया है बल्कि उसे एक गहराई भी दी है। आमिर मेथड एक्टिंग के करीब हैं और अपनी शारीरिक भाषा और किरदार को पर्दे पर पूरी तरह से जीने के लिए काफी मेहनत करते हैं। मगर यहां उनका पाला पड़ा एक काल्पनिक किरदार से। यह आमिर की खूबी है कि लेखन में पिरोए गए कुछ नए किस्म के मुहावरे जैसे ‘रांग कनेक्शन’ जुबान पर चढ़ जाते हैं।

हालांकि हीरानी को भी इसमें महारत हासिल है- तभी मुन्नाभाई, गांधीगिरी, ऑल इज वेल जैसे फ्रेज का वे न सिर्फ अविष्कार कर पाते हैं बल्कि उनकी सटीकता के जरिए पॉपुलर कल्चर में उसे लोकप्रिय भी बना देते हैं। बार-बार तुलना में लाई जाने वाली फिल्म ‘ओएमजी’ कहीं से कहीं तक ‘पीके’ के करीब नहीं बैठती। ‘ओएमजी’ ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करती हुई धार्मिक पाखंडो पर चोट करती है। मगर पीके इससे उलट सवाल करता है- “तुम एक छोटा सा गोला का छोटा सा शहर का छोटा सा गली मां बैठकर बोलता है कि ओकी रछा करेगा? जउन ई सारा जहान बनाया है!” ‘पीके’ वैचारिक तौर पर एक संशयवादी फिल्म है और इस संशयवाद का दामन हर जगह मजबूती से थामे रहती है मगर वहीं दूसरे स्तर पर उसकी इंसान की अच्छाइयों पर गहरी आस्था भी झलकती है। थोड़ा और गौर करें तो हीरानी की यह फिल्म एनॉलिटिकल भी है। पीके का हर कदम उसकी समझ में होने वाले किसी नए इजाफे से होता है। दिलचस्प बात यह है कि पीके को कुछ और समझ में आता है पर हमारे सामने कुछ और सत्य उद्घाटित होता है- जैसे कि वह कहता है कि धर्म एक फैशन है।

‘पीके’ की खूबी यह है कि वह कहानी कहने के लोकप्रिय तत्वों का सहारा लेते हुए बुराई को व्यक्ति केंद्रित बनाने की बजाय एक तंत्र के रूप में प्रस्तुत करती है और हमें उस तंत्र और विरोधाभासों के प्रति हमें सचेत करती है, जिनका जाल लुभावने शब्दों के जरिए बुना गया है। कबीर के शब्दों में कहें तो- माया महा ठगिनि हम जानी। तिरगुन फांसि लिये कर डोलै बोलै मधुरी बांनी।।

हैदरः हम हैं कि हम नहीं

झेलम झेलम ढूंढ़े किनारा/ डूबा सूरज किन आंखों में/ झेलम हुआ खारा/ किससे पूछें कितनी देर से/
दर्द को सहते जाना है/ अंधी रात का हाथ पकड़कर/ कब तक चलते जाना है

ग़ुलजार (फिल्म ‘हैदर’ के गीत से)

हैदर फिल्म पर बात इन्हीं पंक्तियों से शुरु होनी चाहिए। ये. पंक्तियां निर्देशक विशाल भारद्वाज के वास्तविक मंतव्य की ओर ले जाती हैं। यह फिल्म शेक्सपीयर के उदात्त नायकों और युगों की अनुगूंज अपने भीतर समेटने वाली मानवीय त्रासदी से गुजरते हुए असल में बहुत कोमल भाव के साथ समाप्त होती है। और अंत में जब फैज़ अहमद फ़ैज की एक नज़्म अंधेरे में लोरी बनकर गूंजती है और सिनेमाहॉल से निकलने के बाद बहुत देर तक पीछा करती है; तब एक भीषण रक्तपात में डूबा हुआ फिल्म का क्लाइमेक्स अंततः नज़्म की इन पंक्तियों पर हल्का होकर तैरने लगता है- “उन दुख़ी माँओं के नाम/ रात में जिन के बच्चे बिलख़ते हैं और/ नींद की मार खाए हुए बाज़ूओं से सँभलते नहीं/ दुख बताते नहीं/ मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं”।

हैदर एक सिंफनी रचती है। इसमें शेक्सपीयर हैं, विशाल भारद्वाज का रुह को छू लेने वाला संगीत है, फैज़ और गुलज़ार के याद रह जाने वाली रचनाएं हैं और विशाल भारद्वाज के अद्भुत संवाद हैं। तब्बू, केके, इरफान और शाहिद की अदायगी है। और इतिहास के त्रासद मज़ाक हैं। यही वह जगह है जहां विशाल इस फिल्म को बड़ा बनाते हैं। एक क्लासिक रचना पर आधारित यह फिल्म एब्सर्डिटी की हद तक जाने का खतरा उठाती हुई इतिहास के त्रासद मजाक पर टिप्पणी करती है। यह शेक्सपीयर से सैमुअल बैकेट तक का सफर है, मगर थोपा हुआ नहीं बल्कि भीतर कथा, किरदार और कैनवस में गुंथा हुआ। इस लिहाज से भारद्वाज की यह फिल्म अपने तेवर में आधुनिक या कहें तो उत्तर आधुनिक है।

फिल्म शेक्सपीयर के नाटक ‘हैमलेट’ को अपनी रचनात्मकता का आधार बनाती है। मूल कथा में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। शेक्सपीयर हैमलेट में क्लाडियस अपने भाई यानी हैमलेट के पिता की हत्या करके डेनमार्क का राजा बनता है और हैमलेट की मां उसकी रानी। राजदरबार में मौत का शोक और शादी का उत्सव- दोनों साथ होते हैं। शेक्सपीयर का हैमलेट बेहद संवेदनशील और कुशाग्र बुद्धि वाला शख्स है। हैदर भी कविताएं लिखता है और फिल्म आगे बढ़ती है तो विक्षिप्तता में उसकी शायरी चाबुक की तरह लगती है। शेक्सपीयर का हैमलेट अपने आसपास की घटनाओं से बुरी तरह व्यथित है। क्लाडियस उसे समझाकर अपने पक्ष में करने का प्रयास करता है। लेकिन हैमलेट को पिता की प्रेतात्मा बता देती है कि उसकी हत्या क्लाडियस ने ही की थी। हैमलेट का द्वंद्व और भी बढ़ जाता है। अब उसे अपने पिता की मौत का प्रतिशोध लेना है।

A scene from Vishal Bhardwaj movie Haider
नाटक का चरम शायद वह स्थल है जब राजतंत्र की निरंकुशता, मां की कमजोरियां और फरेब तथा पोलोनियस जैसे राज्याधिकारियों की सत्ता के प्रति अंधनिष्ठा- इन सबको देख कर प्रतिशोध की आग और आत्मघात की गहरी घुटन से भरा बेचैन हैमलेट पिता की हत्या के दृश्य को नाटक के रूप में पेश करके क्लाडियस को बेनकाब करता है। ‘हैदर’ में यह एक नृत्य-नाट्य प्रस्तुति के रूप में सामने आता है। हैदर बने शाहिद कपूर ने अपने आवेग भरे शारीरिक अभिनय से इन दृश्यों को यादगार बना दिया है। भारतीय फिल्मों में कथा के भीतर कथा के जरिए अतीत में हुए पापों को उजागर करने और प्रतिशोध का ऐलान करने का अंदाज बहुत लोकप्रिय रहा है। इसका सबसे लोकप्रिय उदाहरण फिल्म कर्ज के गीत “इक हसीना थी, इक दीवाना था…” के फिल्मांकन में देखा जा सकता है। पुराने दौर की बहुत सी हिन्दी फिल्मों में नायक के भीतर की घुटन और प्रतिशोध की भावना ही कथा के भीतर कथा का रूप ले लेती थी और उसे अक्सर मंच पर नाट्य रचनाओं की प्रस्तुति के रूप में दिखाया जाता था। यह फार्मुले में भले ही तब्दील हो गया हो उसकी जड़ों में हैमलेट का वह महान दृश्य है। ‘हैदर’ में यह घुटन तीव्र रूप इसलिए ले लेती है क्योंकि वह चरित्र अपने आसपास के राजनीतिक दबावों को भी समेटता हुआ चलता है।

भारतीय साहित्य पश्चिमी चरित्रों को किस तरह से स्वीकार या अस्वीकार करता है, इसका एक दिलचस्प उदाहरण हिंदी कवि रामधारी सिंह दिनकर के एक लेख में मिलता है। वे अपनी किताब कवि और कविता में लिखते हैं, “हैमलेट अनोखा हमें जितना भी लगे वह बिल्कुल अपरिचित व्यक्ति नहीं है। प्राचीन काल में हैमलेट की कल्पना नहीं की जा सकती थी, क्योंकि उस समय आदमी की जानकारी कम, मगर उसके मिजाज में स्थिरता अधिक थी। हैमलेट का असली समय वह है, जिसमें हम जी रहे हैं। ज्यों-ज्यों आदमी के ज्ञान में वृद्धि होती है, त्यों त्यों चिंतक वर्ग का बुरा हाल होता जाता है। यह युग उन मनीषियों का है जो फाउस्ट के सगोत्री होने के कारण मिट रहे हैं अथवा मिजाज से हैमलेट होने के कारण विनाश को प्राप्त हो रहे हैं; या तो उच्चाभिलाषाओं के कारण टूट रहे हैं या इस कारण बर्बाद हो रहे हैं कि जो बातें उनको पसंद नहीं है उनसे वे समझौता नहीं कर सकते।” हैदर भी हालात से समझौता नहीं करता।

विशाल भारद्वाज ने बड़ी सूझबूझ से हैमलेट की इस कहानी को भारतीय तानेबाने में बुना है। इसके लिए कश्मीर का चयन करना उनके रचनात्मक विवेक का उदाहरण है। हैमलेट और डा. फाउस्ट को आधुनिक पश्चिमी मानस का प्रतिनिधित्व माना जाता है। फाउस्ट जहां उच्च महत्वाकांक्षा का प्रतीक है, हैमलेट दुविधा का। हैमलेट जैसे ठेठ पश्चिमी किरदार को भारतीय परिवेश में प्रस्तुत करना एक मुश्किल काम था। मगर शाश्वत मानवीय स्थितियां देशकाल से परे होती हैं और कई बार सर्वथा भिन्न स्थितियों बेहद सटीक साबित होती हैं। जापानी निर्देशक अकीरा कुरोसावा ने अपनी फिल्मों में शेक्सपीयर और मैक्सिम गोर्की जैसे यूरोपीय लेखकों की रचनाओं को बिल्कुल भिन्न एशियाई परिवेश में प्रस्तुत किया और ये विश्व की महान फिल्मों में गिनी जाती है। ‘हैदर’ में कई बार लगता है कि हैदर के लिए कश्मीर का चयन नहीं बल्कि कश्मीर की विडंबना को दर्शाने के लिए हैमलेट का चयन किया गया है। फिल्म रिलीज होने से पहले भारद्वाज ने एक इंटरव्यू में कश्मीर की पृष्ठभूमि के चयन पर अपनी स्थिति साफ की थी। उन्होंने कहा था कि उन्हें हैमलेट के लिए एक हिंसक राजनीतिक पृष्ठभूमि की जरूरत थी। उन्होंने यह भी कहा कि हमने मुख्य धारा के सिनेमा में अभी तक कश्मीर की स्थिति पर वास्तव में कोई फिल्म नहीं बनाई है। कश्मीर और हैमलेट जैसे विषय पर आधारित फिल्म बनाना मुश्किल है लेकिन मुझे उम्मीद है कि मैं ऐसा कर पाउंगा।

…और विशाल ऐसा कर पाए। स्याह स्क्रीन में उभरने वाले फिल्म के आरंभिक दृश्यों के जरिए ही विशाल अपने दर्शकों को नब्बे के दशक की कश्मीर घाटी में ले जाते हैं। जहां की हवाओं में बारूद की गंध फैली है और पढ़ाई के लिए अलीगढ़ भेजा गया हैदर वापस लौटा है अपने पिता की तलाश में। हैदर के डॉक्टर पिता (नरेंद्र झा) अचानक लापता हो जाते हैं। उसे सिर्फ इतना पता चलता है कि डॉक्टर को सुरक्षा एजेंसियों के अफसर जांच के लिए ले जाते है। शक है कि डॉक्टर घाटी में सक्रिय आतंकी संगठन के लिए काम करते हैं। इसके बाद हैदर के पिता अचानक गायब हो जाते हैं। पिता की तलाश कर रहे हैदर के सामने कई रहस्योद्घाटन होते हैं। दर-ब-दर भटकते हुए हैदर को पता चलता है उसके पिता की रहस्यमय मौत हो चुकी है।

यह बताने वाला रूहदार है, जो खुद एक रहस्यमय शख्स है। इन घटनाक्रमों के बीच हैदर की अम्मी गजाला बेगम (तब्बू) और उसके चाचा खुर्रम (केके मेनन) निकाह करने की तैयारी कर रहे हैं। अपने पिता के हत्यारों से बदला लेने की फिराक में लगे हैदर के शक की सुई खुर्रम और अपनी मां पर टिक जाती है। हैदर को यह समझ में नहीं आता कि वह किस पर यकीन करे। अपनी मां पर, अपनी प्रेमिका अर्शिया पर या रुहदार पर। उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगता है। मगर यह संतुलन बिगड़ना भी एक रचनात्मक ट्विस्ट है। मिशेल फुको जैसे उत्तर आधुनिकतावादी चिंतक मानते हैं कि जिन्हें पागल समझा जाता है हो सकता है कि वे संवेदना के स्तर पर बिल्कुल अलग जमीन पर खड़े हों और तथाकथित सामान्य लोग किसी सामूहिक विक्षिप्तता का शिकार हों। फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है हैदर एक डिस्टॉर्टेड (विरूपित) कैरेक्टर बन जाता है। हैदर समझ जाता है कि वह कुछ कर नहीं सकता मगर व्यवस्था पर उसके हंसने की ताकत को कोई राज्यसत्ता नहीं छीन सकती। हैदर का परिहास या मज़ाक उड़ाना एक गहरी निराशा से निकलकर बाहर आता है। यही विशाल भारद्वाज का ‘हैमलेट’ है।

Haider Movie

हैदर के किरदार का यह ट्रांस्फार्मेशन स्तब्ध कर देता है। उसके इसी पागलपन के दौर में हैमलेट के ‘टू बी ऑर नॉट टू बी, दैट इज द क्वेश्चन’ को विशाल भारद्वाज ‘हम हैं कि हम नहीं’ के रूप में सामने लाते हैं। यह हैमलेट की दुविधा तो है ही, कश्मीर को उसकी एब्सर्डनेस के साथ सामने लाता है। “शक पे है यकीं तो/ यकीं पे है शक मुझे”। उसकी प्रेमिका अर्शिया पूछती है, “मतलब?” तो हैदर जबाव देता है, “रुहदार का अफसाना सच्चा/ या झूठी कहानी चचा की/ किसका झूठ झूठ है/ किसके सच में सच नहीं/ है कि है नहीं/ बस यही सवाल है/ और सवाल का जवाब भी सवाल है” अर्शिया फिर पूछती है, “क्या?” हैदर का जवाब है, “दिल की गर सुनूं तो है/ दिमाग की तो है नहीं/ जान लूं कि जान दूं/ मैं रहूं कि मैं नहीं”।

विशाल की रचनात्मक सूझबूझ का एक और उदाहरण रूहदार (इरफान खान) का किरदार है, जो खास इस फिल्म के लिए ही रचा गया है। रूहदार ही हैदर को पिता की हत्या के बारे में बताता है, जबकि नाटक में हैमलेट की पिता की प्रेतात्मा रहस्योद्घाटन करती है। मूल नाटक की तरह यहां भी हैदर यानी हैमलेट क्लाडियस यानी खुर्रम (केक मेनन) को मार डालने की फिराक में घूम रहा है और क्लाडियस हैमलेट को। शेक्सपीयर के हैमलेट में मौका पाकर भी अपने संस्कारों के कारण हैमलेट प्रार्थना कर रहे क्लाडियस को मार कर स्वर्ग में नहीं भेजना चाहता है। फिल्म में यही स्थिति खुर्रम और हैदर के बीच उपस्थित है। हैदर और उसकी मां के बीच रिश्ते भी काफी जटिल हैं। हालांकि हैदर का ओडिपस कांप्लेक्स वास्तविक नहीं लगता, कम से कम सामान्य स्थितियों में यह उतना मुखर नहीं होता जैसा कि फिल्म दिखाने का प्रयास करती है।

नाटक के अंत में पोलोनियस के बेटे लेयर्टीज के साथ तलवारबाजी में जहर बुझी तलवार और जहरीली शराब से क्लाडियस, रानी, हैमलेट सब मारे जाते हैं। पीछे छूट जाता हैं- लाशों का ढेर और उनकी कहानियां। मरते वक्त भी अविश्वास से भरा हुआ हैमलेट होरेशियो से फरियाद करता है- ‘अगर तूने कभी मुझे अपने दिल में जगह दी हो तो छोड़ दे अपनी खुशी थोड़ी देर के लिए और इस जालिम दुनिया में अपने दर्द की सांसें गिनते हुए मेरी कहानी कहने के लिए जिंदा रह!’

हैदर एक राजनीतिक फिल्म नहीं बल्कि राजनीतिक रूप से एक संवेदनशील फिल्म है। यह चेक लेखक मिलान कुंदेरा के उपन्यास ‘द जोक’ या जार्ज आरवेल के ‘1984’ की तरह निजी जीवन में राजनीतिक की पर्तों को उद्घाटित करती है। कई दृश्यों में यह फिल्म एक कॉमिकल प्रहसन का भी सृजन करती है। जैसे चौक पर भीड़ को संबोधित करता सनक गया हैदर, या कब्र खोदते वक्त गीत गाते बूढ़े। सलमान और सलमान (फिल्म के दो हास्य चरित्र जो मुखबिर का काम करते हैं) के किरदार को प्रस्तुत करने में विशाल लगभग हॉलीवुड के अंतोनियो तारंतोनी की तरह हास्य और हिंसा के मेल को तटस्थ रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस फिल्म पर विवाद हुए। खास तौर पर फिल्म की रिलीज के बाद ही सोशल मीडिया पर फिल्म पर काफी चर्चा हुई।

इस फ़िल्म को लेकर ट्विटर पर दो समूह बन गए, एक समर्थकों का और एक विरोधियों का। दोनों समूह अपने-अपने हैशटैग प्रयोग कर रहे थे। फ़िल्म की आलोचना करने वालों ने रिलीज होने के कुछ ही दिनों के भीतर #BoycottHaider (हैदर का विरोध करो) हैशटैग से 75 हज़ार से ज़्यादा ट्वीट किए। विरोध में एक दूसरा समूह खड़ा हुआ जिसने हैदर को एक सच्ची अभिव्यक्ति माना है। इस समूह ने उसी दौरान #HaiderTrueCinema (हैदर वास्तविक सिनेमा) हैशटैग से 45 हज़ार से ज़्यादा ट्वीट किए थे। मगर यह फिल्म हमारे भारतीय समाज के विमर्श को एक कदम आगे ले जाती है जहां हम संवेदनशील विषयों के प्रति अधिक उदार हो रहे हैं। बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में दी इंडियन काउंसिल ऑफ़ वर्ल्ड अफ़ेयर्स’ के विश्लेषक डॉ.ज़ाकिर हुसैन ने इस बहस को सकारात्मक रूप में लेते हुए कहा, “भारत की लोकतांत्रिक परंपरा जितनी मजबूत होगी ऐसी फ़िल्में उतनी ही ज़्यादा बनेंगी और लोग शिक्षित होंगे। ‘हैदर’ इस दिशा में पहला क़दम है।”

कुल मिलाकर ‘हैदर’ बहस की ओर खींचती तो है। वह बहुत सारे परेशान करने वाले सवालों से घेरती भी है। बकौल हैदर- “सवाल का जवाब भी सवाल है….”। वह हमारे भीतर मौजूद हैमलेट को टटोलती है।