अक्षत वर्मा की शॉर्ट फिल्म मम्माज़ ब्वायज़ को देखकर यह समझ में आ जाता है कि अभी भारत में शॉर्ट फिल्मों को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। यह महाभारत के बहाने एक घटिया कॉमेडी फिल्म बनाने की कोशिश है। आश्चचर्य की बात यह है कि ज्यादातर रिव्यूज में इसे बेहद यूनीक, स्टाइलिश और मार्डन फिल्म बताया गया है। स्क्रोल का आलेख सेफ गेम खेलता है, वह न तो फिल्म की बुराई करता है और न तारीफ। इंडिया टूडे ने इसे पोस्टमार्डन ट्विस्ट बताया है, वहीं ट्यूब स्कूप ने इसे एक नॉटी टेक कहा है। द क्विंट ने इस फिल्म को महाभारत का परफेक्ट मार्डन डे इंटरप्रिटेशन कहा है। कैच न्यूज न्यूट्रल है जबकि बीबीसी ने इसे एक अपमानजनक कोशिश बताई है।
इस शार्ट फिल्म ने यह बताने की कोशिश की है कि द्रौपदी एक से अधिक लोगों के साथ संबंध को इंज्वाय कर रही है। बीबीसी हिन्दी की संवाददाता गीता पांडेय लिखती हैं- हंसी से भरपूर सोलह मिनट की इस फ़िल्म में द्रौपदी बनी बॉलीवुड कलाकार अदिति राव हैदरी ने एक सजीव, चटपटी और कामुक आधुनिक स्त्री की भूमिका निभाई है, जो कई लोगों को फ़्लर्ट करती है. वहीं मिथकों पर गंभीरता से लिखने वाले लोकप्रिय लेखक देवदत्त पटनायक ने इस शार्ट फिल्म को शरारत और धृष्टता से भरा बताया है।
फिल्म काफी बेतुकी है। पात्रों को आधुनिक परिवेश के बीच ड्रामे जैसे कास्ट्यूम पहनाए गए हैं। मगर इससे वो कलात्मक फ्यूजन नहीं क्रिएट होता, जो कि इस तरह की फिल्मों में होना चाहिए। पात्रों का चरित्र-चित्रण न तो आधुनिक जमाने का है और न ही पुराने जमाने का। द्रौपदी के चरित्र चित्रण को आधुनिक माना जाए तो अर्जुन और कुंती के बारे में क्या कहेंगे। वे किस जमाने के हैं? अगर द्रौपदी नए दौर के मुताबिक फैसले लेती है तो कुंती कैसे आपस में बांट लो बोल सकती है? और यहां पर कोई उस पर डिबेट क्यों नहीं करता। क्योंकि पात्र ही विश्वसनीय नहीं है तो अब आप फिल्म वैसे ही देखते हैं जैसे कि कपिल शर्मा का कॉमेडी शो। बिना दिमाग, बिना तर्क के।
शायद यह फिल्म बेहतर बन जाती अगर इसे सचमुच आधुनिक परिवेश से जोड़ा जाता। तब पात्र और घटनाएं अलग तरीके से काम करतीं। तब ‘आपस में बांट लो’ वाला संवाद नहीं होता। यह कुछ कुछ वैसी होती जैसे कि श्याम बेनेगल ने ‘कलयुग’ बनाई थी और महाभारत को आधुनिक बिजनेस घरानों के एपिक ड्रामा में बदल दिया था। या यह गिरीश कर्नाड जैसा प्रयोग होता – उसी काल और परिवेश में मगर एक आधुनिक चेतना के साथ घटनाओं और पात्रों और उनके मन में चल रहे विचारों का विश्लेषण। भले ही वहां हास्य होता, भले ही पात्रों को नए तरीके से डिफाइन किया जाता, भले ही द्रौपदी की संबंधों और सेक्स के प्रति सोच को नए तरीके से देखने का प्रयास होता। मगर कुछ तो होता… इस फिल्म में तो कुछ भी नहीं है।
कई जगह फिल्म एकता कपूर के प्रोडक्शन से निकली सेक्स कॉमेडी जैसी लगती है। जिम में हिडिम्बा के साथ बातचीत, द्रौपदी का क्लीवेज दिखाने वाली ड्रेस में पानी से बाहर निकलना, भीम और द्रौपदी के बीच का प्रसंग… यह सब ऐसा ही है। नकुल और सहदेव को होमोसेक्सुअल दिखाने वाला प्रसंग भी काफी फूहड़ है। कुल मिलाकर रॉयल स्टैग की लांग शॉर्ट फिल्म सिरीज की यह फिल्म हर तरह न सिर्फ निराश करती है बल्कि यह भी बताती है कि बोल्डनेस और नयापन लाने के लिए भी आपके भीतर समझ होनी चाहिए। कई बार एक भ्रम भी हो सकता है। जैसी की यह फिल्म जो दरअसल है औसत से भी नीचे के दर्जे की मगर स्वांग करती है एक आधुनिक तेवर वाली फिल्म का।
फिल्म मम्माज़ ब्वायज़